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Showing posts from May, 2017

"पीढ़ी पूजा, लाडू काज या नारायन पेन पूजा"

काफी दिनों से प्रयास में था कि इस विषय पर समुदाय के बुजुर्गो से प्राप्त जानकारी को शेयर करू । हो सकता है यह पूजा क्षेत्र विशेष तक सीमित हो या हो सकता है सभी जगह प्रचलित हो । पूजा की प्रक्रिया से लगता है कि इसका प्रचलन मुगलकाल से आरम्भ हुआ है । या हो सकता है कि यह पूजा पद्दति गोडियन व्यवस्था मे पहले से प्रचलित रहा हो परन्तु वर्तमान पद्दति का सूक्ष्म अवलोकन करने से पता चलता है कि जिस पद्दति से आज की पूजा हो रही है शायद पूर्व मे ऐसा नही हो रहा होगा । प्राप्त जानकारी के अनुसार यह पूजा किसी परिवार की एक पीढ़ी जब विवाह कार्य से मुक्त हो जाती तब पीढ़ी पूजा की जाती थी । परन्तु कुछ क्षेत्रों में देखने में आता है कि विवाह सम्पन्न होने के तीन साल बाद इस पूजा को सम्पन्न कराया जाता है । खैर जब भी होता हो लेकिन जिस नारायन पेन की पूजा की जाती है उसे तो समय समय पर अन्य पेनो की पूजा के साथ भी की जाती है । नरायन पेन की पूजा के सम्बन्ध में एक किवदन्ती प्रचलित है कि मुगल काल में जिन राज्यों में उनकी सत्ता थी या जिन राज्यो पर विजय पाते जाते थे उन राज्यों में मुगल सैनिकों के डेरे होते थे। कुछ सेना के टुकड़

“आटोक्रेट रूलर एण्ड मीडिया इन इन्डिया”

 "वर्तमान सत्ता और मीडिया की भूमिका के संबंध में विश्व राजनीतिक धरातल पर मीडिया की भूमिका का उदाहरण देते हुए एन डी टी वी के विश्लेषक रवीश कुमार ने स्पष्ट किया है कि वर्तमान सरकारें किस तरह काम कर रहीं हैं । यह संदर्भ भारतीय राजनीति के लिये कितना सटीक है इससे ही समझा जा सकता है कि भारतीय राजनीतिक दल भी अब अपनी पार्टी के प्रचार प्रसार के लिये जापान, इंग्लैड ,जर्मनी की एजेंसियों को मोटी रकम देकर हायर कर रहे हैं, तब न्यूयार्क टाईम्स के लेख पर रवीस जी का विश्लेषण कितना सटीक बैठता है ! प्रस्तुत है उनकी आडियो का लिखित रूप में वाचन ।          “पिछले साल न्यूयार्क टाईम्स में एक लेख छपा था इकानामिक्स के प्रोफेसर सर्जई गुरीव और राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डेनियल त्रेसमन का लेख कहता है कि आज कल नये प्रकार के आथारिटेरियन सरकारों का उदय हो चुका है, ये सरकारें विपक्ष को खत्म कर देती हैं , थोडा   बचाकर रखती हैं, ताकि विपक्ष का भ्रम भी बना रहे , इन सरकारों ने ग्लोबल मीडिया और आई टी युग के इस्तेमाल से विपक्ष का गला भी घोंटा है । अति प्रचार , बह

"पेन कडा" "पेन करा !

