''पुरखों का मार्गदर्षन ही हमारा आधार हो ।''
व्यवहार के बिना तत्वज्ञान बांझ औरत के समान है ।
किसी समाज के उत्थान के लिये समाज के आधार तत्व भाशा धर्म संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान होता है । जो उस समाज का आत्मविष्वास आत्मबल बढाता है । हमारे महापुरूशों को ज्ञात था कि समाज के आधार तत्वों का सामाजीकरण कर देने से इसे कभी भी नहीं मिटाया जा सकता । जो आज हमें अपने महापुरूशों की बात कटुसत्य प्रमाणित हो रही है। हमारे महापुरूशों को पूर्वाभाश था कि आने वाली सन्तानों को क्या कुछ नहीं झेलना पडेगा । सिंधुघाटी में षंबर के सैकडों किले ध्वस्त कर दिये गये । सिंधु नदी पर बने विषाल बांध जिसके प्रमुख बाणासुर थे को मारकर बांध फोडकर दिया जिसके कारण सिंधुधाटी के नीचे विषाल नगर मलवे में दब गये । हमारी कृति को नश्ट कर दिया गया । मध्यकाल में हमारे राजाओं के किले महलों को नश्ट कर उनकी बनावट बिगाड दी गई ताकि आने वाली संतानों को समझ में ना आ सके । तक्षषिला और नालंदा के हमारी साहित्य कृति को जलाकर राख कर दिया गया । इन सब बातों के होते हुए भी आज मूलसंस्कृति आधार तत्व भाशा धर्म संस्कृति जीवित है तो केवल हमारे पुरखें की दूरदर्षी सोच है । इन्होंने मूलतत्वों का सामाजीकरण करके समाज के संस्कारों में ढाल दिया जो सरल और सहज स्वीकार्य हो सकते थे । इसलिये मेरा मानना है कि हम चूकि आज के दौर में इतने हल्के हो चुके हैं मेहनत से डरते हैं इसलिये हर काम को षार्टकट करने लगे हैं । हमारी मूल परंपराओं भाशा धर्म संस्कृति साहित्य इतिहास पर लगातार कार्य कर रहे हैं लेकिन उसे संस्कारो के रूप में स्थापित करने में कमी कर रहे हैं । हमारा काम लेखन के साथ साथ व्यवहारिक भी होते जाना चाहिये । गोंडवाना आन्दोलन के जरिये कुछ कार्य होता दिखाई दे रहा है । यथा धर्म का वैचारिक चिंतन समाज के सामने आया तो उसका समाज में व्यवहारीकरण प्रारंभ हो गया । समाज व्यवस्था में रिस्तों नातों परंपराओं की पुनस्र्थापना जारी है । सभ्यता के नाम पर लोग अपने देवालय निर्माण की डिजायनिंग अपनी सभ्यता के अनुरूप करने लगे हैं । साहित्य के क्षेत्र में थोडा बहुत काम हो रहा है । सब सही है पुरखों की दूरदर्षिता का ख्याल नहीं रखे तो कल पुनः हमारा साहित्य जल सकता है हमारी देवालय नश्ट किये जा सकते हैं । नश्ट होने वाली चीजें नश्ट हो सकती हैं लेकिन जो चीजें दिल और मन में लिख दी जायें समाज में उसको संस्कारित कर दिया जाय तों अमिट हो जाती हैं । हमारे पुरखों के इसी धरोहर के बल पर आज हम अपने आप को गौरवषाली महसूस करते हैं । कितने लोगों नें क्या क्या नहीं छीना लूटा लेकिन लूट नहीं सके छीन नहीं सके वे हमारे अंतर्मन के संस्कारों को । जय सेवा । जय जोहार ।।
व्यवहार के बिना तत्वज्ञान बांझ औरत के समान है ।
किसी समाज के उत्थान के लिये समाज के आधार तत्व भाशा धर्म संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान होता है । जो उस समाज का आत्मविष्वास आत्मबल बढाता है । हमारे महापुरूशों को ज्ञात था कि समाज के आधार तत्वों का सामाजीकरण कर देने से इसे कभी भी नहीं मिटाया जा सकता । जो आज हमें अपने महापुरूशों की बात कटुसत्य प्रमाणित हो रही है। हमारे महापुरूशों को पूर्वाभाश था कि आने वाली सन्तानों को क्या कुछ नहीं झेलना पडेगा । सिंधुघाटी में षंबर के सैकडों किले ध्वस्त कर दिये गये । सिंधु नदी पर बने विषाल बांध जिसके प्रमुख बाणासुर थे को मारकर बांध फोडकर दिया जिसके कारण सिंधुधाटी के नीचे विषाल नगर मलवे में दब गये । हमारी कृति को नश्ट कर दिया गया । मध्यकाल में हमारे राजाओं के किले महलों को नश्ट कर उनकी बनावट बिगाड दी गई ताकि आने वाली संतानों को समझ में ना आ सके । तक्षषिला और नालंदा के हमारी साहित्य कृति को जलाकर राख कर दिया गया । इन सब बातों के होते हुए भी आज मूलसंस्कृति आधार तत्व भाशा धर्म संस्कृति जीवित है तो केवल हमारे पुरखें की दूरदर्षी सोच है । इन्होंने मूलतत्वों का सामाजीकरण करके समाज के संस्कारों में ढाल दिया जो सरल और सहज स्वीकार्य हो सकते थे । इसलिये मेरा मानना है कि हम चूकि आज के दौर में इतने हल्के हो चुके हैं मेहनत से डरते हैं इसलिये हर काम को षार्टकट करने लगे हैं । हमारी मूल परंपराओं भाशा धर्म संस्कृति साहित्य इतिहास पर लगातार कार्य कर रहे हैं लेकिन उसे संस्कारो के रूप में स्थापित करने में कमी कर रहे हैं । हमारा काम लेखन के साथ साथ व्यवहारिक भी होते जाना चाहिये । गोंडवाना आन्दोलन के जरिये कुछ कार्य होता दिखाई दे रहा है । यथा धर्म का वैचारिक चिंतन समाज के सामने आया तो उसका समाज में व्यवहारीकरण प्रारंभ हो गया । समाज व्यवस्था में रिस्तों नातों परंपराओं की पुनस्र्थापना जारी है । सभ्यता के नाम पर लोग अपने देवालय निर्माण की डिजायनिंग अपनी सभ्यता के अनुरूप करने लगे हैं । साहित्य के क्षेत्र में थोडा बहुत काम हो रहा है । सब सही है पुरखों की दूरदर्षिता का ख्याल नहीं रखे तो कल पुनः हमारा साहित्य जल सकता है हमारी देवालय नश्ट किये जा सकते हैं । नश्ट होने वाली चीजें नश्ट हो सकती हैं लेकिन जो चीजें दिल और मन में लिख दी जायें समाज में उसको संस्कारित कर दिया जाय तों अमिट हो जाती हैं । हमारे पुरखों के इसी धरोहर के बल पर आज हम अपने आप को गौरवषाली महसूस करते हैं । कितने लोगों नें क्या क्या नहीं छीना लूटा लेकिन लूट नहीं सके छीन नहीं सके वे हमारे अंतर्मन के संस्कारों को । जय सेवा । जय जोहार ।।
Comments
Post a Comment