part-1
आदिवासियों के धर्मकोड पर राष्टीय स्तर पर सोच बन रही है जनसंख्या के मामले में सभी प्रमुख आदिवासी जनजातियां इतना तो समझ चुकि हैं कि जब हम हिन्दु नहीं ?, वर्ण व्यवस्था में भी नहीं ? तब हम क्या हैं ? क्या हम इसी तरह विभिन्न धर्मों ,पंथों के द्वारा संख्या रूपी विशाल शरीर को नुचवा, नुचवाकर बोटियों में बंटकर कमजोर होते रहेगें । धर्मकोड के सेमिनार में एक साथी ने इशारा किया था कि आज की हमारी स्थिति के लिये हम खुद जिम्मेदार हैं । संविधान निर्माण के समय जब धर्म कोड की बारी आयी तब सभी समुदायों ने अपना अपना पक्ष रखकर अपने अपने धर्म को कोड के रूप में जगह दिलाने में सफल हुए । दूसरी ओर संविधान सभा के प्रमुख सदस्य जयपाल मुण्डा सहित चार और आदिवासी सदस्य संविधान सभा में मौजूद थे, तब वे कैसे सफल नहीं हो पाये । कहीं एैसा तो नहीं कि जयपाल मुण्डा भविष्य को ध्यान में रखकर आदिवासी नाम पर जोर लगाते रहे और बाकी सदस्यों जो अलग अलग जाति समुदाय के थे उन्होने उनका साथ नहीं दिया । अन्यथा एक समुदाय एक धर्म, हो जाने से धर्म के बाहर जाने वाले व्यक्ति को शासकीय सुविधा से वंचित होना पडता । तब वह अन्य धर्म में जाने की सोच भी नहीं सकता था । अनुसूचित जाति वर्ग के लिये धर्म परिर्वतन किया जाना शासकीय सुविधा से वंचित होना लिखा गया ,लेकिन जनजातियों के लिये कहीं भी जाने के लिये छूट दे दी गई परिणामस्वरूप जनजातीय समुदाय एक संस्कृति एक प्रवृति एक तरह की पूजा और अस्था रखने के बाद भी धर्म कोड प्राप्त नहीं कर सका और अपने बिखराव और मांस के टुकडे की तरह बंटता गया ! सबकी गिद्ध दृष्टि इसी समुदाय पर रही । और नोच नोच कर खा गये और खाते जा रहे हैं । अब केवल अस्थि पंजर शेष है जिस पर मांस् चढाया जा सकता है, उसे जिंदा किया जा सकता है, पर उस एैैतिहासिक भूल को सुधारकर ही संभव है ,जहां से हमारे टुकडे टुकडे किये जाने का षडयंत्र रचा गया था । इसलिये अब समुदाय के धर्मकोड का मामला एक बार पुनः अपने लक्ष्य की ओर बढ रहा है, तब हमें जातियों की मानसिकता से उपर उठकर समुदाय की मानसिकता में आना होगा । ध्यान रहे कहीं हमसे भी एैतिहासिक भूल ना हो जाये अन्यथा आने वाली पीढी हमारी नासमझी पर कोसता रहे ।- gulzar singh markam
part-2
जनजातियों को प्रथक धर्म कोड के साथ साथ प्रथक रूढिजन्य विधि संहिता तैयार करना होगा ।
आदिवासी जनजातियां जब हिन्दू नहीं हैं वे अपनी रूढी परंपराओं से शासित होती हें तब उनका अपना लिखित पर्सनल ला होना चाहिये ताकि जनजातियों से संबंधित किसी भी न्यायालीन प्रक्रिया में उसे सामने रखकर न्यायधीश अपना निर्णय सुना सके । वैसे पांचवी अनुसूचि और पेसा कानून में इस बात का उल्लेख किया गया है लेकिन जनजातीय समुदाय निचले स्तर पर सामाजिक पंचायतो के माध्यम से स्वयं निर्णय कर लेता हे । यह तो सामान्य बात है एैसे निर्णय तो गैर जनजातियां भी कर लेती हें । परन्तु मामला आगे बढता है तब हमें कोर्ट पर भी जाना पडता है तब ना तो उस कोर्ट के न्यायधीश को आपकी परंपराओं को ज्ञान है ना ही वकील को । अंतत सारे फैसले सामान्य कानून से हो जाते हैं । हम ठगे से रह जाते हैं कोई जागरूक व्यक्ति मिल जाये तो ठीक अन्यथा छोटी सी बात के लिये वर्षों कोर्ट के चक्कर लगाते रहो । इसलिये आरंभिक तौर पर प्रत्येक राज्य में पाई जाने वाली जनजातियों के समर्थन ओर सहयोग से अपने अपने राज्य का जनजातीय संहिता तैयार की जाय जिसे जनजातीय क्षेत्र की रूढी पंचायतों द्वारा अनुमोदन कराया जाय तत्पश्चात उसे विधिवत जिले के कलेक्टर ओर राज्यपाल तथा न्यााधीशों