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Showing posts from November, 2015

"गोंडियन गोत्र व्यवस्था"

"गोंडियन गोत्र व्यवस्था" हमारे एक मित्र ने गोंडियन समुदाय के गोत्र तथा देव व्यवस्था संबंधी जानकारी चाही है । हमारी परंपरागत गोंडियन व्यवस्था का आरंभ प्रकृति के ऋण और धन सूत्र के आधार पर स्थापित की गई है । समुदाय की पारंपरिक व्यवस्था में माता और पिता के पक्ष को आधार माना गया है । इसी को व्यवस्थित करते हुए हमारे महान तत्ववेत्ता धर्मगुरू पहांदी पारी कुपार लिंगों ने आपसी संबंध कैसे हों ,इसके लिये पारी व्यवस्था दी है । जिसे हम समान्यतया पारी सेरमी के रूप् में देखते हैं । चूंकि मानव की आरंभिक अवस्था के पशुवत जीवन से आसपसी समूह संघर्श के हिंसक परिणाम को प्रथम लिंगों ने गंभीरता से लिया । तब एैसे समूहों के बीच आपसी सामंजस्य स्थापित करने के लिये तथा प्रकृति के बीच जीव जगत का संतुलन बनाये रखने के लिये प्रत्येक समूह में गोत्र व्यवस्था को लागू किया । यह गोत्र व्यवस्था आज विश्व के समस्त देशों में आज भी संचालित है । गोत्र व्यवस्था ने सम गोत्रधारियों के बीच आपसी भाईचारे को जन्म दिया । विभिन्न समूहों में समगोंत्रधारी आपस में सगा के रूप् में स्थापित हुए । गोत्र व्यवस्था ने समूहों के बीच हो

"शोसल मीडिया में रावन के सम्बन्ध में चल रही चर्चा के पर"

"शोसल मीडिया में रावन के सम्बन्ध में चल रही चर्चा के पर" साथियों,राजा रावन के बारे में हमें छेत्रीय बन्धन से ऊपर उठ कर विचार बनाया जाना चाहिए।कारन भी है कि ब्राह्मण कभी राजा नहीं हुआ,इसलिए उन्हें हम अपने नजदीक पाते हैं। साथ ही उनके पुत्र मेघनाद को पेन्कमेढी/वर्तमान पचमढी के आसपास विदिशा,भोपाल देवास,हरदा सिवनी छिदवाडा बैतूल,सीहोर सहित महाराष्ट्र के काफी जिलों में मेघनाद पर्व मनाया जाता है।इस मान्यता के आधार पर रावन हमारा पूर्वज हो सकता है।मण्डला जिले में सैला नाच,गान में"गोन्डी जन "रावन वन्शी पोई ना मर्री झारा धोती वारे" ऐसे शब्दावली का प्रयोग होता है। इसलिये रावन से संबंधित चर्चा में बड़ी सतर्कता की आवश्यकता है। हमें यह भी ध्यान रखना है कि मनुवादियो ने माहौल देखकर अपना पैतरा बदलने में देर नहीं करते। महावीर,बुद्ध,जैसे महापुरुषों को विष्णु का अवतार बना लेते हैं तब रावन को ब्राह्मण कह रहे हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

"आदिवासी, अनुसूचित जनजाति ,ट्राईबल "

"आदिवासी, अनुसूचित जनजाति ,ट्राईबल " सगाजनो आदिवासी और मूलनिवासीयो के सम्बन्ध में आपके तर्क अपनी जगह सही है,लेकिन आदिवासी एवं मूलनिवासी शब्द अभी भी सन्वैधानिक दर्जा नहीं ले पाए हैं।परन्तु आदिवासी शब्द अपनी व्याख्या के साथ सारे देश में मूलनिवासी समुदाय के उस हिस्से का पर्याय बन चुका है जो अभी तक अपनी प्राकृतिवादी व्यवस्था एव सन्सक्रति मे जी रहे हैं जिससे उन्हें अन्य मूलनिवासी समुदाय से पहचाना जाता है । मूलनिवासी की परिभाशा मे तो देश का अनु०जाति ,अन्य पिछड़ा वर्ग भी है परन् तु इन्होंने मूल सान्सक्रतिक पहचान खो दिया है पर हैं तो मूलनिवासी ऐसी परिस्थिति में सान्सक्रतिक पहचान को सुरक्षित रखने वाला समूह यदि आदिवासी नाम पर सन्गठित होता है तो इस शब्द पर गम्भीर हुआ जा सकता है । अन्यथा मूलनिवासी शब्द आपकी सान्सक्रतिक पहचान को भी निगल लेगी कारण भी है कि मूलनिवासी समुदाय का मात्र आठ प्रतिशत हिस्सा जो सन्विधान में अनुसूचित जनजाति के नाम से जाना जाता है ,। मात्र इसी हिस्सा को हिन्दू नहीं माना जाता । अब यदि हम आदिवासी नाम को अलग करते हैं तो जो इसे आत्मसात करके सान्सक्रतिक पहचान रखने वाला स

"मध्यप्रदेश मे दिवारी पन्डुम"

