सय अरता पन्डुम सेरता पन्डुम
सय: सय या सिक शब्द मूलतः गोंडी भाषा का है इसका मतलब बढोत्तरी या अतिरिक्त उपज से है ।
अरता: अरता शब्द गिरने से है जिसका उपज आने से आशय है ।
हिन्दी भाषिक गोंडी क्षेत्रों में इसे सेरता छत्तीसगढी भाषिक क्षेत्रों की गोंडी में हेरता दक्षिण बस्तर में बहुत से शब्दों में स का उच्चारण ह से किया जाता तथा छत्तीसगढी हिन्दी में अपभ्रश होकर छेरछेरा भी कहा जाता है । सेरता पन्डुम मूलतः कृषि तथा कृषक की धान, कोंदों ,कुटकी ,मक्का आदि फसल आने के बाद किसान ने किस फसल की खेती की है और उसे कितना अतिरिक्त लाभ हुआ जिसकी खुसी में बच्चों को स्वेच्छा से कितना देता है । तथा अन्नमदेव जो महान दानवीर था को याद करने के लिये कि वह कितना बडा दानी था । किसान सामूहिक बाल भोज में अपने योगदान को दिखता है । बच्चे जब उसके आंगन में जाते हैं त बवह अपने खेतों में हुई फसल का ब्योरा बताता है कि इस साल तो अच्छा ही हुआ है या इस साल मेरी फसल मार खा गई है इसलिये मैं यह दे सकता हूं यह नहीं दे सकता आदि । प्रमाण रूप में उस टोली में उस घर का बच्चा भी रहता है वह कहता है कि सब कुछ ठीक हुआ है तब बच्चे अपने हाथों में लकडी से बना नोकदार लकडी के औजार से यह कहते हैं कि सय अरता सय अरता अर्थात तुम्हारे घर में अतिरिक्त आय हुआ हैं आप हम बच्चों को सहयोग करो । अन्यथा हम तुम्हारी कोठी को खोद कर अनाज ले लेंगे । और प्रतीक स्वरूप आंगन देहरी अंततः अनाज कोठी को खोदने का स्वांग करते हैं । दक्षिण भारत की किवदती के अनुशार अन्नमदेव बलि की मृत्यु उपरांत उनके मृत्यु संस्कार भोज के रूप सेरता का प्रचलन हुआ है । जो गोंडवाना की कृशि आघारित सहयोग और साहकार्य व्यवस्था का प्रतीक है । पूर्व काल में एकत्र किये गये भोज्य जो अनाज की स्थिती देखकर कुटाई पिसाई करके पकाने योग्य बनाया जाता था इसके बाद उसे पकाकर पूजा पाठ करके सामूहिक भोज के रूप् में गृहण करने की परंपरा रही है । परन्तु वर्तमान में जहां भी यह प्रचलन में है कुटा पिसा तैयार खादय लेकर इस परंपरा को जीवित रखा गया है । जो भी हो इस पंडुम से हमें कृषि उपज का ज्ञान, दान, साहकार्य और पूर्वजों को याद किये जाने की प्रेरणा प्राप्त होती है ।: गुलजार सिंह मरकाम
सय: सय या सिक शब्द मूलतः गोंडी भाषा का है इसका मतलब बढोत्तरी या अतिरिक्त उपज से है ।
अरता: अरता शब्द गिरने से है जिसका उपज आने से आशय है ।
हिन्दी भाषिक गोंडी क्षेत्रों में इसे सेरता छत्तीसगढी भाषिक क्षेत्रों की गोंडी में हेरता दक्षिण बस्तर में बहुत से शब्दों में स का उच्चारण ह से किया जाता तथा छत्तीसगढी हिन्दी में अपभ्रश होकर छेरछेरा भी कहा जाता है । सेरता पन्डुम मूलतः कृषि तथा कृषक की धान, कोंदों ,कुटकी ,मक्का आदि फसल आने के बाद किसान ने किस फसल की खेती की है और उसे कितना अतिरिक्त लाभ हुआ जिसकी खुसी में बच्चों को स्वेच्छा से कितना देता है । तथा अन्नमदेव जो महान दानवीर था को याद करने के लिये कि वह कितना बडा दानी था । किसान सामूहिक बाल भोज में अपने योगदान को दिखता है । बच्चे जब उसके आंगन में जाते हैं त बवह अपने खेतों में हुई फसल का ब्योरा बताता है कि इस साल तो अच्छा ही हुआ है या इस साल मेरी फसल मार खा गई है इसलिये मैं यह दे सकता हूं यह नहीं दे सकता आदि । प्रमाण रूप में उस टोली में उस घर का बच्चा भी रहता है वह कहता है कि सब कुछ ठीक हुआ है तब बच्चे अपने हाथों में लकडी से बना नोकदार लकडी के औजार से यह कहते हैं कि सय अरता सय अरता अर्थात तुम्हारे घर में अतिरिक्त आय हुआ हैं आप हम बच्चों को सहयोग करो । अन्यथा हम तुम्हारी कोठी को खोद कर अनाज ले लेंगे । और प्रतीक स्वरूप आंगन देहरी अंततः अनाज कोठी को खोदने का स्वांग करते हैं । दक्षिण भारत की किवदती के अनुशार अन्नमदेव बलि की मृत्यु उपरांत उनके मृत्यु संस्कार भोज के रूप सेरता का प्रचलन हुआ है । जो गोंडवाना की कृशि आघारित सहयोग और साहकार्य व्यवस्था का प्रतीक है । पूर्व काल में एकत्र किये गये भोज्य जो अनाज की स्थिती देखकर कुटाई पिसाई करके पकाने योग्य बनाया जाता था इसके बाद उसे पकाकर पूजा पाठ करके सामूहिक भोज के रूप् में गृहण करने की परंपरा रही है । परन्तु वर्तमान में जहां भी यह प्रचलन में है कुटा पिसा तैयार खादय लेकर इस परंपरा को जीवित रखा गया है । जो भी हो इस पंडुम से हमें कृषि उपज का ज्ञान, दान, साहकार्य और पूर्वजों को याद किये जाने की प्रेरणा प्राप्त होती है ।: गुलजार सिंह मरकाम
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