साथियों, गोन्डवाना समग्र क्रांति आन्दोलन में महत्वपूर्ण और बुनियादी बिन्दुओं ,भाषा,धर्म,सन्सक्रति और उस पर आधारित साहित्य में एकरूपता आ जाना चाहिए,हम अभी तक पुनेम (धर्म) की गुत्थी को नहीं सुलझा पाये हैं । सुलझा है तो कुछ कुछ आन्दोलन की पहचान "सल्ला गान्गरा" "सतरन्गी पुनेम ध्वजा " राज चिन्ह "हाथी पर सवार सिंह" तथा सन्घर्श के लिये "पीली पगडी/दुपट्टा" जिसे देश के कोने कोने में जाना और माना जाने लगा है। धार्मिक गतिविधियों में भी इसी तरह की एकरूपता की आवश्यकता है, तत्कालीन गोन्डवाना आन्दोलन के आरम्भिक चरण में दो तरह के गोन्ड यथा ( १) रावन वन्शी जो बलि पूजक हैं (२) राम वन्शी (जो बलि नही देते अपने घरों में सत्य नारायण की पूजा करते हुए अपने को आर्य वन्शज का मानते थे") लगातार शोध ,ज्ञानार्जन और आन्दोलन से स्थिति स्पष्ट होकर यह समुदाय अपने आप को "रावन वन्शी” के रूप में स्थापित किया ! इसी प्रकार पूजा पद्धति की तीन धाराए चली
(१) परम्परागत पूजा जो आज भी सन्चालित है। (जो अपनी गोत्र व्यवस्थानुशार पारिवारिक एवं ग्राम देवता के लिये ग्राम व्यवस्थानुशार) जिसे निरंतर जारी रहना चाहिए )
(२) सामूहिक पूजा जिसमे सभा आयोजित कर बिना कारण के बकरे की बलि (कन्गला माझी सरकार छ०ग० तथा दुर्गे भगत सिदार छ०ग०)
(३) गोन्डवाना समग्र क्रान्ति आन्दोलन के शोध पूर्ण ,तर्कपूर्ण प्रक्रति दर्शन पर आधारित पूजा, (जो मुख्यतः ब्रामनवादी पाखण्ड में फंसे लोगों को उससे मुक्त कराने का आधुनिक प्रयास है ) सामूहिक पूजा की इन तीन धाराओं को वर्तमान परिस्थतियेां में किस तरह एकाकार किया जाय या मान्यता दिया जाय महत्वपूर्ण प्रश्न है । या गोंडवाना आन्दोलन के विभिन्न आयामों में चल रही क्रांति के प्रति इन धाराओं की प्रतिबद्धता को परखा जाय अन्यथा इस तरह के धार्मिक आयोजनों का खुला विरोध किया जाय जो समाज हित में नहीं है ।
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