इस पूजा से संबंधित मोटी मोटी जानकारी को देने का प्रयास कर रहा हूं हो सकता है विभिन्न क्षेत्रों में इसके अलग अलग तौर तरीके और स्वरूप हों इस व्याख्या के माध्यम तथा जानकारी के आदान प्रदान से मूल रूप सामने आ सकेगी एैसी मेरी अभिलाषा है ।  "पेन कडा" वह स्थान जिसमें एक गोत्रधारी वर्ष में या तीन वर्ष में अपने पडापेन/ बुढालपेन की पूजा करने आते हैं जिसे कहीं दिवाई या खखरा झारना भी कहा जाता है ।सामान्यतया यह स्थान गांव से दूर जंगल पहाड या खेत में साजा के वृक्ष को केंद् र मानकर खलिहान जैसे गोल घेरा जिसमें कहीं कहीं पत्थरों का परकोटा बना दिया जाता है जिसमें केवल एक द्वार होता है ।  गोंडियन पेन व्यवस्था में पडापेन बुढालपेन की पूजा का विशेष महत्व है जो देश के लगभग सभी गोंडियन समुदाय में प्रचलित है । वर्तमान समय में विधिवत पूजन एवं नियुक्त व्यक्तियों की भूमिका की उदासीनता तथा समयाभाव के कारण अब ये छोटे छोटे परिवार समूहों में सिमटता जा रहा है । कहीं इसे पडापेन काम या पेनकडा करा पुंजा आदि नाम को व्यवहार में लाया जाता है । मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में इस पुजा का पुरातन स्वरूप कहीं कही आज भी व

"पांचवीं अनुसूचि और रूढी पंचायतें"

सभी जानते हैं कि गांव में आज भी सामाजिक पंचायतो की परंपरा अलिखित रूप से हर समुदाय में कायम है । इस पंचायत के निर्णय को समाज आज भी सम्मान देता है । ग्राम समुदाय का मुकददम या पटैल के साथ साथ उनके सहायक कोटवार, दीवान तथा धार्मिक ,सांस्कृतिक, वैवाहिक क्रियाकलापों में सदैव अपना योगदान देने वाला बैगा ,भुमका या पडिहार आज भी अपना योगदान दे रहे हैं । दुर्भाग्य से यह रूढी परंपरा अब धीरे धीरे कमजोर होती जा रही है । इसका एक कारण है शासन प्रशासन ने इस पर ंपरा में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है । यथा ग्राम प्रमुख मुक्कदम या पटैल सरकारी महकमे का राजस्व वसूली करने वाला नौकर मात्र बनकर रह गया है । कोटवार जो ग्राम समुदाय के हर आदेशों का पालन करता था आज वह तन्खैया पुलिस बनकर पुलिस विभाग का मुखबिर बनकर रह गया है । न्याय व्यवस्था की कमान शासन द्वारा नियुक्त ग्राम न्यायधीश के हाथ चली गई । इस तरह हमारी रूढी परंपरा और स्वशासन को "त्रिस्तरीय पंचायत राज" कायम करके पूरी तरह पंगु बना दिया गया है । यह परंपरागत पंचायत व्यवस्था प्रशासन के पूरे नियंत्रण में चली गई है । आज हम पांचवी अनुसूचि वाले क्षेत्रों ज

"जनजातियों का धर्म कोड हो कि ना हो ।"

बुद्धिजीवि ध्यान दें  कुछ साथियो का मत है कि हम धर्म पूर्वी हैं । ध्यान रहे दुनिया का कोई भी इंसानी नस्ल धर्म पूर्वी ही है । प्रकृति के सामान्य वन्य जीवन से अपने आपको व्यवस्थित करने के लिये जिन समूहो ने शनै शनै अपने अनुकूल व्यवस्था बनाई अपने समुदाय को व्यवस्थित कर व्यवस्थित जीवन जीने की राह बनाई आगे चलकर यही उसके जीवन का मार्ग बना जिसे चाहे धर्म कहें मार्ग कहें पुनेम कहें एक ही बात है परन्तु केवल हम ही धर्म पूर्वी हैं तो हमारा भी तो जीवन  जीने का कोई मार्ग रहा होगा उसका कुछ नाम का संबोधन हो, जिसे हम केवल धर्म पूर्वी कहकर किसी को संतुष्ट नहीं कर सकते अत हमारा भी कोई धर्म रहा है । इसलिये मैं इस तर्क से सहमत नहीं हो सकता कि हमारा कोई धर्म नहीं रहा है । जिसे जरूर सामने लाया जाय भले ही वह किसी नाम से संबोधित हो । अन्यथा हम सदैव धर्मांतरण को शिकार रहेंगे कारण कि हमारा धर्म कोड नहीं है इसलिये धर्मांतरण कानून का हमें के दायरे में हमारा समुदाय नहीं आ पायेगा । कोई भी गैर धर्माधिकारी हमें धर्मांतरित कर लेगा जैसे आज भी कर लेता है कोई हमारी रक्षा के लिये नहीं आता । कुछ लोगों का मत है कि अधिकारों क

