अपील
सम्माननीय प्रक्रति पुत्रों,जय सेवा जय जोहार !
हिन्दी भाषा के "धर्म", फारसी उर्दू के "मज़हब” और अन्ग्रेजी भाषा का "रिलीजन" शब्द और उसके आधार पर उनकी अपनी अपनी व्याख्या है । उनकी अपनी आस्था और विश्वास के प्रतीक हैं। उनकी अपनी अलग अलग जीवनचर्या और उपासना पद्धतियाँ हैं। यही कारण है कि इन उपासना पद्धति मे आस्था और विश्वास रखने वाले व्यक्ति तथा समुदाय को एक "नाम" देकर उसे सन्वैधानिक/सामाजिक मान्यता प्राप्त है। वहीं प्रथक आस्था और विश्वास रखने वाले समुदाय (आदिवासीयो) को कोई सन्वैधानिक/सामाजिक मान्यता नहीं दिया गया । इनकी आस्था और विश्वास को सम्मान नहीं दिया गया है । चूंकि आस्था और विश्वास इन्सान की आन्तरिक घटना है इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। विश्व में आदिवासियों की भी अपनी प्रथक जीवनचर्या और उपासना पद्धति है। पर कथित विकसित कही जाने वाले समूहों ने इन आदिवासीयो के जीवनचर्या और उपासना पद्धति के कुछ आवश्यक अन्श/तत्व जो केवल इन्सानी विकास पर केंद्रित रहे हैं , को लेकर अपनी अपनी विचारधारा की श्रेष्ठता साबित करने के विस्तार में जुटे हैं । यही कारण था और है भी कि, श्रेष्ठता साबित करने के उहाफोह में दुनिया में अनेक नरसंहार हुए और आज भी हो रहे हैं । दूसरी ओर दुनिया का आदिवासी समुदाय "श्रेष्ठतावादी" सोच से हटकर प्रक्रतिवादी दर्शन का अनुकरण करते हुए ना केवल इन्सान अपितु जीव जगत के हर "स्थावर और जन्गम" यथा पशु,पक्षी,कीड़े,मकोड़े जानवर ,पेड, पौधे, नदी, पहाड़ ,सूरज,चान्द को भी अपनी जीवनचर्या और उपासना पद्धति में शामिल कर सबको बराबर सम्मान देता है । यही कारण है कि अब तक प्रकृति का पर्यावरण सन्तुलित रहा , परन्तु "केवल इन्सानी विकास " के पक्षधर जीवनचर्या और उपासना पद्धति के भूखो ने प्रक्रति के शेष सहोदरो ,पशु,पक्षी,कीड़े-मकोड़े जानवर ,पेड- पौधे, नदी पहाड़ सूरज-चान्द आदि के महत्व को दरकिनार कर दिया । इसी तरह उनपर आस्था और विश्वास रखने वाले आदिवासी समुदायों को पिछडा और नकारा माना गया । आज दुनिया में पर्यावरणविद् ,पर्यावरण असन्तुलन को लेकर , इन्सानी जीवन में खतरा महसूस करने लगे हैं तब उन्हें आदिवासी याद आने लगे हैं । इनकी जीवनचर्या और उपासना पद्धति में इन्सान ज्यादा सुरक्षा दिखाई देने लगा है । ऐसे समय पर आदिवासी समुदाय की जिम्मेदारी ज्यादा बढ जाती है । कि बह अपनी जीवनचर्या और उपासना पद्धति अर्थात् प्रकृतिवाद की अच्छी प्रस्तुति देकर स्थावर और जन्गम के साथ इस कथित विकसित जीव "इन्सान" की सुरक्षा करे । इसी बात को ध्यान मे रखते हुए आदिवासी समुदाय को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जीवनचर्या और उपासना पद्धति का एक सहज और सुन्दर नाम पर चर्चा कर, उसे वर्ष २०२१ में होने वाली जनगणना के पूर्व "जनगणना प्रपत्र" में अलग "कोड" निर्धारित कराया जा सके ।