को प्रेषित की जाय अधिक प्रभावशाली बनाने के लिये प्रत्येक राज्य के जनजातीय मंत्रणा परिषद को भी उसकी प्रति सोंपी जाय ताकि वे उसका अनुमोदन राज्यपाल से करा सकें । अधिसूचना जारी हो सके । ज्ञात हो कि 1992 में मध्यप्रदेश में इस तरह की पहल की गइ्र थी राज्य सरकार ने हाइ्रकोर्ट के निवृतमान जज की अध्यक्षता में एक टीम गठित की गइ्र थी जिसके सर्वे की जिम्मेदारी आदिवासी अनुसंधान टी0आर0आइ्र0 मध्यप्रदेश ने करके, गठित कमेटी को संहिताकरण के लिये सोंपी गई तत्पश्चात यह विधि संहिता प्रदेश की जनजातीय सलाहकार समिति के पास अनुमोदन के लिये भेजी गइ्र थी समिति ने सभी बीस सदस्यों को एक एक प्रति सोंपकर उसमें शंसोधन ओर सुझाव आमंत्रित किये पर समिति के किसी सदस्य ने अपना संझाव प्रस्तुत किया ना ही उस पर काम आगे बढ सका उस समिति में तथाकथित बडे बड़े समाज के जनप्रतिनिधि थे ,पर किसी ने ध्यान नहीं दिया । किसी तरह इस प्रस्तावित संहिता की एक प्रति मेरे हाथ लगी । तब मैंने इसे केवल माडल के रूप में कि इस तरह हमारी विधि संहिता तैयार की जा सकती है । इसका प्रकाशन कर एक एक प्रति प्रत्येक राज्य के महत्वपूर्ण संगठनो को दिया ताकि इस पर विचार किया जा सके । पर यह पहल आगे नहीं बढ पाया । चूंकि जब एक धर्म कोड की बात सारे देश में सेमिनारों मीटिंगों के माध्यम से चल रही है । पांचवी अनुसूचि के तहत स्वयं शाषित होने की बात चल रही है तब हमें इस संहिता से मार्गदनर्शन लेकर अपने स्तर पर अपने राज्य में जनजातीय विधि संहिता का निर्माण करें । इसे प्राप्त करने के लिये संपर्क करें डा0 लीला भलावी प्राचार्य शासकीय चंद्रविजय महाविदयालय डिन्डौरी म0प्र0 संपर्क.9926334177 या हरि सिंह मरावी.9165511750 डिन्डौरी
आदिवासियों के धर्मकोड पर राष्टीय स्तर पर सोच बन रही है जनसंख्या के मामले में सभी प्रमुख आदिवासी जनजातियां इतना तो समझ चुकि हैं कि जब हम हिन्दु नहीं ?, वर्ण व्यवस्था में भी नहीं ? तब हम क्या हैं ? क्या हम इसी तरह विभिन्न धर्मों ,पंथों के द्वारा संख्या रूपी विशाल शरीर को नुचवा, नुचवाकर बोटियों में बंटकर कमजोर होते रहेगें । धर्मकोड के सेमिनार में एक साथी ने इशारा किया था कि आज की हमारी स्थिति के लिये हम खुद जिम्मेदार हैं । संविधान निर्माण के समय जब धर्म कोड की बारी आयी तब सभी समुदायों ने अपना अपना पक्ष रखकर अपने अपने धर्म को कोड के रूप में जगह दिलाने में सफल हुए । दूसरी ओर संविधान सभा के प्रमुख सदस्य जयपाल मुण्डा सहित चार और आदिवासी सदस्य संविधान सभा में मौजूद थे, तब वे कैसे सफल नहीं हो पाये । कहीं एैसा तो नहीं कि जयपाल मुण्डा भविष्य को ध्यान में रखकर आदिवासी नाम पर जोर लगाते रहे और बाकी सदस्यों जो अलग अलग जाति समुदाय के थे उन्होने उनका साथ नहीं दिया । अन्यथा एक समुदाय एक धर्म, हो जाने से धर्म के बाहर जाने वाले व्यक्ति को शासकीय सुविधा से वंचित होना पडता । तब वह अन्य धर्म में जाने की सोच भी नहीं सकता था । अनुसूचित जाति वर्ग के लिये धर्म परिर्वतन किया जाना शासकीय सुविधा से वंचित होना लिखा गया ,लेकिन जनजातियों के लिये कहीं भी जाने के लिये छूट दे दी गई परिणामस्वरूप जनजातीय समुदाय एक संस्कृति एक प्रवृति एक तरह की पूजा और अस्था रखने के बाद भी धर्म कोड प्राप्त नहीं कर सका और अपने बिखराव और मांस के टुकडे की तरह बंटता गया ! सबकी गिद्ध दृष्टि इसी समुदाय पर रही । और नोच नोच कर खा गये और खाते जा रहे हैं । अब केवल अस्थि पंजर शेष है जिस पर मांस् चढाया जा सकता है, उसे जिंदा किया जा सकता है, पर उस एैैतिहासिक भूल को सुधारकर ही संभव है ,जहां से हमारे टुकडे टुकडे किये जाने का षडयंत्र रचा गया था । इसलिये अब समुदाय के धर्मकोड का मामला एक बार पुनः अपने लक्ष्य की ओर बढ रहा है, तब हमें जातियों की मानसिकता से उपर उठकर समुदाय की मानसिकता में आना होगा । ध्यान रहे कहीं हमसे भी एैतिहासिक भूल ना हो जाये अन्यथा आने वाली पीढी हमारी नासमझी पर कोसता रहे ।- gulzar singh markam
