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Showing posts from September, 2017

"१९३१ और १९४१ तक भारत की जनजनगणना सूचि में गोन्ड जाति का धर्म "ट्राईब" लिखा गया है।"

"१९३१ और १९४१ तक भारत की जनजनगणना सूचि में गोन्ड जाति का धर्म "ट्राईब" लिखा गया है।" गोन्ड आदिवासी के साथ साथ अन्य आदिवासीयो की जनगणना में भी "उस जाति के नाम के साथ "धर्म" के कालम में "ट्राईब" लिखा गया है। १९४२ की जनगणना के समय गोन्ड जाति की जनसन्ख्या विभिन्न प्रदेशो में निम्नलिखित अन्कित की गई थी। जाति- ( गोन्ड)धर्म - (ट्राईब) मद्रास- ४९५,बम्बई -१०३०,सन्युक्त प्रदेश -१२०६९१,बिहार -२६९३१,सीपी&बरार-२०८८१७९,उड़ीसा -१३४८८४,हैदराबाद -१४२०२६,मध्यभारत-९२७५५,छत्तीसगढ़ -४२०२८३,बन्ग ाल प्रान्त -१२८६६,उड़ीसा प्रान्त -१७७५००,यूपी प्रान्त -३०४०४ कुल -३२२१०४४ गोन्ड समुदाय का धर्म ट्राईब के रूप में अन्कित है। इसी तरह अन्य आदिवासी की जाति के साथ धर्म के कालम में"ट्राईब" अन्कित है जो १९५१ की जनगणना में जाति का कालम ज्यों का त्यों रखा गया लेकिन धर्म के कालम से "ट्राईब" हटा दिया गया और हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,जैन, बौद्ध,पारसी की तरह "अन्य" का कालम जोड़ दिया गया । जबकि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध,जैन, पारसी , ट्राईब,

"अन्य समुदाय की तरह आदिवासी का समुदाय और धर्म एक है अलग अलग नहीं !"

"अन्य समुदाय की तरह आदिवासी का समुदाय और धर्म एक है अलग अलग नहीं !" हिन्दू धर्म भी है और समुदाय भी है ।  मुस्लिम एक मजहब भी है समूदाय भी है ।  ईसाई एक रिलीजन है और समुदय भी है  सिख एक पंथ है और समुदाय भी है ! बौद्ध भी एक धम्म है और समुदाय भी है । इसी तरह आदिवासी एक पुनेम भी है समुदाय भी है । सबकी अपनी अपनी रूढी और परंपरायें और समुदायिक संस्कार हैं सबके अपने अपने आस्था स्थल और इष्ट हैं तब आदिवासी अन्य धर्म पंथ,मजहब या रिलीजन में धर्मांतरित होकर आनी परंपरायें ,समुदायिक संस्कार खत्म कर दे तब वह कैसे आदिवासी हो सकता है । यदि वह आदिवासी है तो आदिवासी समुदाय की रूढी परंपरायें रीति रिवाज और समुदायिक संस्कार का पालन करे अन्यथा वह अपने आप को आदिवासी कहने का आदिवासी अधिकारी नहीं । जनजाति की सूचि में रहे कोई आपत्ति नहीं, जिस दिन शासन प्रशासन को लगेगा कि वह आदिवासी समुदाय की रूढी परंपरायें रीति रिवाज और समुदायिक संस्कार से पूरी तरह अलग हो चुका है उस दिन जनजाति की सूचि से हटाने और जोडने की प्रक्रिया आरंभ हो जायेगी । भारत की जनगणना सन 1871से 1941 तक यह आदिवासी एक समुदाय और धर्म के रूप

"आदिवासी के ज्यूडिसियल और नान ज्यूडिसियल की कथा"

