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Showing posts from 2024

"प्रकृृतिवादी दर्शन और संतुलित जीवन"

"प्रकृृतिवादी दर्शन और संतुलित जीवन" वामपंथ (बांयी बुद्धि) दक्षिण पंथी(दांयी बुद्धि)  एक कट्टर पंथ और एक नास्तिक/वैज्ञानिक इन दोनों में शांति नहीं ना न्याय नहीं है एक वर्चस्ववादी तो एक अविष्कारक इस रास्ते में स्थिरता नहीं ! "प्रकृृतिवादी दर्शन" एकमात्र रास्ता है जिसमें स्थिरता है सब कुछ वर्तमान में है सबके सामने है। यही रास्ता सृजनकर्ता और संहारक भी है, इंसान को इसी मार्ग से संतुलित जीवन प्राप्त हो सकता है। संतुलित व्यवस्था का मार्ग अतिवादी और अपेक्षावादी नहीं हो सकता! धैर्य वा संतोषप्रद होता है। हमें तय करना है,कि मानव जीवन कैसा हो। - गुलजार सिंह मरकाम  (राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन)

आदिवासी लिंग नहीं पिंड पर जल चढ़ाता है।

 "ये बेहूदगी है" जिस लिंग को अपनी योनि में प्रवेश कराकर अपने पेट में अपने रज को मिलाकर पिंड का निर्माण करती है,वही सबसे बड़ी शक्ति है। अतः उस पूर्ण शक्ति के महत्व को आदिवासी समझता था इसलिए उसने अपने देवालय में शक्ति का प्रतीक के रूप में कोई गोल पत्थर रख देता है। मातृशक्ति सम्मान के कारण लिंग और योनि के खुले प्रदर्शन को सही नहीं मानता।                                 वहीं मनुवादी विचारधारा के लोग जोकि पुरुष प्रधान व्यवस्था के पक्षधर हैं  लिंग पूजा को महत्व देते हुए केवल एकपक्षीय शक्ति को महत्वपूर्ण मानते हैं। लिंग यानि पुरुष का जननांग जिसे श्रद्धा के नाम पर चूमते चाटते और घी दूध से उसकी मालिश करते हैं। कायदे से तो इस विचारधारा के लोग अपनी महिलाओं को जीवंत लिंग की सेवा में रत होने का संदेश देना चाहिए आज के समय में महिला को खुलेआम ऐसा करना अपराध की श्रेणी में माना जा सकता है। इसलिए अपनी भड़ास निकालने के लिए महिलाओं के साथ साथ स्वयं भी ऐसा कृत्य करने से बाज नहीं आते, पुरुषों का लिंग की पूजा अर्चना के प...

"नफरत का बीज और ऐतिहासिक संदर्भ"

(रानी दुर्गावती की जन्मजयन्ति" के उपलक्ष्य में विशेष आलेख) गोंडवाना की वीरांगना रानी दुर्गावती के शौर्य और वीरता को मुगलों के प्रति गोंडवाना के लोगों का नफरत बढ़ाने को लेकर ऐतिहासिक संदर्भ तैयार किया गया, जिसमें एक ओर उसे राजपूत की बेटी बताकर गोंडवाना की वीरांगनाओं के शौर्य और पराक्रम को कम आंकने का प्रयास किया जबकि रानी दुर्गावती महोबा राज्य जहां भूमिया आदिवासी राजा कीरत सिंह चंदेल का राज था जिनकी बेटी रानी दुर्गावती थी , परन्तु इतिहास में उसे दिग्भ्रमित करते हुए उनका मुस्लिम शासकों से संघर्ष को अति प्रचारित किया ताकि गोंडवाना के लोग हिंदू मुस्लिम के बीच पैदा किये जाने वाले नफरती षड्यंत्र के जाल में फंसकर कथित राष्ट्रवादियों का समय-समय पर दंगा फसाद में साथ दे सकें।  जबकि भारत की स्वतंत्रता के ऐतिहासिक संदर्भ में क्रांतिवीर राजा शंकर शाह एवं पुत्र कुंवर रघुनाथ शाह को। प्रथमतया लाया जाना आवश्यक था ताकि युवा पीढ़ी को देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में उनके वंशजों के योगदान और प्रतिफल स्वरूप भारत में अपनी हकदारी और हिस्सेदारी को सीना ठोककर हासिल करने का जज्बा पैदा होता।    ...