part-2
जनजातियों को प्रथक धर्म कोड के साथ साथ प्रथक रूढिजन्य विधि संहिता तैयार करना होगा ।
आदिवासी जनजातियां जब हिन्दू नहीं हैं वे अपनी रूढी परंपराओं से शासित होती हें तब उनका अपना लिखित पर्सनल ला होना चाहिये ताकि जनजातियों से संबंधित किसी भी न्यायालीन प्रक्रिया में उसे सामने रखकर न्यायधीश अपना निर्णय सुना सके । वैसे पांचवी अनुसूचि और पेसा कानून में इस बात का उल्लेख किया गया है लेकिन जनजातीय समुदाय निचले स्तर पर सामाजिक पंचायतो के माध्यम से स्वयं निर्णय कर लेता हे । यह तो सामान्य बात है एैसे निर्णय तो गैर जनजातियां भी कर लेती हें । परन्तु मामला आगे बढता है तब हमें कोर्ट पर भी जाना पडता है तब ना तो उस कोर्ट के न्यायधीश को आपकी परंपराओं को ज्ञान है ना ही वकील को । अंतत सारे फैसले सामान्य कानून से हो जाते हैं । हम ठगे से रह जाते हैं कोई जागरूक व्यक्ति मिल जाये तो ठीक अन्यथा छोटी सी बात के लिये वर्षों कोर्ट के चक्कर लगाते रहो । इसलिये आरंभिक तौर पर प्रत्येक राज्य में पाई जाने वाली जनजातियों के समर्थन ओर सहयोग से अपने अपने राज्य का जनजातीय संहिता तैयार की जाय जिसे जनजातीय क्षेत्र की रूढी पंचायतों द्वारा अनुमोदन कराया जाय तत्पश्चात उसे विधिवत जिले के कलेक्टर ओर राज्यपाल तथा न्यााधीशों को प्रेषित की जाय अधिक प्रभावशाली बनाने के लिये प्रत्येक राज्य के जनजातीय मंत्रणा परिषद को भी उसकी प्रति सोंपी जाय ताकि वे उसका अनुमोदन राज्यपाल से करा सकें । अधिसूचना जारी हो सके । ज्ञात हो कि 1992 में मध्यप्रदेश में इस तरह की पहल की गइ्र थी राज्य सरकार ने हाइ्रकोर्ट के निवृतमान जज की अध्यक्षता में एक टीम गठित की गइ्र थी जिसके सर्वे की जिम्मेदारी आदिवासी अनुसंधान टी0आर0आइ्र0 मध्यप्रदेश ने करके, गठित कमेटी को संहिताकरण के लिये सोंपी गई तत्पश्चात यह विधि संहिता प्रदेश की जनजातीय सलाहकार समिति के पास अनुमोदन के लिये भेजी गइ्र थी समिति ने सभी बीस सदस्यों को एक एक प्रति सोंपकर उसमें शंसोधन ओर सुझाव आमंत्रित किये पर समिति के किसी सदस्य ने अपना संझाव प्रस्तुत किया ना ही उस पर काम आगे बढ सका उस समिति में तथाकथित बडे बड़े समाज के जनप्रतिनिधि थे ,पर किसी ने ध्यान नहीं दिया । किसी तरह इस प्रस्तावित संहिता की एक प्रति मेरे हाथ लगी । तब मैंने इसे केवल माडल के रूप में कि इस तरह हमारी विधि संहिता तैयार की जा सकती है । इसका प्रकाशन कर एक एक प्रति प्रत्येक राज्य के महत्वपूर्ण संगठनो को दिया ताकि इस पर विचार किया जा सके । पर यह पहल आगे नहीं बढ पाया । चूंकि जब एक धर्म कोड की बात सारे देश में सेमिनारों मीटिंगों के माध्यम से चल रही है । पांचवी अनुसूचि के तहत स्वयं शाषित होने की बात चल रही है तब हमें इस संहिता से मार्गदनर्शन लेकर अपने स्तर पर अपने राज्य में जनजातीय विधि संहिता का निर्माण करें । इसे प्राप्त करने के लिये संपर्क करें डा0 लीला भलावी प्राचार्य शासकीय चंद्रविजय महाविदयालय डिन्डौरी म0प्र0 संपर्क.9926334177 या हरि सिंह मरावी.9165511750 डिन्डौरी
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