"आदिवासी के ज्यूडिसियल और नान ज्यूडिसियल की कथा" 5 वीं अनुसूचि का छोटा बच्चा पेसा कानून भी आदिवासियों की रूढी परंपरा, रूढीजन्य विधि और सामाजिक , धार्मिक प्रथाओं के साथ परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के सम्बंध में भी ग्राम सभा को शक्ति देता है । अर्थात आदिवासियों के धर्म के अस्तित्व को स्वीकारता है तब आदिवासी अपने अधिकारों के साथ साथ अपने धर्म की मजबूती के लिये कार्य क्यों नहीं करना चाहिये । वह क्यों गुमराह हो रहा है क्या हम अपने गोंडी, सरना ,आदि धर्म इत्यादि धर्म को मानेंगे स्थापि त करते हैं तो क्या आदिवासी ज्यूडीसियल हो जायेगे ? कहां का तर्क है । जब आदिवासी हिंदू, ईसाई या अन्य धर्म में चला गया है तब भी क्या वो नान ज्यूडिसियल बना रहेगा । और यदि आदिवासी अपने मूल धर्म को मजबूत करेगा धर्म कोड लेगा तो ज्यूडिसियल हो जायेगा उसको संवैधानिक लाभ का खतरा हो जायेगा । ये बेतुकी बातों से सावधान रहना होगा । अपने हक अधिकारों की लडाई लगातार लडें लेकिन अपनी पहचान को भी बनाये रखना आवश्यक है ।-gsmarkam

"राजस्व और वन विभाग की घोषित सीमा से ऊन्चा दर्जा है ग्राम की घोषित पुरातन पारम्परिक सीमा का "

(1) "राजस्व और वन विभाग की घोषित सीमा से ऊन्चा दर्जा है ग्राम की घोषित पुरातन पारम्परिक सीमा का " हमारे देश में सामान्यतः दो विभागों, वन एवं राजस्व विभाग को भूमि का रिकार्ड सन्धारण की जिम्मेदारी दी गई है जिनके पास शासकीय अशासकीय निजी, उपयोगी अनुपयोगी भूमि का रकबा , सीमा का नक्शा होता है । वन और राजस्व विभाग हमारे ग्राम की सीमा का निर्धारण करते हैं । इस निर्धारण ने ग्राम की परम्परागत सीमा मेढक या सीवान को नजरन्दाज कर दिया जबकि अन्ग्रेजी सरकार भी इस पारम्परिक सीमा का सम्मान कर ते हुए अपना रिकार्ड सन्धारित करती थी । कथित आजादी के बाद परम्परागत सीमा की अवहेलना के कारण भूमि ग्राम की माल्कियत से निकलकर वन एव राजस्व के कब्जे मे चली गई । ग्राम ठगा सा रह गया । परन्तु देश मे पहला मौका वर्ष २००६ मे "वनाधिकार कानून" के रूप मे आया जिसमे ग्राम की परम्परागत सीमा को कानूनी मान्यता दे दी । अब परम्परागत सीमा राजस्व और वन सीमा से मुक्त होकर आपकी परम्परागत ग्राम सभा के निर्णय को सर्वोच्च प्राथमिकता दे दी गई है। अफ आदिवासी इसे कैसे हासिल करे यह उसकी जागरूकता और ज्ञान पर निर्भर है। इस

"५ वी अनुसूचि और पारम्परिक ग्राम सभा"

५वी अनुसूचि की पारम्परिक ग्राम सभा को समझने के लिए"नार/ग्राम" व्यवस्था को समझना होगा । कि पारम्परिक ग्राम की स्थापना कैसे हुई ? उसका प्रथम स्थापनाकर्ता कौन है ? सन्विधान मे इसी पारम्परिक ग्राम की राया या कुटुम्ब की बैठक को पारम्परिक ग्राम सभा कहा गया है । आदिवासी कबीले के किसी गोत्र का मुखिया अपना परिवार बड़ा हो जाने पर क्रषि योग्य भूमि की तलाश करता हुआ किसी सुलभ स्थान में अपने परिवार के लिए आवासीय व्यवस्था की स्थापना करता है । वही ग्राम  का स्थापनकर्ता है । । जिसे मुखिया , मुकद्दम या पटैल कहा गया जो अपने ग्राम की सम्पूर्ण व्यवस्था का सन्चालक होता है । ग्राम में दैवीय प्रकोप, जडी बूटी के जानकार और अन्य बाह्य सम्भावित प्रकोप से रक्षा के नाम पर बैगा/भुमका/पुजारी को नियुक्त किया जाता है । इसी तरह ग्राम में सूचना और चौकीदारी के लिये कोटवार तथा अन्य सहयोगी दीवान आदि की नियुक्ति की जाती है । यह व्यवस्था ग्राम प्रमुख के नेतृत्व में स्थायी समिति के रूप में परम्परागत सदैव विद्मान रहती है। ग्राम का मोकडदम/मुखिया या कालांतर में उसके परिवार का प्रमुख सदस्य जिसे ग्राम में सदैव मुखिया