"प्रथक धर्म कोड से असली नकली की पहचान होगी"

जैसा कि हम आज यह कहते नहीं थकते कि आदिवासी अन्य धर्म गृहण कर दोहरा फायदा उठा रहे हैं । उनको मिलने वाली शासकीय सुविधा समाप्त होना चाहिये आदि आदि । पर आप किस आधार पर कह रहे हैं ,संविधान तो उन्हे जनजाति मानता है आप मानें या ना मानें । आप छोटे छोटे आदिवासी धर्म में बंटे रहो दूसरा बडा ग्रुप आपके बीच से लोगों को लेकर आपकी संख्या को खाली करता रहेगा ,जनजाति बना रहेगा कारण कि हम आज केवल उन्हें ही आदिवासी जनजाति मान रहे हैं, जो संविधान की सूच ि में हैं और सूचि में नहीं पर आदिवासी परंपराओं का पालन कर रहे हैं उन्हें हम आदिवासी नहीं मान रहे हैं उनका विरोध कर रहे हैं कि वे सूचि में शामिल होकर अपना हक मारने की कोषिश कर रहे हैं । यह सोच हमारे जातिवाद का परिचायक है । ये दोहरी मानसिकता समुदाय के हित में केवल आरक्षण को लेकर है, धर्म संस्कृति को लेकर की जा रही चिंता नहीं ? यदि आपको समुदाय की मूल भाषा ,धर्म, संस्कृति की चिंता है तो आपको एक आदिवासी धर्मकोड बनाकर जनजाति के गैर धर्मी होने का विरोध कर सकते हैं, अभी का विरोध मात्र आरक्षण के लाभ का विरोध है और धर्मकोड के बाद का विरोध आपकी रूढी परंपरा और धर्म से

"भय और अफवाह से सावधान"

मूर्ति को दूध पिलाना और अज्ञात नम्बर के भय से डर जाना लगभग एक ही बात है । कहीं एैसा तो नहीं कि आपके बौद्धिक स्तर का मूल्यांकन किया जा रहा हो कि, भले ही आप कम्प्यूटर पर उंगली चलाने लगे हो पर, आपकी समझ अभी भी अफवाह ,भाग्य, भगवान ,में कितना भरोशा करता है । यदि आपके सोचने समझने के स्तर का मूल्यांकन हो चुका होगा, तो उस स्तर का कोई पाखण्ड, अफवाह इजाद किया जायेगा ताकि समय समय पर बतौर प्रयोग आपका इलाज हो सके । चूंकि आसार गृह युद्ध के लगने लगे हैं । और गृह युद्धों में अफवाहों की अहम भूमिका होती है । -gsmarkam

"हम और हमारा देश किस व्यवस्था की ओर जा रहा है ।"

जिस देश में आरोपी अपने सिर पर लगे आरोपों का स्वयं फैसला देने लगे । तब उस देश की न्याय व्यवस्था को क्या कहेंगे ।  लोग भले समझें या ना समझें लेकिन न्याय व्यवस्था में इस तरह की हरकत भविश्य में तानाशाही व्यवस्था कायम होने का संकेत देता हे । जहां सत्ताधारी तानाशाह सारी शक्ति को अपने हाथ में ले लेता है । देश में सत्ताधारी दल के द्वारा कुछ लिये जा रहे निर्णय भी कुछ इसी तरह के फेसले और निर्णय लेते नजर आ रहे हें । यहां तक राष्टपति के व िशेषाधिकार और बार बार निर्देशों के बावजूद उनके आदेश ओर जनहित में की जा रही चिंता को नजरंदादाज करना क्या संकेत देता है । संविधान के महत्व को लगातार कम करते हुए व्यक्तिवादी सोच के महत्व को आश्रय देना । एैसे कथित महापुरूष और दुनिया के गिने चुने देशों की व्यवस्था की हिमायत करना, जो कि तानाशाही व्यवस्था से दुनिया में आम जनता को गैस चेम्बरों में डालकर सामूहिक हत्या कराना । । मानवता को दरकिनार कर विश्व विजय का लक्ष्य निर्धारित करना । -gsmarkam "प्रिंट और इलेक्टानिक मीडिया में शीर्षक का असर" "म0प्र0 बोर्ड का 2017 का परिणाम और समाचार पत्रों की मानसिकत

