मूलनिवासीयो की जीत के लिए एकमात्र हथियार "सन्सक्रति"
देश के मूलनिवासी के पास अस्तित्व बनाये रखने के लिए एकमात्र हथियार उसकी " सन्सक्रति " बची है। यही उसे बचा सकती है। देवासुर सन्ग्राम से लेकर शक , हूण , यवन , मुगल, पठान सहित डच , फ्रान्सीसी और अन्ग्रेजो के सत्तासीन होने के कारण इन विदेशी ताकतों ने हमें सत्ता,सम्पत्ति और शिक्षा से वन्चित कर हमें भौतिक रूप से गुलाम बना लिया। हम इन विषयों में पूरी तरह विदेशी ताकतों की मर्जी से दुर्भाग्य पूर्ण जीवन जीने को मजबूर हैं। हम इनके रहमो करम से शिक्षा नौकरी व्यापार कर सकते हैं। इनके गुलाम बनकर ही सत्ता में भागीदारी पा सकते हैं। इनकी मर्जी से सम्पत्ति के छोटे मोटे उपभोक्ता बन सकते हैं। इसका तात्पर्य है कि हम आज पूरी तरह इनकी इच्छानुसार अच्छा या बुरा जीवन जीने के लिये मजबूर हो चुके हैं। इस भौतिक गुलामी से मुक्त हो पाना मुश्किल होता जा रहा है। मूलनिवासीयो के अनेक प्रबुद्ध जनो ने इस गुलामी से मुक्त होने के अनेक समाधान निकालने का प्रयास किये और आज भी अनेक प्रयास जारी हैं, लेकिन ज्यों ज्यों प्रयास हो रहे हैं। त्यों त्यों सत्ताधारियों के द्वारा किसी ना किसी तरह पन्गू और लाचार बनाकर हमारी उनके प्रति निर्भरता को और भी बेहतर करके, "अब तो कुछ नहीं कर सकते" हमें उनका साथ लेना ही पड़ेगा जैसी मानसिकता पनप रही है जो मूलनिवासीयो की आजादी के आंदोलन के सिपाहियों के मनोबल को कमजोर कर सकती है। उन्हें हताशा में डाल सकती है। परन्तु लेखक को इतना कुछ होने के बावजूद मूलनिवासीयो की आजादी के लिये महत्वपूर्ण और आखिरी हथियार " मूलनिवासीयो की सन्सक्रति" के बचे अवशेष कारगर साबित हो सकते हैं। जो अब तक सत्ताधारियों की पूरी गिरफ्त में नहीं है। आज हमें इसे प्रमुख अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करना होगा। सत्ताधारी का रुख अब इस ओर बढ़ता जा रहा है। शिक्षा,सत्ता और सम्पत्ति के मद में चूर अधिनायकवादी व्यवस्था के प्रबल समर्थक " सान्सक्रतिक विजय अभियान की ओर अग्रसर है यदि इस अभियान में उनकी जीत होती है तो मूलनिवासी हमेशा के लिये गुलामी की जन्जीर में जकड दिया जाएगा जिससे निकल पाना असंभव होगा। इसके उदाहरण पश्चिमी देशों के मूलनिवासीयो की हालत का जायजा लेकर किया जा सकता है। इनके गुरु चाणक्य ने इन्हें उपदेशों में समझाया है कि " पराजित राष्ट्र तब तक पराजित नहीं होता जब तक उसकी सन्सक्रति पराजित नहीं हो जाती" अब ये इसी अभियान में लग चुके हैं । हमें अपने अस्तित्व को बचाने के लिये इनका मुह तोड़ जवाब देना होगा।(गुलजार सिंह मरकाम)
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