"आदिवासी हिन्दू,ईसाई मुस्लिम जैन बौद्ध नहीं"

(1) "आदिवासी हिन्दू,ईसाई मुस्लिम जैन बौद्ध नहीं"  देश का सन्विधान कहता है आदिवासी हिन्दू नहीं तब अन्य धर्मी जैसे ईसाई मुस्लिम जैन बौद्ध कैसे हो सकता है। जब आदिवासी हिन्दू नहीं तो अन्य धर्मी भी नहीं। उसका अपना प्रथक धर्म,सन्सक्रति,रूढी , परम्परा और पहचान है । इसलिये यदि आदिवासी अन्य धर्मों में चला गया है वह आदिवासी नहीं होता। न्यायालय में उसे उस धर्म के पर्सनल ला के अन्तर्गत निर्णय देना पडता है। धर्मान्तरित आदिवासी लोग समुदाय के साथ साथ सन्विधान को भी धोखा देकर अल्पसंख्यक और ज नजाति मन्त्रालय से दोहरा लाभ प्राप्त कर रहे हैं । और अन्य आदिवासी समुदायों को निसर्ग पूजक/धर्म पूर्वी बताकर धर्म विहीन समुदाय के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। ताकि धर्म विहीन समुदाय का धर्मांतरण किया जा सके। सन्विधान के अनुसार आदिवासी हिन्दू नहीं है, तो ईसाई,सिख,मुस्लिम जैन बौद्ध भी नहीं है। उसका अपना धर्म है, जिसे सरना,गोन्डी पुनेम,आदि या प्रकृति धर्म कहा जाता है। ऐसे तत्वों पर आदिवासी समुदाय की नजर हो जोकि सरना ,गोन्डी ,प्रक्रति या आदिधर्म कोड जैसे प्रथक धर्म कोड की मान्ग का विरोध क

"दशहरा का पर्व आदिवासियों के लिये शस्त्र और शक्ति पूजा का पर्व है ।"

"दशहरा का पर्व आदिवासियों के लिये शस्त्र और शक्ति पूजा का पर्व है ।" इस पर्व के लगातार नौ दिनो तक जिस तरह का हुडदंग देखने को मिलता है इससे ज्ञात होता है कि पर्व की मूल भावना को दस दिनो के हुडदंग में दबा देने का काम होता है । अंतत निष्कर्ष के रूप में रावन बनाम राम राक्षस विरूद्ध देवता अनार्य बनाम आर्य संस्कृति के जय और पराजय का संदेश उभारा जाता है । सांस्कृतिक हमले का यह खेल पिछले कई दशकों से चला आ रहा है 1947 के बाद इस खेल में लगातार बढोत्तरी हुई है । मूलनिवासी साहित्य के ले खकों, साहित्यकारों ने समय समय पर इसका मूल्यांकन करते हुए एक पक्ष को समझाने का प्रयास किया है । काफी अन्तराल के बाद मूलनिवासी समुदाय इस हुडदंग के पीछे छिपे रहस्य को समझने का प्रयास किया है । परिणामस्वरूप मूलनिवासी समुदाय आज अपनी संस्कृति और अपने नायकों के साथ खडा होता दिखाई देने लगा है । एक तरफ महिसासुर की पूजा कहीं रावेन का सम्मान तो दूसरी ओर दुर्गा और राम की जयकार । दशहरे का हुडदंग भले ही इस पर्व की मूल अवधारणा को विस्म्रित करने का प्रयास करे लेकिन मूलनिवासियों के नायको को अब विस्म्रित किया जाना संभव नह

