शैवमत का यथार्थवाद तथा वैष्णवमत का अवतारवाद
बृहस्पति या शुक्राचार्य शिव या विष्णु रावन या राम
कौन कहां तय करें
आर्यों के आगमन के पूर्व सिंन्धुघाटी की सभ्यता अपने चरमोत्कर्ष पर थी । वहां से प्राप्त अवषेशों ने साबित कर दिया है कि ये सभी शैव मतावलम्बी थे । शैवमत को गोंडवाना भूभाग के प्रथम शंभू राजा ने राजाश्रय दिया था । परिणामस्वरूप शैव मत का विस्तार आधी दुनिया तक हुआ । शैव मतावलंबी सृष्टि के स्थावर जंगम का सृजनकर्ता ़ऋण धन शक्ति को को मानते हैं । जिसके परिणाम को पिंड प्रतीक रूप में स्थापित कर दिया गया। यह सृष्टि परिणाम के रूप में प्रकट हुई । आज भी पुराने अवशेषों में मात्र पिंड को पत्थर या किसी स्थान में स्थापित कर दिया जाता है । परन्तु आर्यों के आगमन के पश्चात उस पिंड को सुनियोजित तरीके से लिंग तथा स्थान को योनि के रूप में प्रचारित कर दिया गया । पिंड जो उसी ऋण धन शक्ति की क्रिया का बाहरी रूप था उसकी गोपनीयता को हल्का करके प्रस्तुत किया गया । ताकि लोगों के मन में लोकलाज की खुली अभिव्यक्ति से विकृति पैदा हो इसका दूसरा और भी कारण रहा होगा कि आर्य गुरू बृहस्पति के वैष्णव मत को जो अवतारवादी है स्थापित करने में सहायक हो । जिसमें यथार्थ की जगह नाक कान गले से जन्मना सूकर से बृहमा की नाभि से सृष्टि उत्पत्ति देवताओं के अवतार आदि का भ्रम पैदा किया । उन्होने नारा दिया बृहम सत्य जगत मिथ्या ताकि लोक भावना यथार्थ को सम-हजयने के लिये बृहम की तलाश में लग जाये। और शैवमत के यथार्थ को विकृत रूप में प्रस्तुत किया जाये इसी के तहत प्रसारित किया गया कि मूलनिवासी जन योनि और लिगं की पूजा करते हैं । जब मूलनिवासी इस प्रस्तुति को भी आत्मसात कर लिया तब उसी पिंड को शिव पार्वती के साकार रूप में लाया गाया सगाजनों ने इसे भी ंअपने मत का अराध्य मान लिया तब शिवजी को गंजेडी भंगेडी असभ्य न्यून वस्त्र बाघम्बरधारी आदि के रूप में लाकर उनके प्रति घृणा के भाव पैदा करने का प्रयास किया गया परन्तु समाज ने इसे भी स्वीकार कर लिया। शैवमतावलंबंी ंअपने मत से विपरीत नहीं जा सके । परन्तु आज की तरह उन कालखण्डों में वैष्णव मत के सुनियोजित अवतारवाद के भ्रमजाल में कमजोर मानसिकता वाले या लोभी सत्तालोलुप जिन्हें आज की भाषा में गददार भी कहा जा सकता है । प्रहलाद कृष्ण विभीषण हनुमान जैसे लोगों नें अवतारवादी वैष्णव मत की सहायता की । जो आज भी विष्णु राम कृष्ण हनुमान के भक्त बनकर समाज की धर्म संस्कृति अर्थात शैवमत को धराशायी करने में जुटे हैं । एैसे लोगों को सिखा दिया गया है कि शैवमत एवं वैष्णवमत एक ही है इस भ्रम में वे दो नावों पर पैर रखकर चल रहे हैं । परन्तु यह उनका भ्रम है । उन्हें क्या पता कि वे अपने बाप को छोडकर दूसरे के बाप की सेवा में लगे हैं । मूलनिवासी समाज को चाहिये कि शैव मत ही उनका अपना रास्ता है । वैष्णवमत के प्रायोजित देवी देवता मान्यताएं मार्ग उनके नहीं । आज भी शैवमत के मानने वाले 90 प्रतिशत लोग हैं परन्तु उन्हे भ्रमित करके रखा गया है इस भ्रम को तोडना जरूरी है । (गुलजार सिंह मरकाम)
