"सरकारी सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त सामाजिक शिक्षा की आवष्यकता है आदिवासी समाज को !"
"राटीय स्तर पर सामाजिक विकास के मूल्यांकन में आदिवासी समाज आज भी सबसे निचले पायदान में ही बना हुआ हैं ।1947 के बाद भारत में बाहर से आने वाले षरणार्थी भी आदिवासियों से हर मायने में बहुत आगे निकल चुके हैं । सरकारी तंत्र और मीडिया चीख चीख कर आदिवासियों के विकास हेतु किये जा रहे प्रयासों को प्रसारित करती रहती हैं । अंत में निश्कर्श निकाला जाता हैं कि आदिवासी अपना विकास खुद नहीं करना चाहते । इसी तरह बात आई गई होती रहती हैं । कहीं कही आदिवासी अपने हक अधिकार के प्रति सजगता दिखाने लगता है तो उस पर अलगाव वाद नक्सलवाद का आरोप लगाकर उसे राश्ट की मुख्यधारा में लाये जाने के लिए कठोर कदम उठाये जाने की वकालत होने लगती हैं । आदिवासी को आज तक पता नहीं कि राश्ट की मुख्यधारा क्या हैं वह तो आज भी उसी प्रकृति के नियम कायदों को मनुश्य जाति की मुख्य धारा मानकर स्वच्छ और विनम्र जीवन जी रहा हैं । तब केवल एक जाति या वर्ग की विचारधारा जो आज राश्ट की विचारधारा के रूप् में प्रस्तुत की गई हैं । उसमें वह कैंसे अपने आप को संतुश्ट कर पायेगा । उसे छल प्रपंच कूटनीति से सराबोर मुख्यधारा रास नहीं आती । आज हर एक वर्ग या समुदाय अपनी सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक मूल्यों को बनाये रखकर राश्ट के विकास में अपनी सहभागिता निभा रहे हैं । आदिवासी को भी यही करना चाहिये परन्तु आदिवासी कथित राश्ट की मुख्यधारा में समर्पित होकर उसी में अपने समाज के विकास की आस लिये जी रहा हैं। उसे पता नहीं कि राश्ट की मुख्यधारा की सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त उसे सामाजिक षिक्षा की भी आवष्यकता हैं । कारण भी हैं हमारे देष में आजादी के बाद से सत्ताधारियों ने लगातार दोहरी नीति को बढाया हैं चाहे वह शिक्षा का मामला हो सत्ता का मामला हो या धर्म संस्कृति सभ्यता के संरक्षण का हर जगह दोहरी नीति अपनाई गई । एक ओर जनहित के नाम पर आदिवासियों को उनकी सांस्कृतिक विरासत धरोहरों को कारखाना और बडे बांध बनाकर मिटाया गया दूसरी ओर महत्वपूर्ण स्थानों में पत्थर को लाल पीला करके धर्म के नाम पर कब्जा किया गया । आरक्षण के नाम पर संविधान की दुहाई देकर गैर अनुपातिक व्यवस्था जैंसे देष के 85 प्रतिषत लोगों को 49.50 आरक्षण और 15 प्रतिषत लोगों को 50.50 प्रतिषत हिस्सा । दोहरी नीति की मार का शिकार सबसे ज्यादा आदिवासी हुआ है जिसके कारण आज भी उसका जनहित के नाम पर सबकुछ लुटता जा रहा हैं । देष में आज जो भी वर्ग या समुदाय तरक्की के रास्ते पर है उसने इस दोहरी नीति को समझ लिया है । तभी वह राश्ट की मुख्यधारा के साथ साथ अपने समाज की मुख्य धारा भाशा धर्म संस्कृति को मजबूत करता रहता हैं इसलिये वह राश्ट के प्रति उत्तरदायी वफादार तो बना ही रहता है लेकिन समाज के प्रति भी उतना ही उत्तरउायी और वफादार हो जाता हैं । समाज को प्रथक शिक्षा या जिसे सामाजिक शिक्षा कहा जाता हैं की आवष्यकता क्यों । इसे विस्तार से जानने के लिये हमें आजादी के पूर्व भारत के शिक्षाविद लार्ड मैकाले की शिक्षा प्रणाली को समझना होगा । लार्ड मैकाले को अंग्रेजी सरकार ने एैसी शिक्षा पद्वति तैयार करने का जिम्मा सौंपा था कि भारत का व्यक्ति जितनी भी उच्च स्तर की शिक्षा ले परन्तु उसका बौद्धिक स्तर एक क्लर्क से ज्यादा विकसित न हो क्योंकि उन्हें पढा लिखा क्लर्क चाहिये था जो सरकारी काम काज का हिसाब रख सके सत्ता की योग्यता वाले भारतीय की आवष्यकता नहीं थी । परन्तु आजादी का रास्ता निकला सुदूर जंगलों से क्रांति का संखनाद हुआ जहां शिक्षा नहीं थी । यह संखनाद उनकी अपनी शिक्षा का परिणाम थी । सरकारी शिक्षा प्राप्त लोग अंग्रेजो की चाकरी में लगे रहते थे और अंग्रेजो का साथ देकर अपने ही भाईयों के हत्यारे बनते थे । आदिवासियों के साथ अब भी यही हो रहा है । सामान्य शिक्षा या सरकारी शिक्षा लेकर इस समाज का बेटा अच्छे पद और प्रतिश्ठा पाकर केवल सरकारी तंत्र का हिस्सा बनकर उसका वफादार हो जाता है समाज का नहीं । वहीं अन्य समुदाय सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त सामाजिक शिक्षा ग्रहण कर सरकार और समाज दोनों के प्रति वफादार होकर समाज के विकास में अपना योगदान देता है । देश में अनेक समुदाय हैं जो आज भी आदिवासी समुदाय से कम जनसंख्या में हैं या कम पढेलिखे हैं परन्तु एैसे समाज आज विकसित समाज की श्रेणी में गिने जाते हैं जैन सिख मुस्लिम सिंधी इसाई आदि समुदाय इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । इन्होंने भी तो इसी धरती में जन्म लिया इसी हवा पानी को लेकर जी रहे हैं राश्ट की मुख्यधारा में भी गिने जाते हैं तब इनके और हमारे बीच विकास दर इतना अंतर क्यों । सामान्य सी बात है इन समुदायों ने अपनी भाशा धर्म संस्कृति को विकास की पहली सीढी बनाया इनका मानना है कि यदि हम समाज को आरंभ से सामाजिक शिक्षा नहीं देंगें तो वह समाज के प्रति उत्तरदायित्व का बोध कैसे करेगा । यही उत्तरदायित्व बोध समाज की एकता ताकत और विकास की आधारषिला है । मेरे मायने में आदिवासी समाज जब तक अपनी भाशा धर्म संस्कृति के द्वार को पार नहीं करेगा अर्थात सामाजिक शिक्षा में भाशा धर्म संस्कृति को अंगीकार नहीं करेगा तब तक वह कितना ही पद ओहदा पा जाये समाज का भला नहीं कर सकता । सामान्य सरकारी शिक्षा के अतिरिक्त सामाजिक शिक्षा समाज के विकास के लिये आवष्यक तत्व है ।
: गुलजार सिंह मरकाम :
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