"इडपाची (इरूक+ आकी ,इरू+ पाती )प्रचलित टोटम पर किंवदंती"

गोंडियन गोत्र व्यवस्था में प्रत्येक गोत्र के साथ कोई ना कोई कुल चिन्ह पेड पौधे जानवर पक्षी आदि से जुडा होता है । इसी संबंध में आज इडपाची जोकि येर्वेन सगाओं (सात देव) शाखा में आते हैं इनसे जुडी कुछ बाते आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं । हो सकता है इस गोत्र से संबंधि अन्य क्षेत्रों में अलग तरीके से व्याख्या या संदर्भ हो सकते हें । परन्तु मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में इडपाची गोत्र से संबंधित उनके टोटम के संबंध  में यह किवदंती प्रचलित है । किसी समय की बात हे जब गोंडवाना के गणों को गुरू के (पहांदी पारी कुपार लिंगो का नाम नहीं बताया गया ।) के द्वारा पेन और टोटम का वितरण या नामित किया जा रहा था । कुछ समूह टोटम प्राप्त करने जा रहे थे, तो कुछ समूह अपनी पहचान पाकर लौट रहे थे । इडपाची समूह के संबंध में किवदंती है कि यह समूह जब अपना टोटम सेही (जंगली जानवर जिसके कांटेदार बाल होते हैं) तथ वृक्ष महुए का पत्ता का संदेश लेकर वापस आ रहे थे, तो रास्ते में रोमी मरा (सुस्ताने के लिये छायायदार पेड) के नीचे आराम करने लगे । इतने में क्या देखते हैं कि एक सेही जानवर ने महुए के पेड के नीचे अपने

"देश को हिन्दुस्तान कहना यानि हिन्दू राष्ट की कथित कल्पना को साकार करना ।"

1-छोटा हो बडा हो हिन्दु ,मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध ,पारसी हो या आदिवासी हो ! नेता हो या अभिनेता हो । स्त्री हो पुरूष हो लेखन में हो या भाषण में हो देखने सुनने में आता है कि जब सभी लोग यह जानते हुए कि इस देश का नाम हिन्दुस्तान नहीं तब अक्सर आपकी जुबान पर लेखन में सम्बोधन में देश को हिन्दुस्तान क्यों कहते हो । जिस तरह बिना मेहनत के मनुवादी व्यवस्था आपके मष्तिष्क को कब्जा करके मात्र "स्वाहा" कहने पर आपका हाथ आग में चावल घी जौ आदि को डाल देता हो । उसी तर्ज में बिना मेहनत किये मनुवादियों को हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान कह कर हिन्दू राष्ट का तोहफा थाली में परोसकर देने का काम कर रहे हो । कुछ नहीं तो कम से कम शब्दों पर तो नियंत्रण रखो । 2-"ध्वस्त हो जायेगी नई बैन्किग लेन देन व्यवस्था" "मोदी सरकार की चमड़े का सिक्का चलाने वाली, बैन्किग लेनदेन व्यवस्था का दूरगामी परिणाम जल्द ही सामने आने वाला है । जब लोग एटीएम से तीन बार से अधिक बार पैसे निकालने पर प्रतिमाह आपके खाते से कम से कम १५० रुपये की राशि बिना आपकी इच्छा से काट ली जाएगी । परन्तु भारतीय जनमानस को जिस दिन यह एहस

