"चाणक्य ने कहा था पराजित राष्ट तब तक पराजित नहीं होता जब तक उसकी संस्कृति पराजित नहीं होती !"
"हम और हमारे देष का मूलनिवासी आदिवासी आज भौतिक रूप से पराजित हो चुका है लेकिन संस्कृति आज भी जीवित है इसको बचाना होगा यही हमारी आजादी का कारण होगा ।"
{:गुलजार सिंह मरकाम}
एक मेरी तुच्छ बुद्धि की सोच है ए देश के समस्त आदिवासी समुदाय से संबंधित ओर स्वसंचालित पंजीकृतए अपंजीकृत सामाजिक संगठन के सगाजनों से कि हम सभी संगठन और लोग जो आदिवासी समुदाय के हित के लिये विभिन्न क्षेत्रों में समाज उत्थान के समग्र बिन्दुओं पर लगातार काम कर रहें हैं । बहुत खुसी की बात भी है । अशिक्षित पिछडे और आर्थिक रूप से कमजोर समाज का एक संगठन सारे देश में कार्य नहीं कर सकता । बहुत सारी कठिनाईयां हैं भाषायी अडचन भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों में विषमता आदि । परन्तु समस्या जब सभी आदिवासियों की समस्या एक सी है तो उसका निराकरण भी एक तरीके से सोचने विचारने से हो सकता है । इसलिये कि जब हम एक सोच एक विचार में चलने लगेंगे तब परिणाम भी एक तरह का ही आने वाला है । इसलिये सभी आदिवासी संगठनों का राष्टीय स्तर पर एक महासंघ हो जिसमें देश के जितने भी आदिवासी संगठनों के मुखिया हैं उसके मुख्य कार्यकारिणी के पदेन सदस्य हों । वहीं राष्टीय महासंघ की कार्यकारिणी समुदाय के लिये समस्या के निराकरण हेतु राष्टीय नीति निर्धारित करे । यह नीति निर्धारण राष्टीय स्तर की समस्या पर आधारित हो । बाकी क्षेत्रीय राज्य और जिलास्तरीय समस्याओं के लिये उस स्तर के संगठन अपने अपने कार्य करते रहें । किसी को किसी के काम में दखल न दिया जाय । जब भी कोई राष्टीय समस्या पर बहस या राष्टीय महासंघ का आव्हान हो तो एक साथ उस आव्हान पर आंदोलन छेडकर बहुत बडी क्रांति लाई जा सकती है । तब कोई राजनेता साथ चले न चले सामाजिक दबाव हमारी समस्याओं का निराकरण करने के लिये काफी है । जहां सामाजिक जडें मजबूत हुई वहीं समाज की राजनीति और राजनेता आपके पीछे पीछे दौडते नजर आयेंगे । तब उन्हें भी लगेगा कि देश के राजनीतिक दल जो आदिवासी नेतृत्व के साथ देश और प्रदेशों में संचालित हैं उन्हें भी इसी तरह आदिवासी समस्या के आधार पर आदिवासी नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों का राष्टीय स्तर पर गठबंधन बनाना पडेगा । अन्यथा समाज उन्हें किनारे कर देगा । यह मेरे निजी विचार हैं आवश्यक नहीं कि इससे सभी सहमत हों लेकिन आदिवासी की भाषा धर्म संस्कृति जल जंगल जमीन पर हमला तेज हो रहा है । चाणक्य नीति अपने चरम पर विराजमान है । इससे कैसे निपटा जा सकता है । मात्र सुझाव है ।
"हम और हमारे देष का मूलनिवासी आदिवासी आज भौतिक रूप से पराजित हो चुका है लेकिन संस्कृति आज भी जीवित है इसको बचाना होगा यही हमारी आजादी का कारण होगा ।"
{:गुलजार सिंह मरकाम}
एक मेरी तुच्छ बुद्धि की सोच है ए देश के समस्त आदिवासी समुदाय से संबंधित ओर स्वसंचालित पंजीकृतए अपंजीकृत सामाजिक संगठन के सगाजनों से कि हम सभी संगठन और लोग जो आदिवासी समुदाय के हित के लिये विभिन्न क्षेत्रों में समाज उत्थान के समग्र बिन्दुओं पर लगातार काम कर रहें हैं । बहुत खुसी की बात भी है । अशिक्षित पिछडे और आर्थिक रूप से कमजोर समाज का एक संगठन सारे देश में कार्य नहीं कर सकता । बहुत सारी कठिनाईयां हैं भाषायी अडचन भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों में विषमता आदि । परन्तु समस्या जब सभी आदिवासियों की समस्या एक सी है तो उसका निराकरण भी एक तरीके से सोचने विचारने से हो सकता है । इसलिये कि जब हम एक सोच एक विचार में चलने लगेंगे तब परिणाम भी एक तरह का ही आने वाला है । इसलिये सभी आदिवासी संगठनों का राष्टीय स्तर पर एक महासंघ हो जिसमें देश के जितने भी आदिवासी संगठनों के मुखिया हैं उसके मुख्य कार्यकारिणी के पदेन सदस्य हों । वहीं राष्टीय महासंघ की कार्यकारिणी समुदाय के लिये समस्या के निराकरण हेतु राष्टीय नीति निर्धारित करे । यह नीति निर्धारण राष्टीय स्तर की समस्या पर आधारित हो । बाकी क्षेत्रीय राज्य और जिलास्तरीय समस्याओं के लिये उस स्तर के संगठन अपने अपने कार्य करते रहें । किसी को किसी के काम में दखल न दिया जाय । जब भी कोई राष्टीय समस्या पर बहस या राष्टीय महासंघ का आव्हान हो तो एक साथ उस आव्हान पर आंदोलन छेडकर बहुत बडी क्रांति लाई जा सकती है । तब कोई राजनेता साथ चले न चले सामाजिक दबाव हमारी समस्याओं का निराकरण करने के लिये काफी है । जहां सामाजिक जडें मजबूत हुई वहीं समाज की राजनीति और राजनेता आपके पीछे पीछे दौडते नजर आयेंगे । तब उन्हें भी लगेगा कि देश के राजनीतिक दल जो आदिवासी नेतृत्व के साथ देश और प्रदेशों में संचालित हैं उन्हें भी इसी तरह आदिवासी समस्या के आधार पर आदिवासी नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों का राष्टीय स्तर पर गठबंधन बनाना पडेगा । अन्यथा समाज उन्हें किनारे कर देगा । यह मेरे निजी विचार हैं आवश्यक नहीं कि इससे सभी सहमत हों लेकिन आदिवासी की भाषा धर्म संस्कृति जल जंगल जमीन पर हमला तेज हो रहा है । चाणक्य नीति अपने चरम पर विराजमान है । इससे कैसे निपटा जा सकता है । मात्र सुझाव है ।
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