"आदिवासी समाज का पर्सनल ला यानि विधि संहिता"
मित्रो काफी समय से आदिवासी समाज का पर्सनल ला यानि विधि संहिता हो इस बात की चिता की जा रही है कारण भी है कि जब आदिवासी हिन्दु नही ंतब देष का संविधान उसके निजि जीवन पद्धति में किसी अन्य धर्मावलंबी के नियम कायदे कैसे थोप सकता है । यदि एैसा हो रहा है तो वह संविधान के विरूद्ध है । हालाकि आदिवासियों की कुछ जातियों ने कहीं कहीं अपनी सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिये अपनी जातिगत नियम बनाये हैं पर वे समस्त आदिवासी समाज के लिये नाकाफी है । यही कारण है कि संविधान मे व्यवस्था होने के बावजूद हमारे साथ सामान्य हिन्दुओं के मापदण्ड से न्याय निर्णय किये जाते हैं । इसमें हमें नुकसान झेलना पडता है । सम्पूर्ण आदिवासियों का पर्सनल ला यानि एक विधि संहिता हो इस बात की पहल वर्श 1992 में मध्यप्रदेष राज्य के आदिम जाति अनुसंधान संस्थान ने राज्य की समस्त जनजातियो की रीजि परंपराओं का अनुसंधान और सर्वेक्षण कराते हुए हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीष के नेतृत्व आदिवासी समाज की विधि संहिता तैयार करायी गई थी जो दुर्भाग्य से उस पर आगे काम नहीं बढा ना अब बढ पाया । चूंकि यह हमारे समाज की जरूरत है इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमने इसका संकलन कर पुस्तक रूप में इसे यथारूप प्रकाषित कराया । इस प्रकाषन के पीछे हमारा उददेष्य यह है कि यह संहिता हमारे आने वाले भविश्य में बनने वाली आदिवासी पर्सनल ला के लिये मार्गदर्षन कर सके । इस पुस्तक देष की लगभग सभी प्रमुख जनजातियों गोंड कोल भील उरांव मुण्डा कोरकू बैगा भुमिया षहरिया आदि की समस्त उपजातियोंकी रीति परंपराओं का सर्वेक्षण और अनुसंधान समाहित है । चूंकि यह सरकारी सर्वेक्षण है जिसने जैसी जानकारी दी उसे यथा समाहित कर लिया गया है । सामाजिक जानकारी या अभिव्यक्ति के अभाव में समाज ने अपने समाज की लाभ हानि का भले ही ध्यान ना रखा हो पर हम इसके मार्गदर्षन में समाजोन्मुख विधि संहिता तैयार कर सकते हैं । इसी उददेष्य को लेकर पुस्तक के अंष क्रमष प्रकाषित किया जा रहा ताकि हम अपने समाज की रीति परंपरा का पुनरावलोकन कर नुकसानदेह को हटा सके और समाज के लिये हितकारी विशय को समाहित कर सकें ।
मित्रो काफी समय से आदिवासी समाज का पर्सनल ला यानि विधि संहिता हो इस बात की चिता की जा रही है कारण भी है कि जब आदिवासी हिन्दु नही ंतब देष का संविधान उसके निजि जीवन पद्धति में किसी अन्य धर्मावलंबी के नियम कायदे कैसे थोप सकता है । यदि एैसा हो रहा है तो वह संविधान के विरूद्ध है । हालाकि आदिवासियों की कुछ जातियों ने कहीं कहीं अपनी सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिये अपनी जातिगत नियम बनाये हैं पर वे समस्त आदिवासी समाज के लिये नाकाफी है । यही कारण है कि संविधान मे व्यवस्था होने के बावजूद हमारे साथ सामान्य हिन्दुओं के मापदण्ड से न्याय निर्णय किये जाते हैं । इसमें हमें नुकसान झेलना पडता है । सम्पूर्ण आदिवासियों का पर्सनल ला यानि एक विधि संहिता हो इस बात की पहल वर्श 1992 में मध्यप्रदेष राज्य के आदिम जाति अनुसंधान संस्थान ने राज्य की समस्त जनजातियो की रीजि परंपराओं का अनुसंधान और सर्वेक्षण कराते हुए हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीष के नेतृत्व आदिवासी समाज की विधि संहिता तैयार करायी गई थी जो दुर्भाग्य से उस पर आगे काम नहीं बढा ना अब बढ पाया । चूंकि यह हमारे समाज की जरूरत है इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमने इसका संकलन कर पुस्तक रूप में इसे यथारूप प्रकाषित कराया । इस प्रकाषन के पीछे हमारा उददेष्य यह है कि यह संहिता हमारे आने वाले भविश्य में बनने वाली आदिवासी पर्सनल ला के लिये मार्गदर्षन कर सके । इस पुस्तक देष की लगभग सभी प्रमुख जनजातियों गोंड कोल भील उरांव मुण्डा कोरकू बैगा भुमिया षहरिया आदि की समस्त उपजातियोंकी रीति परंपराओं का सर्वेक्षण और अनुसंधान समाहित है । चूंकि यह सरकारी सर्वेक्षण है जिसने जैसी जानकारी दी उसे यथा समाहित कर लिया गया है । सामाजिक जानकारी या अभिव्यक्ति के अभाव में समाज ने अपने समाज की लाभ हानि का भले ही ध्यान ना रखा हो पर हम इसके मार्गदर्षन में समाजोन्मुख विधि संहिता तैयार कर सकते हैं । इसी उददेष्य को लेकर पुस्तक के अंष क्रमष प्रकाषित किया जा रहा ताकि हम अपने समाज की रीति परंपरा का पुनरावलोकन कर नुकसानदेह को हटा सके और समाज के लिये हितकारी विशय को समाहित कर सकें ।
Comments
Post a Comment