"५ वी अनुसूचि की ताकत को महसूस करना है तो अनुसूचित घोषित जिला और विकास खण्डों में परम्परागत रूढ़ि पन्चायतो का विधिवत गठन करना होगा "

पाचवी अनुसूचि की ताकत को महसूस करना है ,तो अनुसूचित घोषित जिला और विकास खण्डों में परम्परागत रूढ़ि पन्चायतो का विधिवत गठन कर गठन की सूचना जिला कलेक्टर को भेज कर उसकी पावती ले लो । इसके बाद अपनी सीमा क्षेत्र में स्वायत्त प्रशासन और नियन्त्रण क्षेत्र का बोर्ड लगा कर बिना अनुमति प्रवेश वर्जित कि बोर्ड लगा दो । यदि यह का कर लेते हो तो हमारी बडी  जीत सम्भव है । ऐसी विधिवत कार्यवाही करते हुए मन्डला मध्यप्रदेश मे कुछ रूढी पन्चायतो का गठन कर लिया गया है । जिसका नेत्रत्व माननीय तुलसी मरावी 7770913001 तथा इसी तरह की विधिवत पन्चायतो का गठन माननीय हरिसिह मरावी9165511750 जिला डिन्डौरी के माध्यम से आरम्भ की जा रही है ।जो भविश्य मे ५वी अनुसूचि मे आदिवासियो के शास्वत अधिकारो का मप्र में गवाह बनेगे । अत् पान्चवी अनुसूचि के प्रावधानों को लागू कराना है तो आपको शोसल मीडिया के माध्यम से वैचारिक जाग्रति लाते हुए धरातल पर भी व्यवहारिक होना होगा जैसे उपरोक्त वर्णित जिले में कार्य आरम्भ हुआ है । तब हमारा मिशन २०१८ का प्रस्तावित लक्ष्य पूरा होगा ।

"सत्ता मास्टर चाबी है तो, जागरूकता महा चाबी ।"

फर्जी जनजाति का जाति प्रमाण पत्र बनाकर बैतूल से सांसद बनी ज्योति धुर्वे का प्रमाण पत्र निरस्त होने के बावजूद सत्ता के एक आदेश ने आयुक्त आदिवासी विकास मप्र0 और प्रमुख सचिव आदिवासी मंत्रालय के निर्णय को कचरे के डिब्बे में डाल दिया ।, उपजेल अधीक्षक तिरूमाय वर्षा डोंगरे को निलंबित किया जा सकता हे, दंगे में शमिल बडे अपराधियों को दोषमुक्त कराया जा सकता है, संविधान के नियमों को ताक में रखकर किसी की भी जमीन को हथियाया जा सकता हे ।, उदयोगपतियों का अरबों के कर्जे को माफ किया जा सकता हे, योग्य को अयोग्य और अयोग्य को योग्य बनाया जा सकता है ।, इसे कहते हैं सत्ता मास्टर चाबी है, जिससे कुछ भी किया जा सकता है । लेकिन ध्यान रहे इससे भी बडी चाबी है जागरूकता की जिससे बडी बडी मजबूत सत्ताओं को ढहाया जा सकता है ।

"आदिवासियो मे मर्मिन्ग/विवाह में महत्वपूर्ण सहयोगी परम्परा"

जनजाति समुदाय समान्यत : विवाह का समय बैसाख महीने मे ही निर्धारित करता है । इसके अनेक कारणो मे महत्वपूर्ण कारण क्रषि आधारित जीवन चर्या है । उन्हारी/रवि की फसल काटकर इसकी गहाई आदि से ज्यो ज्यो फुर्सत होते गये वैसे ही स्वयम् तिथियो का निर्धारण कर लिया जाता है । पहला बिन्दु क्रषि कार्य से फुर्सत । दूसरी बात पर ध्यान दे तो खुले समय मे गान्व मे पर्याप्त जगह की पूर्ति घरो से लगी बाडिया कर देती है । सरल , सहज और सामन्जस्यप ूर्ण भावना वाला यह समुदाय गांव में प्रत्येक वैवाहिक आयोजन वाले परिवार को भरपूर सहयोग देता है । आज भी निमन्तरित रिश्तेदार, नातेदार वैवाहिक आयोजन में जाने के लिये अपने साथ कुछ ना कुछ खाद्यान्न या दोना,पत्तल आदि जो वैवाहिक आयोजन में लगता है, लेकर सहयोग देने की परम्परा भी है । सामूहिक समस्या सामुदायिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए कभी कभी किन्हीं गांवो में यह भी देखने में आता है कि बारातियों के स्वागत सत्कार में घर वालों की तरफ से कमी ना हो जाये इसलिये हर तरह के कार्य में भूमिका निभाते हुए मुख्य विवाह बारात के दिन सामूहिक बारात भोज मे शामिल ना होकर सामूहिक ग्राम भोज विवाह सम