"मध्यप्रदेश मे दिवारी पन्डुम" मध्यप्रदेश मे दिवारी पन्डुम सान्सक्रतिक एकता का परिचय देता है । अमावस की पूर्व सन्ध्या मे ग्राम के सम्मानित लोग,भुमका/बैगा एवम् कोपा(अहीर) ग्राम के खीला मुठवा मे जाकर गोन्गो करते है जिसमे विशेष पौधा मेमेरी(बन तुलसी) लरन्घा (विशेष बरीक बीज वाला खाद्य) दाल ,कोहका(भिलवा पत्ता) सहित कुछ जडी बूटी की डाल एवम् पत्तो को गोन्गो उपरान्त कोपाल की लाठी मे सहेजकर बान्धा जाता है । गोनगो सम्पन्न होने के बाद बैगा तुर्रा बजाकर गोन्गो सम्पन्न होने का सन्केत देता  है मान्दर/म्रदन्ग की थाप के साथ कोपा गान्व के गाय,बैल,बछडो के स्वस्थ कामना के गीत (बिरहा) गाकर उस दिन से अपनी बान्सुरी के स्वर निकालना आरंभ करता है । उधर सभी ग्रामवासी अपने अपने अपने घरों के मवेशीयो के ,अपने देवी दिवाला के दरवाजे खोल देते हैं ( वर्तमान समय में बैगा और कोपा के आने पर) खीलामुठवा में गोन्गो करने वाली टीम गाते बजाते ग्राम के एक छोर के घर से लाठी मे बन्धे औषधि जिसे छाहुर कहा जाता है । कोपा द्वारा उस घर के सयानी गाय या बैल की आदतों का वर्णन करते हुए विशेष आशीर्वाद गीत गाकर गाय बैल कोठार में &q

"गोन्डी भाषा मानकीकरण"

"गोन्डी भाषा मानकीकरण"पर सोसल मीडिया मे सम्वाद पर चर्चा के तहत :- अभी कुछ साथियों ने गोन्डी भाषा मानकीकरण के सम्बन्ध में कुछ आशन्का कुछ जिज्ञासा से व्हाटएप में चर्चा चलाया। स्वाभाविक है इस पर चिंता करना ! साथियों सीजी नेट एक पत्रकारिता की विशेष प्रयोगिक पहल है जो मोबाइल के जरिये दूर दराज क्षेत्रों में तथा जहाँ प्रिन्ट मीडिया की पहुंच नहीं होती या आखरी छोर के व्यक्ति की आवाज को प्रिन्ट मीडिया में स्थान नहीं मिल पाता ! अपनी समस्या अपनी आवाज में देश की जनता और शासन प्रशासन तक मोबाइल के माध्यम से पहुंचे ! दबाव बने ! सीजी नेट अपना काम प्रमुखतया हिन्दी भाषा में करता है। स्वास्थ्य स्वरा के नाम पर स्वास्थ्य संबंधी जानकारी जैसे टेलिमेडिसन की तरह कार्य चल रहा है। इसी तरह मोबाइल पत्रकारिता के माध्यम से देश की विभिन्न भाषाओं में इसे चलाया जाता है। आदिवासी भाषा में गोन्डी को पहला माध्यम बनाने के सम्बन्ध में शुभ्रान्शु जी का कहना था कि यह भाषा देश के आठ राज्यों में बोली जाती है। आप लोग अन्य राज्यों के गोन्डी भाषा वाले लोगों से आपस में सन्वाद नही कर पाने से सन्वाद में कठिनाई होती है इससे

"मडई जतरा और मूलनिवासी समुदाय"

"मडई जतरा और मूलनिवासी समुदाय" मडई :- मध्यप्रदेश के गोन्डी बेल्ट मे मडई का प्रचलन आज भी जारी है।पर यह अपने मूल उद्देश्य से लगातार भटकता जा रहा है। केवल पान खाने या गन्ना,सिन्घाडा और मिठाई खरीदने तक सीमित हो रहा है। मध्यप्रदेश के पुरातन परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो मडई केवल पेन और वेनो के आपस में मुलाकात और भेट का आयोजन है। मडई का आयोजन दिवारी में स्थापित गुरुवा और गान्गो ,ईशर गवरा या जन्गो लिन्गो जो कि विशेष परिवार में स्थापित किया जाता है उसका सामाजिकरण करने के उद्देश्य से मडई का आयोजन होता है। क्षेत्र के किसी परिवार में गुरुवा (पुरुष पक्ष) अर्थात ईशर या लिन्गो को अपने परिवार से संबंधित मानने वाला परिवार दिवारी में इसकी स्थापना करता है।वहीं अन्य परिवार गान्गो बाई,गवरा या जन्गो की स्थापना करते हैं। प्रत्येक अलग अलग मडई में एक गुरुवा को मोर पंख को बान्स की ऊचाई मे बान्धकर घर से परिवार एवं उस गांव के निवासी गाजा बाजा और उस गांव के भुमका और कोपा अहीर के साथ निर्धारित मडई तिथि में पहुँचते हैं तथा मडई स्थल के बीच में विधिवत् पूजा करके स्थापित कर दिया जाता है और उस परिवार के लो