दिवारी के बाद गोन्डवाना की सान्क्रतिक परम्परा में "मडई"
दिवारी के बाद गोन्डवाना की सान्क्रतिक परम्परा में "मडई" का आयोजन विशेष महत्व रखता है। दिवारी से लगातार ग्यारह तक चलने वाले विभिन्न एवं विशेष ग्रामो में जहाँ किसी परिवार में "गुरुवा बाबा" पित्र पुरुष शक्ति या लिन्गो की स्थापना की जाती है उस ग्राम मे विशेष पर्व एव अनुष्ठान किया जाता है । मैदान के बीचो बीच दिवारी के दिन से लगातार अपना योगदान देने वाले देवार या भुमका के द्वारा गुरुवा बाबा का अस्थायी ठाना बनाया जाता है जिसमें मोरपन्ख से सजा गुरुवा के नाम की बान्स से सजा ढाल या कही गुरुवा चन्डी का प्रतीक गडाकर आसपास घेरे में आड के लिये कपड़े का घेरा बना दिया जाता है। इस मडई में आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्ति विशेष के परिवार में दिवारी के दिन से स्थापित गान्गो या जिसे चन्डी दायी भी कहा जाता है , कही जन्गो दायी भी कहा जाता , की स्थापना जो मोर पन्ख से सजे बान्स मे की जाती है । इन्हे मडई स्थल पर कोपा/अहीर नाच मन्डली एव वहा के ग्रामवासियो के साथ जिसे "पहुवा" कहा जाता है , आते है और एक निश्चित समय मे गुरुवा के बाये बाजू से तीन,पान्च या कोई सात फेरे लगाते है । तत्पश्चात सभी पहुवा अपने अपने खेमे मे एकत्र हो जाते है । इस तरह मूल रूप से मध्यप्रदेश के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में इस मडई ब्याहने की परम्परा आज भी जीवित है। जिन परिवारों में गरुवा एवं गान्गो स्थापित करने का चलन है। ऐसे परिवार अपनी गान्गो को किसी एक मडई में अवश्य ही ले जाते हैं। ताकि वर्ष में एक बार गुरुवा से गान्गो की भेंट हो जाये। इस तरह ग्यारस तक सभी गुरुवा गान्गो की आपस भेंट हो जाती है।
दिवारी के बाद गोन्डवाना की सान्क्रतिक परम्परा में "मडई" का आयोजन विशेष महत्व रखता है। दिवारी से लगातार ग्यारह तक चलने वाले विभिन्न एवं विशेष ग्रामो में जहाँ किसी परिवार में "गुरुवा बाबा" पित्र पुरुष शक्ति या लिन्गो की स्थापना की जाती है उस ग्राम मे विशेष पर्व एव अनुष्ठान किया जाता है । मैदान के बीचो बीच दिवारी के दिन से लगातार अपना योगदान देने वाले देवार या भुमका के द्वारा गुरुवा बाबा का अस्थायी ठाना बनाया जाता है जिसमें मोरपन्ख से सजा गुरुवा के नाम की बान्स से सजा ढाल या कही गुरुवा चन्डी का प्रतीक गडाकर आसपास घेरे में आड के लिये कपड़े का घेरा बना दिया जाता है। इस मडई में आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्ति विशेष के परिवार में दिवारी के दिन से स्थापित गान्गो या जिसे चन्डी दायी भी कहा जाता है , कही जन्गो दायी भी कहा जाता , की स्थापना जो मोर पन्ख से सजे बान्स मे की जाती है । इन्हे मडई स्थल पर कोपा/अहीर नाच मन्डली एव वहा के ग्रामवासियो के साथ जिसे "पहुवा" कहा जाता है , आते है और एक निश्चित समय मे गुरुवा के बाये बाजू से तीन,पान्च या कोई सात फेरे लगाते है । तत्पश्चात सभी पहुवा अपने अपने खेमे मे एकत्र हो जाते है । इस तरह मूल रूप से मध्यप्रदेश के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में इस मडई ब्याहने की परम्परा आज भी जीवित है। जिन परिवारों में गरुवा एवं गान्गो स्थापित करने का चलन है। ऐसे परिवार अपनी गान्गो को किसी एक मडई में अवश्य ही ले जाते हैं। ताकि वर्ष में एक बार गुरुवा से गान्गो की भेंट हो जाये। इस तरह ग्यारस तक सभी गुरुवा गान्गो की आपस भेंट हो जाती है।
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