------: "गोंडी व्यंग गीत" :-------
तीर जेकी का गुलेल रो, बैरी पिटटे तुन यार । महल ते गोद बने कीता, सत्ता ते असवार ।। मावा वीतल माक पुटटो रो, वीते आतुर हैरान । तिन्जी उन्जी बगरे कीसाता, बैरी पिटटे सियान ।।1।। तीर जेकी का गुलेल रो, बैरी अल्ली तुन यार । राजते पांजी बने कीता, निहता मावा रो माल ।। कर्रू साया चाहे वत्ता रो, नीया हिल्लन ख्याल । पीढीं ता नाने जमा कीता, हूरा अल्ली सियान ।।2।। तीर जेकी का गुलेल रो, बैरी नागिन तुन यार । आस्तिन ते गोदा बने कीता, कीता नीया संघार ।। मावा ढिंगा माक दिस्सो रो, बाहुन लुकता जवान । जहर ते माकुम मुरहताता, बैरी नागिन सियान ।।3।। तीर जेकी का गुलेल रो, बैरी गोंछे तुन यार । उच्छी बाहुन नत्तुर विस्कीता, नीकुन हिल्लन ख्याल। टंडीतिनी तल्ला वाये रो, सायो ताना परान ।। सायो बिना जोक्सी नीकुन रो, केंजा गोंडी जवान।।4।।
( गुलजार सिंह मरकाम )
भावार्थ :---
1.सत्तासीन दुष्मन रूपी चिडिया को तीर मारोगे या गुलेल, तुम्हारी धन धरती रूपी महल में सत्तासीन है । हमारे श्रम और पसीने से बोया हुआ "राष्टीय सकल आय" रूपी फसल बोने वाले को नही मिल रहा बल्कि इस फसल को यह चिडिया रूपी सत्ताधारी खाने के बाद फैला देता है ।
2.इसी तरह चूहा रूपी "शोषक जमाखोर" जो हमारे खून पसीने की कमाये धन संपत्ति को गोदामों में भर लेते हैं जनता चाहे भूखों मरे ।
3.वही आस्तीन में छिपे हुए नागिन की तरह हमारे समाज के "कथित जनप्रतिनिधि" जो हमें अपने तो लगते हैं लेकिन लगातार हमें पतन रूपी जहर में डुबा रहे हैं ।
4. इसी तरह "मनुवादी धर्मान्धता" जोंक बनकर हमारा खून चूस रहा है । जितना भी निकालने का प्रयास कर रहे है उस जोंक ने इतना सिर गडा दिया है कि निकालने में टूट रहा है लेकिन निकल नहीं रहा है । इसलिये एैसा लगता है कि हे गोंड जवान वह तुम्हे मारे बिना नहीं मरने वाला । इसलिये एैसे दुश्मन को तीर मारोगे या गुलेल । ( गुलजार सिंह मरकाम )
तीर जेकी का गुलेल रो, बैरी पिटटे तुन यार । महल ते गोद बने कीता, सत्ता ते असवार ।। मावा वीतल माक पुटटो रो, वीते आतुर हैरान । तिन्जी उन्जी बगरे कीसाता, बैरी पिटटे सियान ।।1।। तीर जेकी का गुलेल रो, बैरी अल्ली तुन यार । राजते पांजी बने कीता, निहता मावा रो माल ।। कर्रू साया चाहे वत्ता रो, नीया हिल्लन ख्याल । पीढीं ता नाने जमा कीता, हूरा अल्ली सियान ।।2।। तीर जेकी का गुलेल रो, बैरी नागिन तुन यार । आस्तिन ते गोदा बने कीता, कीता नीया संघार ।। मावा ढिंगा माक दिस्सो रो, बाहुन लुकता जवान । जहर ते माकुम मुरहताता, बैरी नागिन सियान ।।3।। तीर जेकी का गुलेल रो, बैरी गोंछे तुन यार । उच्छी बाहुन नत्तुर विस्कीता, नीकुन हिल्लन ख्याल। टंडीतिनी तल्ला वाये रो, सायो ताना परान ।। सायो बिना जोक्सी नीकुन रो, केंजा गोंडी जवान।।4।।
( गुलजार सिंह मरकाम )
भावार्थ :---
1.सत्तासीन दुष्मन रूपी चिडिया को तीर मारोगे या गुलेल, तुम्हारी धन धरती रूपी महल में सत्तासीन है । हमारे श्रम और पसीने से बोया हुआ "राष्टीय सकल आय" रूपी फसल बोने वाले को नही मिल रहा बल्कि इस फसल को यह चिडिया रूपी सत्ताधारी खाने के बाद फैला देता है ।
2.इसी तरह चूहा रूपी "शोषक जमाखोर" जो हमारे खून पसीने की कमाये धन संपत्ति को गोदामों में भर लेते हैं जनता चाहे भूखों मरे ।
3.वही आस्तीन में छिपे हुए नागिन की तरह हमारे समाज के "कथित जनप्रतिनिधि" जो हमें अपने तो लगते हैं लेकिन लगातार हमें पतन रूपी जहर में डुबा रहे हैं ।
4. इसी तरह "मनुवादी धर्मान्धता" जोंक बनकर हमारा खून चूस रहा है । जितना भी निकालने का प्रयास कर रहे है उस जोंक ने इतना सिर गडा दिया है कि निकालने में टूट रहा है लेकिन निकल नहीं रहा है । इसलिये एैसा लगता है कि हे गोंड जवान वह तुम्हे मारे बिना नहीं मरने वाला । इसलिये एैसे दुश्मन को तीर मारोगे या गुलेल । ( गुलजार सिंह मरकाम )
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