गोंडवाना पुनरूत्थान यात्रा------
गोंडवाना की धार्मिक
सांस्कृतिक राजनीतिक हलचल जारी है । अभी तक हुए अनुभवों की भी लम्बी दास्तान है । परन्तुे
मैं अपने गोंडवाना विषयक प्रवाह को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने की जोखिम उठा रहा
हूं । गोंडवाना के पुनरूत्थान में लगे समस्त लेखक कवि चिंतको का दायित्व भी यही होना
चाहिये । जब किसी समाज में राजनैतिक धार्मिक सांस्कृतिक इच्छा शक्ति जागृत होती है
तब उस समाज की गति शून्यता समाप्त हो जाती है । फिर उस समाज में राजनैतिक हलचल दिखाई
देने लगती है । राजनैतिक हलचल से समाज के लोग अनेक विचारों को गृहण करने लग जाते हैं
। जिसकी पृष्ठभूमि में राजनैतिक सरोकारों से जुडे प्रश्न होते हैं । जिससे राजनैतिक
संवाद की रूपरेखा बनती है । और आगे जाकर राजनीति का प्लेटफार्म तैयार हो जाता है ।
एक एैसा ही प्लेटफार्म गोडवाना गणतंत्र पार्टी के संदर्भ में जो हीरा सिंह मरकाम शीतल
मरकाम मोतीरावण कंगाली और सुन्हेर सिंह ताराम के साथ साथ अनेक व्यक्तियों के विचारों
को समाविष्ठ कर तैयार किया गया है। परन्तु इतने अंतराल के बाद भी गोंडवाना गणतंत्र
पार्टी गणतंत्रात्मक नहीं हो पाई उसका मलाल हमेशा रहता है । फिर भी सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक तत्व की हलचल
से राजनीति का यह अंग मरा नहीं पर मृतप्राय सा लगता है । जिसको पुनर्जीवित करने का
अथक प्रयास जारी है ताकि गोंडवाना के पुनरूत्थान के लिये अवश्यक इस शाखा पर समाज का
विश्वास पुनः स्थापित हो सके । एक बार कचार गढ की जनसभा में मैंने कहा था कि समाज बडी
मुस्किल से तैयार होता है उसे कमजोर करने का प्रयास नहीं होना चाहिये । यह घर की खेती
नहीं है जिसे जब चाहे लगाओ और जब चाहे उखाड फेंको । दूशित राजनीति समाज को तोडती है
और संस्कृति समाज को अपनी बांहों में बांधे रखती है । महान गोंडवाना की मूल संस्कुति
में एैसी दुराचारी प्रवृतियों के लिये कोई सम्मानजनक स्थान नहीं है । किस किसने गोंडवाना
के नाम का प्रयोग करके पार्टियां और संगठन खडे कर लिये हैं इसे कुछ कुछ जानता हंू लेकिन
इतना जानता हूं कि जो समाज और उनके नेता संकीर्णता के आकंठ में डूबे रहते हैं समाज
ज्यों का त्यों रहता है परन्तु वे अपनी व्यापकता खो बैठते हैं । संकीर्ण मनोवृत्ति
कभी उचाईयों को छू नहीं सकती है।
गोंडियन समाज अपनी व्यापकता और उच्चता एक हद तक विस्मृत कर चुका है । भूख गरीबी
अनेक अभावों से त्रस्त रहा है । उसमें मुझे कोई दोष नहीं दिखाई देता । मुझे उन जालिम
लोगों का ख्याल आता है जिन्होने शिक्षा का गलत इस्तेमाल करके अनेक भ्रांतियों को पैदा
करके महज अपने बर्चस्व को कायम रखने के लिये गोंडियन संस्कृति के लोगों को मानसिक गुलाम
बनाकर उनकी गुलामी को बढाने का काम किया है । अब ये मानसिक रूप से गुलाम लोग क्या समझ
पायेंगे कि इंसान की जिंदगी में संकीर्णता क्या होती है मैं तो समझता था कि इन गुलामों
के भीतर से निकले बुद्धिजीवि अक्ल वाले लोग जो जीवन की महत्ता का मूल्यांकन कर सकते
हैं व्यापकता विशालता की तरफ देख सकते हैं अपने सगा समाज के उन लोगों को जो मानसिक गुलामी
के शिकार हैं उन्हें गुलामी से छुटकारा दिला सकते हैं । उन्हें साथ लेकर अपने नैसर्गिक
संविधान में लिखित अधिकारों की लडाई लड सकते हैं । लेकिन एैसा नहीं हुआ । हमारे लोग
दुश्मन के चंगुल में कैसे फस जाते हैं अपने निहित स्वार्थों के खातिर अपने समाज को
कैसे खतरों में डाल देते हैं देखने सुनने को मिलता है ।
भला हो उन साहित्यकारों का जिन्होंने एैतिहासिक सामाजिक सांस्कृतिक विषयों पर
षोधपरक पुस्तकों का प्रकाषन किया । जिससे गोंडियन संस्कृति के लोगों में स्वाभिमान
जागा है । स्वाभिमान के आन्दोलन के परिणाम देखने को मिल रहे हैं । गोंडियन युवक युवतियां