आदिवासी की भाषा,धर्म,संस्कृति,रूढीजन्य परंपरा,और संस्कारों पर टिका हैं

(1) "आदिवासी की भाषा,धर्म,संस्कृति,रूढीजन्य परंपरा,और संस्कारों पर टिका हैं उसका अस्तित्व और शासकीय सुविधायें !" ईसाई और हिन्दू आदिवासी,आदिवासियों के मूल धर्म कोया पुनेम, सरना आदिम, प्रकृति या देश में अन्य चिन्हित 123 प्रकार के आदिवासियों के धर्म या पंथ का सीधा विरोध तो नहीं कर सकता कारण कि उसे आदिवासी जनजाति के नाम पर सुविधायें प्राप्त करना है ,परन्तु आदिवासी का कोई धर्म नहीं होता है ! यह बताकर आदिवासी को उसके अपने मार्ग से विचलित करने या धर्म के प्रति उदासीनता पैदा कर सकता है त ाकि उस खालीपन को अपने हिन्दुत्व या ईसाइयत से भर सके । आदिवासी धर्मकोड की मांग पर धर्मामांतरित आदिवासियों को संवैधानिक खतरा पैदा हो गया है धर्मांतरण के कारण वे अपने धर्म,संस्कृति,संस्कारों,रूढीजन्य परंपराओं से दूर हो चुके हैं । इसलिये आदिवासी समुदाय अपने समग्र विकास के लिये हर अच्छे रास्ते को अपनाये पर अपने धर्म,संस्कृति,संस्कारों,रूढीजन्य परंपराओं का अनुपालन कटटरता के साथ करे अन्यथा धर्मांतरण आपके आदिवासियत को समूल नष्ट कर देगा,तब ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी । यही मंशा है सत्ताधारी सूमूह की !-gsm

" आदिवासी और गैर आदिवासी इन्सान"

" आदिवासी और गैर आदिवासी इन्सान" दुनिया की अनेक कौमे अपने आप को आदिवासी बताने में या भारतीय परिवेश में आदिवासी साबित करने का भरसक प्रयास करती हैं। इनका मानना है कि चलो मान लें कि आप भारत के आदिवासी हैं , पर हम भी तो कहीं ना कहीं किसी ना किसी देश के आदिवासी कौम या नश्ल के इन्सान हैं। हमारी नस्ल कोई आसमान में तो पैदा नहीं हो गई है। यह तर्क पूर्णतया सत्य है। परन्तु ऐसे लोगों के तर्क का सीधा जवाब यह होना चाहिए कि भाई आप हम सभी आदिवासी है तब केवल हमे ही आदिवासी क्यो कहा जा रहा है  आपको क्यो नही ?  दुनिया के सारे लोग तो आदिवासी है, तब हम ही इस शब्द बोझ को क्यो ढोये । और तो और दुनिया में जितने भी देश है उनमे से उन देशो के कुछ लोगो को ही इस तरह का विशेष नाम दिया गया है आखिर क्यो ? स्पष्ट है दुनिया मे सभी इन्सानी नस्ल का उद्भव एक तरीके से ही हुआ है । जन्म स्थल के भूगोल मे अन्तर हो सकता है पर उद्भव,उत्पत्ति प्रक्रिया में कोई भेद नहीं ! तब आम जनसन्ख्या के बीच दुनिया के देशों ने कुछ समूह या समुदाय को ही आदिवासी क्यों कहा । चिन्तन का विषय है । इस पर विचार करने से एक तथ्य उभरकर सामने आ

"स्वशासन और स्वायत्तता पर हमला"

"स्वशासन और स्वायत्तता पर हमला" काश्मीर की धारा ३७० की स्वायत्तता का अधिकार और आदिवासीयो के लिये सन्विधान में उल्लिखित ५वी और ६वी अनुसूची के तहत कुछ समान अधिकार प्राप्त हैं। सिर्फ एक अन्तर है कश्मीर के लिये विधानसभा की चुनी गई सरकार अपने राज्य के हित में केन्द्र सरकार के कानून को माने या ना माने।पर ५वी और ६वी अनुसूची घोषित क्षेत्रों में कुछ इस तरह की स्वायत्तता है कि इन क्षेत्रों के आदिवासीयो की बिना सहमति के सन्विधान का कोई कानून इन क्षेत्रों में प्रभावी नहीं होगा। यह स्वायत ता, आपके इस देश का मालिक होने की तरफ इशारा करता है। इसलिये सत्ताधारियो जिसमें कान्ग्रेस हो या भाजपा इस देश के मालिकों का पूरी तरह से सफाया करना चाहता है । अन्यथा इनमें यदि"हम इस देश के मालिक हैं" इस बात का एहसास हो जायेगा तब ये परदेशीयो को उस नजर से देखने लगेंगे तब परदेशी मूलनिवासीयो की नजरों से गिर जाने वाले हैं। और आपको पता है जब कोई किसी की नजरों से गिर जाता है, तब लाख कोशिश के बाद भी उसके प्रति पुनः सम्मान स्थापित होना मुश्किल हो जाता है। तत्कालीन शासक समुदाय पर वर्तमान शासकों द्वार

"धर्म और पुनेम" "आदिवासीयो के प्रथक धर्म कोड पर विचार"

