वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर दुनिया के देश दो भागो में विभाजित है । और हर देश की सभ्यता सन्सक्रति का उद्भव और विकास करने वाला वहाँ का मूलनिवासी या जिसे सयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा में एबोर्जिनल या सयुक्त मापदंड में आदिवासी कहा गया। हालांकि दुनिया के अनेक देशों ने इन्हें अपनी अपनी भाषा में अपना स्थानीय नाम देकर सम्बोधित किया है यथा एबोर्जिनल , रिपब्लिकन पीपुल या अन्य नाम परन्तु हमारे देश में इन्हें आज तक उस मूल भाव से जो अन्य देशों ने दिया है नहीं दिया गया, बल्कि जातीय सूची में सूचीबद्ध कर आज तक उसमें जातियो को जोड़ने घटाने का काम किया जा रहा है। यही कारण है कि आज हर जाति उस सूची में शामिल होने की होड में है। हर कोई देश का मूलबीज होने का दावा करता दिखाई दे रहा है। और तो और जिन जातियों को दुनिया के इतिहासविद् एवं वैज्ञानिक अनुसंधान ने विदेशी करार दिया है, ऐसी जातियाँ भी आज अपने आप को देश का मूल बीज बताने के लिये इतिहास से छेडछाड करने मे कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं । यह सब इसलिये हो रहा है कि एक तो देश के मूल बीज का उसके मापदंड के आधार पर कोई नाम नहीं दिया गया उन्हें केवल गरीबी,अशिक्षा और वनक्षेत्रो में निवास करने वाली जाति के रूप में चिह्नित कर सूचीबद्ध कर दिया गया भले ही वह मूल बीज के मापदंड में खरा नहीं उतर रहा है।चालाक लोगों सुनियोजित तरीके से इसे अंजाम दिया सूची तो सूची है इसमें कभी भी जोड़ा या घटाया जाना संभव है। जातीय सूची ने जातीय भावना को मजबूत किया जिसके कारण एक सूची में होने के बावजूद सामुदायिक भावना नहीं पनप सकी है । इस बात की समझ सविधान सभा के विद्वान मूलबीज "कैप्टन जयपाल मुन्डा जी" को थी इसलिये उन्होंने इस मूल बीज को आदिवासी नाम दिये जाने की वकालत करते रहे , परन्तु नेहरू एवं उनकी लाबी ने उनके इस महत्वपूर्ण प्रस्ताव को जानबूझकर खारिज कर दिया। क्योंकि इस महत्वपूर्ण शब्द के अर्थ को या तो जयपाल सिंह मुंडा समझते थे या नेहरू ! फिर भी जयपाल मुन्डा जी की भावना को देश का मूल बीज समझता गया, उसने इस आदिवासी शब्द को अपनी अन्तर्आत्मा में बसा लिया। इसके बदले उसे कितना ही तिरस्कार झेलने पड़े सब कुछ सहन करता रहा और आज भी कर रहा है। मूल बीज को ज्यो ज्यो आदिवासियत की समझ गहरी होती गई तब उसे और गहराई मे जाने से रोकने के लिये गिरिजन और वनवासी जैसे शब्दावली का प्रयोग किया गया, किया जा रहा है। मूल बीज को जब आदिवासी शब्द उसे देश का आदिकाल से होने का एहसास दिलाने लगा तब इस स्मृति पर पर्दा डालने के लिये उसे सन्विधान मे उल्लिखित नाम "अनुसूचित जनजाति या शेड्यूल ट्राईब से सम्बोधित किया जा रहा है,जो मूल बीज की अनुवान्शिक महत्व को कमजोर करती है। इसलिये लारेन्शिया और गोन्डवाना लेन्ड की भौगोलिक प्रष्ठभूमि में मूल बीज अपने समुदाय को गोन्डवाना लैन्ड का महत्वपूर्ण भाग भारत देश का आदिकाल से रहने वाला "आदिवासी " के रूप में अपनी पहचान को मजबूत करे । नोट:- लौरेन्शिया के चार और गोन्डवाना लैन्ड के पान्च द्वीपों में अनेक देश हैं जिनमें उन देशों ने वहाँ के मूल बीज को अलग अलग नाम से सम्बोधित किया है पर भारत के मूल बीज को प्रथक पहचान के रूप में कोई नाम नहीं दिया है केवल जातियों की सूची में शामिल किया है । जिससे जोडना घटाना जारी है। जिस दिन ये सूचिबद्ध जातिया मूल समुदाय के रूप में स्थापित हो जायेगी उस दिन से जोडना घटाना सम्भव नहीं कारण कि सामुदायिक भाव अन्य जाति को प्रवेशित नहीं होने देगा ।
गोंडवाना का भूगोल बडा है ।
इस भूगोल में आदिवासियों की संख्या बहुत हैं ।
इस भूगोल के संविधान में अनुसूचित जनजातियां बहुत हैं ।
संविधान में जनजातियों की जातियां बहुत हैं ।
इन जातियों को एक सोच विचार और व्यवहार में लाने वाला शब्द और साधन क्या होगा ।
"समस्या, धर्म, संस्कृति या राष्टीयता ?"
-गुलज़ार सिंह मरकाम
part-2
"गोंडवाना भूमि का आदिवासी"
गोंडवाना एक भूभाग है और उस भूभाग में आदिकाल से सर्वप्रथम पाया जाने वाला आज का बिखरा हुआ समूह जिसे अनेक विद्वान अलग अलग नाम देते हें ! यथा आदिवासी ,मूलनिवासी ,मूलवासी ,गिरिजन, वनवासी, जनजाति आदि । क्या देश में अनेक विद्वानों के द्वारा दिये गये इतने सारे नामों का इस्तेमाल करने के बजाय केवल एक नाम जिसको केप्टन जयपाल मुण्डा ने संविधान में स्थापित करने का प्रयास किया, क्या इस "आदिवासी" नाम को स्थापित नहीं किया जा सकता ? यदि एैसा होता है, तो शायद गोंडवाना भूभाग के समस्त आदिवासीयों की एैतिहासिकता प्रासंगिक हो सकती है । अन्यथा बिखरा आदिवासी गोंडवाना भूभाग ,गोंडवाना राष्ट और राष्टीयता की अवधारणा को संदेह की नजरों से देखेगा । क्या हम शब्दों के पीछे एकता की बलि नहीं दे देंगे ।
Comments
Post a Comment