बृहस्पति या शुक्राचार्य शिव या विष्णु रावन या राम
कौन कहां तय करें
आर्यों के आगमन के पूर्व सिंन्धुघाटी की सभ्यता अपने चरमोत्कर्ष पर थी । वहां से प्राप्त अवषेशों ने साबित कर दिया है कि ये सभी शैव मतावलम्बी थे । शैवमत को गोंडवाना भूभाग के प्रथम शंभू राजा ने राजाश्रय दिया था । परिणामस्वरूप शैव मत का विस्तार आधी दुनिया तक हुआ । शैव मतावलंबी सृष्टि के स्थावर जंगम का सृजनकर्ता ़ऋण धन शक्ति को को मानते हैं । जिसके परिणाम को पिंड प्रतीक रूप में स्थापित कर दिया गया। यह सृष्टि परिणाम के रूप में प्रकट हुई । आज भी पुराने अवशेषों में मात्र पिंड को पत्थर या किसी स्थान में स्थापित कर दिया जाता है । परन्तु आर्यों के आगमन के पश्चात उस पिंड को सुनियोजित तरीके से लिंग तथा स्थान को योनि के रूप में प्रचारित कर दिया गया । पिंड जो उसी ऋण धन शक्ति की क्रिया का बाहरी रूप था उसकी गोपनीयता को हल्का करके प्रस्तुत किया गया । ताकि लोगों के मन में लोकलाज की खुली अभिव्यक्ति से विकृति पैदा हो इसका दूसरा और भी कारण रहा होगा कि आर्य गुरू बृहस्पति के वैष्णव मत को जो अवतारवादी है स्थापित करने में सहायक हो । जिसमें यथार्थ की जगह नाक कान गले से जन्मना सूकर से बृहमा की नाभि से सृष्टि उत्पत्ति देवताओं के अवतार आदि का भ्रम पैदा किया । उन्होने नारा दिया बृहम सत्य जगत मिथ्या ताकि लोक भावना यथार्थ को सम-हजयने के लिये बृहम की तलाश में लग जाये। और शैवमत के यथार्थ को विकृत रूप में प्रस्तुत किया जाये इसी के तहत प्रसारित किया गया कि मूलनिवासी जन योनि और लिगं की पूजा करते हैं । जब मूलनिवासी इस प्रस्तुति को भी आत्मसात कर लिया तब उसी पिंड को शिव पार्वती के साकार रूप में लाया गाया सगाजनों ने इसे भी ंअपने मत का अराध्य मान लिया तब शिवजी को गंजेडी भंगेडी असभ्य न्यून वस्त्र बाघम्बरधारी आदि के रूप में लाकर उनके प्रति घृणा के भाव पैदा करने का प्रयास किया गया परन्तु समाज ने इसे भी स्वीकार कर लिया। शैवमतावलंबंी ंअपने मत से विपरीत नहीं जा सके । परन्तु आज की तरह उन कालखण्डों में वैष्णव मत के सुनियोजित अवतारवाद के भ्रमजाल में कमजोर मानसिकता वाले या लोभी सत्तालोलुप जिन्हें आज की भाषा में गददार भी कहा जा सकता है । प्रहलाद कृष्ण विभीषण हनुमान जैसे लोगों नें अवतारवादी वैष्णव मत की सहायता की । जो आज भी विष्णु राम कृष्ण हनुमान के भक्त बनकर समाज की धर्म संस्कृति अर्थात शैवमत को धराशायी करने में जुटे हैं । एैसे लोगों को सिखा दिया गया है कि शैवमत एवं वैष्णवमत एक ही है इस भ्रम में वे दो नावों पर पैर रखकर चल रहे हैं । परन्तु यह उनका भ्रम है । उन्हें क्या पता कि वे अपने बाप को छोडकर दूसरे के बाप की सेवा में लगे हैं । मूलनिवासी समाज को चाहिये कि शैव मत ही उनका अपना रास्ता है । वैष्णवमत के प्रायोजित देवी देवता मान्यताएं मार्ग उनके नहीं । आज भी शैवमत के मानने वाले 90 प्रतिशत लोग हैं परन्तु उन्हे भ्रमित करके रखा गया है इस भ्रम को तोडना जरूरी है । (गुलजार सिंह मरकाम)
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