"एक लघु कथा"
लेख: गुलजार सिंह मरकाम
बियाबान जंगल के अंदर एक गांव था । उस गांव की एक खासियत थी वहां के लोग कुछ हद तक या कहा जाय पूर्णतः जीवनोपयोगी उपभोग की वस्तुओं से पूर्णतः आत्मनिर्भर रहते थे । उन्हें केवल नमक या कभी कभार मिटटी के तेल के लिये दूर बाजार जाना पडता था । खेती के औजार से लेकर कपडे तक बनाने में इस ग्राम के लोग निपुण थे । वस्तु विनिमय का बेजोड सामाजिक तानाबाना इस गांव के वैभव को चार चांद लगाता था । स्कूल के नाम पर गोटुल जहां उन्हें अपनी रीति रिवाज परंपराओं का ज्ञान सरल सुलभ था पर आधुनिक शिक्षा के प्रति भी वह गांव सजग था अपने बच्चों को जंगल पार सरकारी स्कूल में पढने भेजा जाता था । गांव के लोगो ने उन बच्चों को लाने ले जाने के लिये गाम से ही एक घर से एक व्यक्ति को प्रतिदिन स्कूल से लाने ले जाने की जिम्मेदारी दी गई थी । आधुनिक शिक्षा भी इन बच्चों के संस्कार को प्रभावित नहीं कर पाया था । स्कूल का शिक्षक इन बच्चों को एक साथ स्कूल आते और निर्धारित समय में पहुंचते देख अति प्रशन्न रहते थे । स्कूल में कभी अनुपस्थित नहीं होना शिक्षक की कौतूहलता को बढा देता था । इससे भी अधिक आश्चर्य उस शिक्षक को होता था कि ये बच्चे पूर्णतः स्वस्थ और बलिष्ठ कैसे हैं । बच्चों से क्या पूछते एक दिन शिक्षक ने उस ग्राम के अवलोकन के लिये समय निकालना मुनासिब समझा ।
स्कूल में छुटटी का दिन था सुबह से, स्कूल शिक्षक गांव पहुंच गया । वहां जाकर देखते हैं कि गांव में कुछ स्त्रियो और छोटे बच्चों और वृद्धों के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति गांव में मौजूद नहीं मिला । किसी तरह शिक्षक गांव के चैपाल की तरफ रूख किया कुछ अति बुजुर्ग अपनी रस्सी बनाने वाले तकली लेकर बातचीत करते हुए घीरे धीरे रस्सी आंट रहे थे । मास्टर को आता देश उनकी स्कूल का पहली क्लास का बच्चा तुतलाते हुए अपने दादा जी से कहता है दादी मावा स्तुल तोल गुलुदी वातुल यह जानकर बुजुर्गों ने मास्टर जी को बैठने के स्थानीय कारीगरी से बनी बैठने की माची दी । कुछ समय के लिये एक सन्नाटा फिर एक बुजुर्ग ने बच्चे को इशारा करते हुए कहा कि हन तो छव्वा अद रोताल उन्डी कटोरा मेंड माठा ततकी मीवा गुरूजीनाय बच्चा दौडकर गया और कटोरे में मटठे का छोटा पात्र और छोटी सी कटोरी लेकर आ गया ।
मठा पीकर गुरूजी इतनी दूर पैदल यात्रा के बाद भी अपने आप को तरो ताजा महसूस करने लगे । कुछ समय ग्राम के रहन सहन जीवन यापन की चर्चा करते हुए मास्टर जी ने महसुस किया कि यह ग्राम पूर्णतः आत्मनिर्भर और स्वावलंबी है । इतने में जंगल से लकडियां लेकर लौटते हुए एक नवजावान को देखकर चैपाल में बैठे बुजुर्ग ने कहा कि डंगुताल बती ठोला तत्ती रो दाडू ! युवक ने जवाब में कहा बती हिल्ले दादी
करोंदा पंडी पुडसीसी ते तच्छे लेतन अनी उन्डी डप्पा ते कानाल जम्मो आंद। बुजुर्ग ने कहा तरा रो मावा नाटे मा छव्वां ना गुरूजी वातुल । करोदा पंडी और शहद का स्वाद चखकर गुरूजी के
खुसी का ठिकाना नहीं रहा । गुरूजी की भूख प्यास मिट गई यह सब देख कर । दोपहर को बुजुर्गों के खाने का वक्त हुआ गुरूजी को एक घर में खाने का निमंत्रण आया । गुरूजी ने देखा खाने के व्यंजन में दूध दही मक्का और गेहूं की रोटी सहित घी डला कुल्थी दाल तुअर दाल चेंच भाजी और एक कटोरे में पेज देखकर आश्चर्य चकित हो गये कि क्या इतना सब पौष्टिक व्यंजन खाते हैं जंगल के अंदर बसे गांव के लोग । तभी उन्हें बर्बस याद आ गया स्कूल में इस गांव के बच्चों के चेहरे की रौनक का राज । भोजन के उपरांत पुनः चैपाल में आकर बुजुर्ग अपनी तकली लेकर रस्सी बनानते हुए अन्य चर्चाओ में मसगूल हो गये । गुरूजी गांव की चर्चा में इतने मसगूल हो गये कि उन्हें वापस जाने का ध्यान नहीं रहा गांव से दूर घरेलू जानवरों की लौटती हुई ढूना घंटियों टापर की आवाजो ने शाम होने का इशारा किया खेती किसान से लौटते ग्राम के स्त्रिी पुरूषों की टोलियां बुजुर्गों को अपने अपने घर वापस होने का संकेत दे रहे थे गुरूजी को वापस जाने के लिये एक व्यक्ति को नियुक्त किया कि उन्हें घर तक पहुंचाकर गुरूजी के घर से कोई निशन लाने को कहा गया ताकि सकुशल पहुंचने की जानकारी ग्राम के बुजुर्गों को मिल सके । लघुकथा की संस्कार और स्वाथ्य कहानी की अगली कडी अगले अंक में-------