"धर्म और पुनेम" बहुत से फेसबुक मित्र आदिवासी हितों की बात करते हैं पर आदिवासीयो के मूल पुनेम (धर्म) को आम धर्म और पन्थो की तराजू में रखकर उसका मूल्यांकन करते हैं जो उनकी प्रकृति वाद और आदिवासियत की कम जानकारी द्योतक है। एैसे लोगों के विचारों का मूल्यांकन करने से समझ में आता है कि ये लोग अभी भी मनुवादी "ब्राह्मण धर्म" से मुक्त नहीं हो पाये हैं ।हम हिन्दू नहीं हमारा रास्ता अलग हैं एैसा कहने में किसी भय से या अन्य कारणों से घबराहट है । मेरा मानना है कि जब आदिवासी हिन्दू नहीं  तब क्या है ? क्या उसकी अपनी जीवन जीने की पद्धति का रास्ता उनके पूर्वजो ने नही बनाया था । वह रास्ता क्या था और क्या है इसकी समझ नही होना चाहिये क्या ? आदिवासी को धर्म विहीन बताकर कही हम उनमें धर्मांतरण की मानसिकता तो पैदा नहीं कर रहे ? इस बात का ख्याल रखना होगा अन्यथा आदिवासी के रीति रिवाज, परम्पराये, रूढिगत ढान्चा यदि तहस नहस हुआ तो आदिवासियत की पहचान समाप्त हो जायेगी ! जब पुन: आदिवासी होने के मापदन्ड के आधार पर आपका सर्वे होगा तब तक आप आदिवासियत के मापदन्ड पर खरा नही उतर पायेगे । अर

"8 सितंबर साक्षरता दिवस पर सरकार का संदेश ।"

"8 सितंबर साक्षरता दिवस पर सरकार का संदेश ।" हमारा देश तभी विकसित राष्ट्र बन पायेगा, जब तक देश का प्रत्येक व्यक्ति साक्षर नहीं हो जाता, हम हम शत प्रतिशत साक्षरता अभियान में लगे हैं । किसी तरह कोटा पूरा हो जये तो, डिजिटल इन्डिया तो हमने बना दिया तब हम विकसित राष्ट्र का मापदण्ड पूरा करके विकसित राष्ट्र की ज्ञेणी में आ जायेंगे । हम अभी भी नहीं चाहते कि हमारे देश का नागरिक शिक्षित बने, जब साक्षरता से ही विकसित राष्ट्र बन सकते हैं, तो शिक्षित करने की क्या आवश्यकता । हम तो एैसी राष्ट्र की नीव डाल रहे हैं कि, हवन पूजन से ही वर्षा करा देंगे । मूर्ति को दूध पिला देंगे ,जो चाहे वैसी कृपा बरसा देंगे । शिक्षित एैसी बातों पर सवाल करेगा, इसलिये एैसे लोगों की हत्या करा दी जायेगी । इसलिये साक्षर भारत हमारा लक्ष्य है शिक्षित भारत नहीं ? इसलिये आओ सब मिलकर सरकार के इस विकसित राष्ट्र की कल्पना को साकार करें । -gsmarkam

गोन्डवाना आन्दोलन के नीव के पत्थरों ने हीरा सिंह मरकाम को क्यों नकार दिया।"(एक समीक्षा)

गोन्डवाना आन्दोलन के नीव के पत्थरों ने हीरा सिंह मरकाम को क्यों नकार दिया।"(एक समीक्षा) मेरे इस समीक्षा से बहुतों के दिल को ठेस लग सकती है और बहतो को उनके मन की बात हुई ऐसा समझकर दिल को तसल्ली मिलेगी! परन्तु मैं किसी को तसल्ली या ठेस पहुंचाने की दृष्टि से यह समीक्षा नहीं कर रहा हूँ बल्कि साहित्य के ऐसे स्तर पर समीक्षा करने की कोशिश कर रहा हूँ जहाँ पक्ष विपक्ष का कोई मायने ना हो। मध्यमार्गी सोच ! देश की आजादी के पूर्व का गोन्डवाना आन्दोलन का इतिहास कुछ हद तक लिखित रूप में व र्णित है परन्तु आजादी के बाद गोन्डवाना आन्दोलन या तो व्यवस्थित तरीके से सहेजा नहीं गया या समुदाय को सामाजिक, राजनीतिक तरीके से व्यक्तिगत (एकल) सोच पर चलाने के कारण एकपक्षीय निर्णय का शिकार होता चला गया । आधुनिक गोन्डवाना आन्दोलन अभी "बाबागिरी" की चपेट में है । जैसे किसी बाबा को लगा कि मुझे कैसे महान बनना है तब ऐसे बाबा किसी के बने बनाए फार्मूले पर अपना रन्ग चढाकर कुछ फालोवर्स पैदा करते हें जो दिन रात बाबा का गुणगान करते हुए उनकी सोच को अन्यों से अलग बताकर उसे महिमामन्डित करते हैं । धीरे धीरे बाबा की ख