"क्या हम वास्तव में संगीत के प्रथम अविष्कारक हैं" (तथ्यपरक शोध की आवश्यकता है)

वैसे तो गोंडवाना आंदोलन के चलते हमारे लोग अपने आपको संगीत विधा के प्रथम अविष्कारक के रूप में बखान करते हुए नहीं थकते ! कहीं अठारह वाद्यों के जानकार और महान संगीतज्ञ और पारी व्यवस्था के स्थापनकर्ता "पहांदी पारीकुपार लिंगों को संगीत वाद्ययंत्रों का अविष्कारक माना जाता है, वहीं महान किंगरी वादक "हीरासुका पाटालीर"  को संगीत गुरु की उपाधि से विभूषित किया जाता है। इस पर तथ्यपरक शोध कर निष्कर्ष पर आना चाहिए ताकि हम विश्व में संगीत के प्रथम अविष्कारक के रूप में अपने पुरखों को स्थापित कर सकें।              इस विषय पर मैंने गोंडवाना के "स्वरलहरी" के रूप में स्थापित माननीय प्रेमसशाह मरावी जी से काफी समय से आग्रह किया हुआ है कि इस विषय पर शोध करते हुए एक लेखन प्रकाशित करें ताकि हमारा समुदाय विश्व पटल पर संगीत सरगम के प्रथम अविष्कारक के रूप में विख्यात हो सके। मुझे लगता है कि माननीय प्रेम शाह मरावी जी की व्यस्तता ने इस ओर इनका ध्यान आकर्षित नहीं होने दिया हो, फिर भी मुझे लगता है कि यह काम वे जल्द शुरू करें। हालांकि संगीत के इस शोध के लिए मैंने मैंने कुछ तथ्यपर...

"भाषा के उत्थान में लिपि भी आवश्यक है।"

गोंडी भाषा का उत्थान हो यह सोच भारत देश की आजादी के पूर्व १९३०,३१ से ही अखिल भारतीय गोंडवाना महासभा के माध्यम से आव्हान और समय समय पर प्रस्ताव पारित किए जाते रहे हैं, भाषा के महत्व की समझ की कमी या अपेक्षित प्रचार प्रसार की कमी या आजादी के बाद गोंडी भाषा भाषी क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों की उदासीनता ने इस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाने में सफल नहीं हो सके।                           समय चक्र चलता गया भाषा उत्थान की सोच रखने वाले कुछ प्रबुद्ध वर्ग लगातार कोशिश में लगे रहे, परिणामस्वरूप भाषा का यह आंदोलन लगातार जारी है, गोंडी भाषा की समृद्धि बिना लिपि के अधूरी ही थी , गोंडी भाषा उत्थान के आरंभिक कार्य में लगे कुछ विद्वान भाषा को देवनागरी लिपि में लिखकर आमजनता तक पहुंचाने का प्रयास करते रहे जिसमें मांझी सरकार लिखित "माझी सरकार उचाव" नामक पुस्तक प्रसिद्ध है। रंगेल सिंह मंगेली सिंह भलावी जी ने भी "पुनेम ता सार" पुस्तक में देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया है। "गोंडवाना सगा" पत्रिका जो अब गोंडवाना दर्शन के नाम ...

"भारत के मूलनिवासी कुछ तो बदलो"

 "भारत के मूलनिवासी कुछ तो बदलो" देश के वर्तमान हालात कैसे हैं किसी से छिपी नहीं है, बेरोजगारी, भ्रष्टाचारी हर वर्ग पर अन्याय अत्याचार, राजनीति में नैतिकता का पतन ,सत्ता का दुरूपयोग, ईडी सीबीआई जैसी एजेंसियों से भय पैदा करना, सरकारी संस्थाओं को लगातार कुछ निजी हाथों में बेचने, बड़े उद्योगपतियों के अरबों के कर्ज माफ करना, बैंक लूटकर भागने वाले चोरों को पूरा संरक्षण देना जैसी घटनाएं सबके सामने घटित हो रही हैं, किसानों के साथ दुर्व्यवहार जगजाहिर है। फिर भी सरकार अपनी कालर ऊंचा करके फिर से चुनाव जीतने का बिगुल बजा रही है। भारत का मतदाता इनके तामझाम और प्रचार तंत्र के झांसे में आकर सबकुछ भूलकर इन्हें ही 2 किलो फ्री राशन के लोभ में सब दुखदर्द भूल रहा है। क्या इससे भारत का भविष्य स्वर्णिम हो पायेगा कभी नहीं? भारत से इस चोर कंपनी का डेरा समाप्त करना होगा, भारत के भविष्य को अपने हाथों संवारना पड़ेगा।  - गुलजार सिंह मरकाम  राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन

