कितना प्रासंगिक है "समाज को पढे लिखे आरक्षण का लाभ उठाने वालों ने धोखा दिया ।"
डा0 अम्ेडकर ने संविधान में मूलनिवासियो के हित संरक्षण की नीव रखते समय यह भी विचार किया था कि मूलनिवासी वर्ग को राजनीति और सरकारी नौकरी में आरक्षण के बजाय शिक्षा और भूमि का आरक्षण दे दिया जाय तो समाज स्वावलंबी हो सकता है गुलामी से मुक्त हो सकता है । शायद उस समय उनका अंतर्मन बोल रहा होगा । तभी तो उन्होने अपनी भूल को बार बार दुहराते हुए कहते थे कि मुझे तथा समाज को पढे लिखे आरक्षण का लाभ उठाने वालों ने धोखा दिया । उनकी चिंता आज व्यवहार रूप में हमारे सामने दिखाई दे जाती है । आरक्षण के इस महत्वपूर्ण पहलू पर यदि विचार करें तो जिस मकसद के लिये आरक्षण की व्यवस्था दी गई थी अर्थात पढ लिखकर नौकरी पेशा करे जनप्रतिनिधि बने तथा समाज को अपने जैसा जीवन जीने के स्तर पर लायें । परन्तु उसका विपरीत प्रभाव पड रहा है । आज इसका लाभ लेने वालों की जमात दिखाई देती है परन्तु समाज का वह हिस्सा जिसने अपनी बची खुची खेती बाडी में श्रम और मेहनत करके इस आशा से पढाया लिखाया अधिकारी नेता बनाया कि वह समाज के मान सम्मान स्वाभिमान को बढायेगा समाज को विकसित समाज के स्तर तक पहुंचायेगा । लेकिन क्या हुआ आरक्षण का लाभ लेकर वह समाज को भूल गया । उसने अपने समाज को गांव में छोडकर अपना एक अलग पढे लिखों का समाज तैयार करके उसके बीच ही उठने बैठने लगा और समाज को अंधविश्वासी पिछडा है कहकर हीन भावना से देखने लगा । जिस मकसद और जिस उददेश्य से समाज ने उसे आगे जाने का रास्ता बनाया वह उस कर्तव्य को भूल गया क्या इसी का नाम आरक्षण है जरा सोचें यदि डाव अम्बेडकर अपनी पहली सोच को संविधान में रख देते तो षायद आज से बेहतर स्थिति होती । जमीन में अपना खून पसीना बहाकर यह समाज अपनी संतानों को पढाता लिखाता जिस तरह आज भी पढा लिखा रहा है । और स्वाभिमान से अधिकारी और नेता बनाता कारण कि उसका बेटा नौकरी पाने नेता बनने का आधार अपनी जमीन जायदाद को अपने समाज को मानता । आज की तरह एहसान फरामोश नहीं होता । इस बात पर किसी को दुख पहुंचा हो तो माफ करें । प्रस्तुतिःगुलजार सिंह मरकाम
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