"आदिवासी एकता का आधार"

"आदिवासी एकता का आधार" कुछ लोग बड़ी आसानी से कह देते हैं कि आदिवासी एकता में धर्म आडे आता है, मगर मेरा मानना है। यदि हम आदिवासी हैं तो हमारा धर्म भी एक होना चाहिए। तभी हम एक आराधना एक आस्था स्थल एक मार्ग एक इष्ट एक रीति रिवाज और एक पर्सनल ला से सन्चालित होकर एक सोच,एक विचार,एक व्यवहार का सन्युक्त प्रभाव डाल सकेंगे। यही आदिवासी एकता की महत्वपूर्ण कड़ी है । अन्यथा अलग रीतिरिवाज, अलग अलग इष्ट, अलग अलग अराधना, अलग अलग अराधना स्थल, अलग अलग पर्सनल ला, तब कैसी आदिवासी एकता ? आदि वासी एकता के लिये उपरोक्त बिन्दुओ पर गहन विचार करना होगा । अपनी व्यक्तिगत आकान्क्षाओ को किनारे रखकर कुछ त्याग और बलिदान करना होगा । अन्यथा धर्मों, मजहबों, रिलीजन और पन्थो के ठेकेदार आदिवासीयो को सदैव अलग करके ही रखने वाले है । रोजी रोटी जल जन्गल जमीन और आदिवासी अस्मिता की लडाई एक धर्म के झन्डे तले ज्यादा मजबूती के साथ लडी जा सकती है । हिन्दू,मुस्लिम,सिख,इसाई एकता का आधार धर्म है , इसी तरह आदिवासी एकता का आधार "प्रकृति पुनेम या आदि धर्म" हो सकता है । -Gsmarkam

प्राण वायु आक्सीजन पैदा करने का ठेका क्या भारत ने ही लिया है ।

"ये कैसा समझौता" प्राण वायु आक्सीजन पैदा करने का ठेका क्या भारत ने ही लिया है । विश्व में औदयोगिक विकास के नाम पर प्रदूषण लगातार बढ रहा है । ओजोन परत में छेद हो चुके हैं जिसकी तीखी गर्मी से सब झुलस रहे हैं । तब विश्व के सभी देशों की जिम्मेदारी बनती है कि अपने अपने देशों में पेड उगायें । पर अमरीका जैसा देश कहता है कि हम अपना कार्य जारी रखेगे । हमसे पैसे ले जाओ और अपनी जमीन में पेड उगाकर पर्यावरण में प्राणवायु का संचार करो पैसे की चिंता मत करो जितना लगे हमसे लो । अब भारतीय व्यवस्था के संचालक इस काम में जुट गये हैं । सारी जमीन में वृक्षारोपड करने पर तुले हैं राजस्व तक की जमीन जो किसानी के लिये है, उस पर भी पेड लगाकर कहीं कहीं तो नागरिकों के खाते की भूमि को वन भूमि बनाकर पेड उगा रहे हैं । हमारे देश के लोग पेड लगाने से ज्यादा आय प्राप्ति के चक्कर में अपनी जमीनों का कृषि रकबा कम कर रहे हैं । क्या इन्हें पता है कि भविष्य में कृषि रकबा कम होने से खदयान की कमी होगी तब हमें अमरीका ,जापान आदि देशों से खादयान के लिये अब से ज्यादा अश्रित होना पडेगा । हमारे लगाये पेडों को काटने के लिय