अब केवल नौकरी के उददेष्य से नहीं पढ रहे हैं बल्कि पुस्तकों और लायब्रेरी से नाता
जोडकर समाज उत्थान के अध्याय और पन्ने पलटने लगे हैं । ये सब बातें अच्छे भविष्य की
सूचक हैं । अब एैसा आभाश होने लगा है कि भविष्य में यह नई पीढी आधुनिक वातावरण में
रहकर भी अपने पूर्वजों के बताये रास्ते का अनुशरण करेगी और सुन्दर स्वस्थ समृद्ध समाज
बनाने में सहयोग करेगी ।
नई पीढी को इस बात की जानकारी होना आवश्यक है कि जब एक महान संस्कृति के धारको
को जाति के संदूक में बंद कर दिया जाता है तब उस संदूक के अंधेरे में संर्कीण मनोवृत्ति
को फैलाने का अवसर मिल जाता है । गोंडियन संस्कृति के धारकों के साथ लंबे समय से यही
विश्वासघात हुआ है । अब इस अधोपतन से निजात पाने का रास्ता कहां है यह प्रश्न उपस्थित
हो जाता है । कुछ लोगों ने जातियों को आपस में गूंथकर एक माला में पिरोने का काम किया
। वह भी असफल रहा । जाति के मनके सोने चांदी या हीरे जवाहरात जैसे जगमगाते आभूषण बन
नहीं सकते कांटेदार गोखरू बनकर एकदूसरे से उलझते अवश्य हैं । देखने वालों को लगता है
कि जातियों का मिलाप हो रहा है । यही वर्तमान समय का राजनीतिक गणित है । जो कुछ भी
हो रहा है जो कुछ भी हो रहा है उसे सावधानी पूर्वक देखना समझाना होगा । और इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि आर्यों ने
गोडवाना क्षेत्र में आकर यहां की मूल संस्कृति को एक हद तक परिवर्तित कर दिया है ।
मुटठी भर लोग ही प्रचीन मूल संस्कृति के अंतर्गत जीवन जी रहे हैं । गोंडियन संस्कृति
की सुगंध उनके जीवन में समाई हैं । उन्हें भी राष्ट की मुख्यधारा में लाने के बहाने
सांस्कृतिक धार्मिक परिवर्तन करके उपनिवेष बनाने का अभियान जोरों पर चल रहा है । यदि
गोंडी भाषा में जीने वाले बचे नहीं रहते तब हमारा संपूर्ण सांस्कृतिक धार्मिक परिवर्तन
हो गया होता । जिन लोगों ने परिश्रम करके प्रचीन अति प्राचीन इतिहास को खोज निकालने
के लिये जिंदगी दांव पर लगा रखा है उनको आगे
की पीढी महामानवों के रूप में अपनी स्मृति
में संजोकर रखेगी । आधुनिक युग में भी गोंडियन अपने धर्म को क्यों पकडे हुए हैं क्योंकि उनका धर्म उनके जीवन का अवलंब है । आधार
है । हर अच्छी और मजबूत बात हजारों साल तक चलती है । आजकल धर्म के नाम पर अत्यधिक आडंबर रचे जा रहे हैं इनसे सावधान रहने की जरूरत
है । कुछ साल पहले शोषक वर्ग के लोग जो अधिकांशतः कथित उच्च जातियों के कहलाते है शोषित
वर्ग की जागृति से परेशानी में पड गये थे । शोषित समाज की चेतना को कंुठित करने का
रास्ता तलास रहे थे । किसी से सुना था कि रूस के लोगों ने उन्हें सलाह दी थी कि वे
अपनी परंपरा में इस समस्या का हल ढूंढें ।
पहले कपोल कल्पित देवताओं के नाम पर बृहम ज्ञान
के नाम पर स्वर्ग नरक के नाम पर तरह तरह के पाखंण्ड रचकर गोंडियन संस्कृति के लोगों
को ठगाजाता था । इसमें बडे बडे राजा महाराजा भी फंस जाते थे । उनकी संपत्ति हडप ली
जाती थी । यह शोषको की परजीवी परंपरा रही है । उसी परंपरा का अनुशरण करके आजकल नये
ढंग से पाखंड फैलाये जा रहे हैं अब तो इस पाखंड पर शासकीय मुहर भी लगती दिखाई दे रही
है । पूर्व के इनके कपोल कल्पित देवता अब आकर ग्रहण कर चुके हैं । जो गोंडियन समाज
अपने देवी देवताओं को प्रतीक रूप में श्रद्धा सुमन चढाता था प्रतीक से मूर्ति की ओर
बढ रहा है । क्या ये मूर्ति गोंडवाना के पुनरूत्थान की दिशा में आपका मार्गदर्शन करेगे
। बोलने लगेंगे । एैसा कदपि होने वाला नहीं
है । आपके देवी देवताओं की मूर्ति मात्र स्मृति चिन्ह हैं । इनको स्मृति में
संजोये रखना यह आध्यात्मिक प्रवृति का द्वयोतक है इससे आगे नहीं । प्रस्तुति- गुलजार
सिंह मरकाम
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