"लोभ लालच और समाज"

 "लोभ लालच और समाज" आरक्षित वर्ग के गुलाम जनप्रतिनिधि टिकट और मंत्री पद पाने के लिए समुदाय के हित दरकिनार कर देते हैं।             वहीं आरक्षित वर्ग के ब्यूक्रेट अधिकारी कर्मचारी पद और प्रमोशन पाने के लिए अपनी सामुदायिक जिम्मेदारी के प्रति उदासीन हो जाते हैं। - गुलजार सिंह मरकाम  राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन

ज्यूडिशियल और नान ज्यूडिशियल"

 ज्यूडिशियल और नान ज्यूडिशियल" ज्यूडिशियल और नान ज्यूडिशियल पर बात करने वाले आदिवासी मूलनिवासी केवल चर्चा में नान ज्यूडिशियल हैं, व्यवहार में ज्यूडिशियल व्यवस्था को गले गले तक मानते हैं, ऐसी टीमें आत्ममुग्धता में ही जीती हैं, बुद्धि विवेक विज्ञान संविधान के ऊपर अपने आप को मानती हैं। ऐसे मित्रों से मेरी विनम्र अपील है कि, विचार और व्यवहार में समानता लायें। मेरे विचारों से किसी को दुख पहुंचा हो तो क्षमा चाहता हूं। मेरा मानना है.....  "अपनी भाषा धर्म संस्कृति परंपरा को पकड़कर रखो, जकड़ कर रखो लेकिन वर्तमान में जियो"  - गुलजार सिंह मरकाम राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन 

कांग्रेस ही दोषी है।

 "कांग्रेस ने ही अतिवादी राष्ट्र की नींव रखी थी।" वर्तमान भारतीय राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों का ल्हास हो रहा है, लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ न्याय पालिका, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और मीडिया यदि चारण की भूमिका में दिखाई दे रहे हैं। इसका जिम्मेदार भी कांग्रेस ही है। धार्मिक उन्माद के माध्यम से आर एस एस के  तानाशाही विचारधारा की नींव रखवाने वाले भी इन्हीं के पुरोधा रहे हैं।                             भारत का संविधान राष्ट्र को समर्पित करते हुए डा.भीमराव अंबेडकर जी ने कहा था कि "किसी देश का संविधान कितना ही अच्छा हो  यदि उसके चलाने वाले अच्छे नहीं होंगे तो वह संविधान अच्छा परिणाम नहीं दे सकता, वहीं किसी देश का संविधान कितना भी खराब हो यदि उसके चलाने वाले अच्छे होंगे तो खराब संविधान भी अच्छा परिणाम दे सकता है।"  कहने का मतलब स्पष्ट है कि संविधान के माध्यम से स्वतंत्र भारत का संचालन जिन हाथों में आया इसके कर्ताधर्ता भी आर एस एस के छद्म कांग्रेसी नेता रहे हैं। जिन्होंने शनै शनै आज की परिस्थितियों ...

हम कहां हैं

 "हम कहां हैं " विकास के नाम पर आधुनिक समाज ने क्या क्या मील के पत्थर गढाये है, क्या आरंभिक मानव के गढ़े गए नींव से कुछ अलग आविष्कार किये हैं या आरंभिक मानव के अविष्कार को पंख लागाकर समय और दूरी को कम कर दिया है। आखिर नये इंसान ने जीवन के बहुआयामी विकास क्रम में, संस्कार संस्कृति शिक्षा, स्वास्थ्य, संसाधन में नया कुछ नहीं कर सका है, बल्कि इंसान के जीवन को और कठिन कर खतरे में डाल दिया है।                        उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो आरंभिक कृषि संसाधन हल बैल जो आज भी इतना ही प्रासंगिक है जितना आज है। जिसकी पहुंच जनसामान्य तक रही है जिसे आधुनिक समय में जनसामान्य की पहुंच से दूर करते हुए कुछ लोगों के इर्दगिर्द कर दिया, अर्थात विकास के नाम पर पूंजीवादी व्यवस्था की नींव रख दी , यात्रा आवागमन घोड़ा, घोड़ागाड़ी बैलगाड़ी नाव आदि के आरंभिक मानव का अविष्कार जो जनसाधारण की पहुंच में रहा है,आज भी है, परन्तु पूंजीवादी विकास क्रम ने इसमें मशीन लगाकर वायुयान , चारपहिया वाहन जलपोत आदि लाकर समय और दूरी को तो कम कर दिया लेकिन इंसान ...