देश में व्यक्तिवाद अर्थात तानाशाही राज

"सावधान ! मोदी और उसकी टीम देश में व्यक्तिवाद अर्थात तानाशाही राज की स्थापना करना चाहती है ।" यह बात भले ही आम समझ के बाहर हो पर जिस तरह की गतिविधिया मोदी सरकार की देखरेख मे चल रही है ऐसी गतिविधियां हिटलर की गतिविधियो से मेल खाती हैं । मीडिया पर शिकन्जा कसना, विरोधी दलों के नेताओं पर कथित जान्च बैठाना, बिना मन्त्रीमन्डल की सहमति से व्यक्तिवादी एकतरफा निर्णय लेना, अपने अक्षम और चहेते लोगों पर क्रपा बरसाना ,जन भावनाओं को दरकिनार करके उन्हें राष्ट्रवाद के नाम पर छलावा करना ताना शाही शासन का प्रतीक है । आखिर क्यों न हो मोदी ने पहली बार भारत की ओर से जर्मनी की यात्रा की है , सन्घ की विचारधारा के समर्थक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी अपने शासन काल में इतनी नहीं दिखाई थी । कारण कि वे एक शुद्ध भारतीय मानसिकता के पक्षधर और कवि ह्रदय रहे हैं । कवि एक पक्ष में माननीय मूल्यों की समझ भी रखता है वह मशीन बनकर नहीं रह सकता । परन्तु मोदी , सन्घ की विचारधारा के समर्थक होने के साथ साथ सन्घ का अन्ध भक्त बनकर मशीन बन चुका है जिसे मानवीय, अमानवीयता के मूल्यो से कोई लेना देना नहीं

पांचवी अनुसूचि / पेसा कानून

                                                              पांचवी अनुसूचि देश में अनुसूचित जनजाति क्षेत्र घोशित करने या किसी क्षेत्र से इस कानून को हटाने का अधिकार राश्टपति को है । या किसी राज्य के विधान मंडल के विवेक पर अधिसूचित किया जा सकता है ।  देष के 10 राज्य पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत घोशित राज्य हैं । जिनमें उन राज्यों के कुछ जिले तथा कुछ विकासखण्डों को संविधान में अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है । मध्यप्रदेश में 4 जिला एवं 89 विकास खण्ड क्षेत्र भारतीय संविधान में जनजातियों के लिये पूर्णतः अधिसूचित किये गये हैं ।                                                                  पेसा कानून                                                                      अतः                                           (पंचायती राज कानून में अनुसूचित जनजाति विस्तार अधिनियम 1996) कानून,पंचायती राज कानून के भाग 9 पर किया गया अनुसूचित घोषित क्षेत्रों के जनजातीय हित में पेसा कानून की धारा 4 की शर्तों के आधार पर विस्तार है ।                                                

"अर्थ केंद्रित संघर्ष से संस्कृति केंद्रित संघर्ष की ओर बढता हमारा देश ।"

"अर्थ केंद्रित संघर्ष से संस्कृति केंद्रित संघर्ष की ओर बढता हमारा देश ।"  1947 के बाद हमारे देश की व्यवस्था में अर्थ केंद्रित संघर्ष रहा जिसके कारण चालाक लोग लगातार पूंजी को पकडने में लग गये जिसके कारण देश में एक बडा पूंजिपति वर्ग खडा हुआ जिसने कारखाने उदयोग आदि लगाने के का वस्ता देकर सरकारी खजाने से कर्ज के नाम पर करोडों रूपये बैंकों से लिये खुशी से देश की भोली भाली जनता ने उनके कर्जे पर सहमति दी । आरंभ के उदयोगपतियों ने आज तक उस कर्ज को वापस नहीं किया बल्कि लगातार और कर्ज  लेते रहे और आज भी बैंकों को चूना लगा रहे हैं । देश की आम जनता आजादी के रंग मे डूबी थी सत्ताधारी अपनी गोटियां फिट करने में लगे थे । चप्पे चप्पे पर नेहरू और उसकी धनलोलुप कंपनी ने शासन प्रशासन और व्यापार उदयोग पर कब्जा जमा लिया आम जनता का विकास के नाम पर लगातार छलावा करते हुए लूटी गई पूंजी को स्विस बैंकों में पहुचाने लगे । समय आगे बढता सहा बीच में नये नये पूंजीपति बनते गये इन सबका लक्ष्य अधिक से अधिक पूंजी को समेटो । सारी व्यवस्था पूंजी पर केंद्रित हो गई जो लम्बे समय तक जारी रहा । मुटठी भर पूंजीवादी ताकतों