हिन्दी भाषा के "धर्म", फारसी उर्दू के "मज़हब” और अन्ग्रेजी भाषा का "रिलीजन" शब्द और उसके आधार पर उनकी अपनी अपनी व्याख्या है । उनकी अपनी आस्था और विश्वास के प्रतीक हैं। उनकी अपनी अलग अलग जीवनचर्या और उपासना पद्धतियाँ हैं। यही कारण है कि इन उपासना पद्धति मे आस्था और विश्वास रखने वाले व्यक्ति तथा समुदाय को एक "नाम" देकर उसे सन्वैधानिक/सामाजिक मान्यता प्राप्त है। वहीं प्रथक आस्था और विश्वास रखने वाले समुदाय (आदिवासीयो) को कोई सन्वैधानिक/सामाजिक मान्यता नहीं दिया गया । इनकी आस्था और विश्वास को सम्मान नहीं दिया गया है । चूंकि आस्था और विश्वास इन्सान की आन्तरिक घटना है इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। विश्व में आदिवासियों की भी अपनी प्रथक जीवनचर्या और उपासना पद्धति है। पर कथित विकसित कही जाने वाले समूहों ने इन आदिवासीयो के जीवनचर्या और उपासना पद्धति के कुछ आवश्यक अन्श/तत्व जो केवल इन्सानी विकास पर केंद्रित रहे हैं , को लेकर अपनी अपनी विचारधारा की श्रेष्ठता साबित करने के विस्तार में जुटे हैं । यही कारण था और है भी कि, श्रेष्ठता साबित करने के उहाफोह में दुनिया में अनेक नरसंहार हुए और आज भी हो रहे हैं । दूसरी ओर दुनिया का आदिवासी समुदाय "श्रेष्ठतावादी" सोच से हटकर प्रक्रतिवादी दर्शन का अनुकरण करते हुए ना केवल इन्सान अपितु जीव जगत के हर "स्थावर और जन्गम" यथा पशु,पक्षी,कीड़े,मकोड़े जानवर ,पेड, पौधे, नदी, पहाड़ ,सूरज,चान्द को भी अपनी जीवनचर्या और उपासना पद्धति में शामिल कर सबको बराबर सम्मान देता है । यही कारण है कि अब तक प्रकृति का पर्यावरण सन्तुलित रहा , परन्तु "केवल इन्सानी विकास " के पक्षधर जीवनचर्या और उपासना पद्धति के भूखो ने प्रक्रति के शेष सहोदरो ,पशु,पक्षी,कीड़े-मकोड़े जानवर ,पेड- पौधे, नदी पहाड़ सूरज-चान्द आदि के महत्व को दरकिनार कर दिया । इसी तरह उनपर आस्था और विश्वास रखने वाले आदिवासी समुदायों को पिछडा और नकारा माना गया । आज दुनिया में पर्यावरणविद् ,पर्यावरण असन्तुलन को लेकर , इन्सानी जीवन में खतरा महसूस करने लगे हैं तब उन्हें आदिवासी याद आने लगे हैं । इनकी जीवनचर्या और उपासना पद्धति में इन्सान ज्यादा सुरक्षा दिखाई देने लगा है । ऐसे समय पर आदिवासी समुदाय की जिम्मेदारी ज्यादा बढ जाती है । कि बह अपनी जीवनचर्या और उपासना पद्धति अर्थात् प्रकृतिवाद की अच्छी प्रस्तुति देकर स्थावर और जन्गम के साथ इस कथित विकसित जीव "इन्सान" की सुरक्षा करे । इसी बात को ध्यान मे रखते हुए आदिवासी समुदाय को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जीवनचर्या और उपासना पद्धति का एक सहज और सुन्दर नाम पर चर्चा कर, उसे वर्ष २०२१ में होने वाली जनगणना के पूर्व "जनगणना प्रपत्र" में अलग "कोड" निर्धारित कराया जा सके ।
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