बस्तर समीक्षा !

part-1 देश के अनेक हिस्सों जिसमें कभी कोई इलाका,कभी कोई शहर या कस्बा होता है। सम्प्रदायिक तनाव या अन्य किन्हीं कारणों से सुरक्षा बल या अन्य अर्ध सैनिक बल तैनात किये जाते हैं। ऐसे मौकों पर यदि तैनाती राजनीतिक प्रभाव/प्रयोजन के कारण हुई हो तब सुरक्षा बल को उस स्थान पर अधिक समय तक रख दिया जाता है । ऐसी परिस्थिति में सुरक्षा बल के जवान लम्बी अवधि तक तैनाती और उस स्थान और सामाजिक पर्यावरण/परिस्थितियों का अध्ययन नहीं होने के कारण परेशान हो जाते हैं । किसी तरह या तो वहाँ  से जाना चाहते हैं या अपनी इच्छानुसार वहाँ के निवासियों से व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं जोकि सम्भव नहीं होता । परिणामस्वरूप कुछ सैनिक अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए मनमानी करने लगते हैं । जिसके कारण स्थानीय नागरिक उनकी लम्बे समय तक तैनाती का विरोध करते हैं । परन्तु यदि तैनाती कुटिल राजनीति से प्रभावित है तब परिस्थितिया लगातार असमान्य होती जाती हैं । इस तरह के अनेक उदाहरण देश के विभिन्न हिस्सों में घटित होती हैं । जहां पर स्थानीय नागरिकों द्वारा सुरक्षा बल को हटाने की मांग करते, उसके विरुद्ध आंदोलन करते हैं। उत्तर प्रदेश,

"आदिवासी, संविधान और प्रथक धर्म कोड"

संविधान निर्माण के समय बहस में केप्टन जयपाल सिंह मुण्डा जी के आदिवासी शब्द को क्यों नहीं माना गया । हमने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि इस शब्द को नकारने वाले कौन लोग थे और क्यों इसे स्थापित करने से मना किया गया । निश्चित ही यह शब्द भविष्य के लिये उन लोगों के लिये खतरे की घंटी प्रतीत हो रहा होगा जो इसका विरोध कर रहे थे  कि भविष्य में यह समुदाय इस नाम के इर्द गिर्द एकत्र हो जाता हे तो देश की धरती का असली मालिक होने का प्रमाण यह संविधान स्वयं दे सकता था । इनका एक धर्म हो सकता है । दुनिया के आदिवासियों की तरह इनकी अपनी पहचान हो सकती है । तब सूचि में अन्य लोगों को शामिल करना कितना कठिन होगा । यही सब आशंकाओं के चलते आदिवासी शब्द को संविधान में शामिल नहीं किया गया । आज की तारीख में जब इतिहास को खंगाला जा रहा हे । राष्टीय अंर्ताष्टीय बहस शुरू हुई है तब लोगों को लग रहा हे कि हम ही असली वासिंदे हैं । यदि यह काम पहले हो गया होता तो सारे देश का मालिक एकजुट रहता । उसे अपनी पहचान बताने की आवश्यकता नहीं होती । दुर्भाग्य से अनुसूचि बन जाने के कारण इसमें आज भी लगातार जोडने घटाने का काम चल रहा है ।