तानाशाही दौर और भारतीय समाज

मोदी और अमितशाह की मनमानी का राज क्रिया करके प्रतिक्रिया का इंतजार करती मोदी की फासीवादी टीम । मनमानी करो किसी की परवाह मत करो !  भारतीय समाज के सब्र का इम्तिहान लेते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढो । समय और परिस्थिति अनुकूल है लोकतंत्र का जितनी जल्दी गला घोंटा जा सकता है उतना ही अच्छा है अन्यथा समय का सदुपयोग नहीं हुआ तो भारतीय समाज को हमारी गतिविधियों को समझने का अवसर मिल जायेगा  तब लक्ष्य हासिल करना आसान नहीं होगा ।  फासीवाद का समर्थक तानाशाह सबसे पहले अपने इर्द गिर्द मौजूद लोगों की ताकत को कमजोर करता है उन्हें पंगु बनाकर सदैव भयांक्रित करता रहता है ताकि समर्थक उसके विरूद्ध कभी सिर उठा ना सके । यह प्रकिया उपर से नीचे की ओर चलती है । ताकि उपर की दहशत आम नागरिक में भी झलकने लगे । यही होता है तानाशाही व्यवस्था की स्थापना का प्रथम चरण । भारतीय समाज अभी इसी दौर से गुजर रहा है । (एक विश्लेषण)-gsmarkam

" संविधान और लोकतंत्र की पाठशाला"

(भारतीय संविधान केन्द्रीयकरण का संविधान है ।) :-संविधान के माध्यम से समाज को लोकतंत्र सिखाने के अवलोक में लिखा गया है । चूंकि डा0 अम्बेडकर को संविधान लिखने का पर्याप्त समय और स्वतंत्रता दी गई थी जिसके कारण उन्होने दलित, शोषितो, पिछडे लोगों के प्रति जमीदारों, दबंगों ,शोषकों के अमानवीय क्रियाकलापों को देखते हुए दिमागी वंचना को संविधान में उतार दिया ताकि एैसे अमानवीय क्रियाकलाप पर अंकुश लगाया जा सके ।  यही कारण है कि सारे कानून दण्ड पर आधा रित हैं । जोकि सुधार के उददेष्य से स्थापित किये गये हैं । इसका सीधा अर्थ समाज का संविधान के माध्यम से केन्द्रीयकरण करने का प्रयास है ताकि देश में लोकतंत्र व्यवस्था कायम करने के लिये समाज को समता स्वतंत्रता बंधुत्व एवं न्याय का मायना सिखाया जाय । देश में सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में "स्वस्थ्य लोकतंत्र" पहले से ही विद्धमान रहा है । जिन क्षेत्रों और समुदायों में तत्कालीन समय में भी लोकतंत्र की परंपरा कायम थी एैसे क्षेत्रों और समुदायों की पहचान करके एैसे क्षेत्रों को 5वीं और 6वीं अनुसूचि का कानून बनाकर "लोकतंत्र सिखाने का स्कूल" के रूप म

"पांचवी अनुसूचि बनाम पेसा कानून पर सावधानी ।"

पांचवी अनुसूचि का कानून जनजातियों को स्वशासन देता है । इसलिये पांचवी अनुसूचि के तहत किया जा रहा आदिवासियों का देशव्यापी आन्दोलन बडी गंभीरता और पूरी जानकारी के साथ चलाया जाय । कार्यकताओं और संगठनों के लगातार जागरण प्रयास से आम आदिवासी इसे अपना हितकारी कानून मानने लगा है । अब कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी बड जाती है सारे देश में एक सोच एक विचार और एक व्यवहार को अपनाने का प्रयास करें । पांचवी अनुसूचि के संदर्भ में इसका छोटा स्वरूप पेसा  कानून के बीच व्यवहारिक अभ्यास करके आदिवासियों को अपने हक और अधिकार हासिल करने का रास्ता बना सकते हैं । ध्यान रहे पांचवी अनुसूचि का कानून 10 राज्यों में लागू है जिसमें उस राज्य का हर आदिवासी उस दायरे में आता है । इन राज्यों में केवल कुछ जिलों और विकासखण्डों को विशेष रूप से अधिसूचित किया गया है जहां थोडी बहुत स्वशासन की भलक मिलती है । परन्तु सरकारों की पंचायती राज व्यवस्था लागू करते समय ये अधिूचित क्षेत्र जो पूरी तरह स्वतंत्र स्वशासी थे उन्हें पेसा नाम के 5वीं अनुसूचि के बच्चे को लाकर आदिवासियों के उपर सरकारी पंचायती राज थोप दिया गया । जिसे हम सरकार के अनुसूचि