लेख: गुलजार सिंह मरकाम
बियाबान जंगल के अंदर एक गांव था । उस गांव की एक खासियत थी वहां के लोग कुछ हद तक या कहा जाय पूर्णतः जीवनोपयोगी उपभोग की वस्तुओं से पूर्णतः आत्मनिर्भर रहते थे । उन्हें केवल नमक या कभी कभार मिटटी के तेल के लिये दूर बाजार जाना पडता था । खेती के औजार से लेकर कपडे तक बनाने में इस ग्राम के लोग निपुण थे । वस्तु विनिमय का बेजोड सामाजिक तानाबाना इस गांव के वैभव को चार चांद लगाता था । स्कूल के नाम पर गोटुल जहां उन्हें अपनी रीति रिवाज परंपराओं का ज्ञान सरल सुलभ था पर आधुनिक शिक्षा के प्रति भी वह गांव सजग था अपने बच्चों को जंगल पार सरकारी स्कूल में पढने भेजा जाता था । गांव के लोगो ने उन बच्चों को लाने ले जाने के लिये गाम से ही एक घर से एक व्यक्ति को प्रतिदिन स्कूल से लाने ले जाने की जिम्मेदारी दी गई थी । आधुनिक शिक्षा भी इन बच्चों के संस्कार को प्रभावित नहीं कर पाया था । स्कूल का शिक्षक इन बच्चों को एक साथ स्कूल आते और निर्धारित समय में पहुंचते देख अति प्रशन्न रहते थे । स्कूल में कभी अनुपस्थित नहीं होना शिक्षक की कौतूहलता को बढा देता था । इससे भी अधिक आश्चर्य उस शिक्षक को होता था कि ये बच्चे पूर्णतः स्वस्थ और बलिष्ठ कैसे हैं । बच्चों से क्या पूछते एक दिन शिक्षक ने उस ग्राम के अवलोकन के लिये समय निकालना मुनासिब समझा ।
स्कूल में छुटटी का दिन था सुबह से, स्कूल शिक्षक गांव पहुंच गया । वहां जाकर देखते हैं कि गांव में कुछ स्त्रियो और छोटे बच्चों और वृद्धों के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति गांव में मौजूद नहीं मिला । किसी तरह शिक्षक गांव के चैपाल की तरफ रूख किया कुछ अति बुजुर्ग अपनी रस्सी बनाने वाले तकली लेकर बातचीत करते हुए घीरे धीरे रस्सी आंट रहे थे । मास्टर को आता देश उनकी स्कूल का पहली क्लास का बच्चा तुतलाते हुए अपने दादा जी से कहता है दादी मावा स्तुल तोल गुलुदी वातुल यह जानकर बुजुर्गों ने मास्टर जी को बैठने के स्थानीय कारीगरी से बनी बैठने की माची दी । कुछ समय के लिये एक सन्नाटा फिर एक बुजुर्ग ने बच्चे को इशारा करते हुए कहा कि हन तो छव्वा अद रोताल उन्डी कटोरा मेंड माठा ततकी मीवा गुरूजीनाय बच्चा दौडकर गया और कटोरे में मटठे का छोटा पात्र और छोटी सी कटोरी लेकर आ गया ।
मठा पीकर गुरूजी इतनी दूर पैदल यात्रा के बाद भी अपने आप को तरो ताजा महसूस करने लगे । कुछ समय ग्राम के रहन सहन जीवन यापन की चर्चा करते हुए मास्टर जी ने महसुस किया कि यह ग्राम पूर्णतः आत्मनिर्भर और स्वावलंबी है । इतने में जंगल से लकडियां लेकर लौटते हुए एक नवजावान को देखकर चैपाल में बैठे बुजुर्ग ने कहा कि डंगुताल बती ठोला तत्ती रो दाडू ! युवक ने जवाब में कहा बती हिल्ले दादी
करोंदा पंडी पुडसीसी ते तच्छे लेतन अनी उन्डी डप्पा ते कानाल जम्मो आंद। बुजुर्ग ने कहा तरा रो मावा नाटे मा छव्वां ना गुरूजी वातुल । करोदा पंडी और शहद का स्वाद चखकर गुरूजी के
खुसी का ठिकाना नहीं रहा । गुरूजी की भूख प्यास मिट गई यह सब देख कर । दोपहर को बुजुर्गों के खाने का वक्त हुआ गुरूजी को एक घर में खाने का निमंत्रण आया । गुरूजी ने देखा खाने के व्यंजन में दूध दही मक्का और गेहूं की रोटी सहित घी डला कुल्थी दाल तुअर दाल चेंच भाजी और एक कटोरे में पेज देखकर आश्चर्य चकित हो गये कि क्या इतना सब पौष्टिक व्यंजन खाते हैं जंगल के अंदर बसे गांव के लोग । तभी उन्हें बर्बस याद आ गया स्कूल में इस गांव के बच्चों के चेहरे की रौनक का राज । भोजन के उपरांत पुनः चैपाल में आकर बुजुर्ग अपनी तकली लेकर रस्सी बनानते हुए अन्य चर्चाओ में मसगूल हो गये । गुरूजी गांव की चर्चा में इतने मसगूल हो गये कि उन्हें वापस जाने का ध्यान नहीं रहा गांव से दूर घरेलू जानवरों की लौटती हुई ढूना घंटियों टापर की आवाजो ने शाम होने का इशारा किया खेती किसान से लौटते ग्राम के स्त्रिी पुरूषों की टोलियां बुजुर्गों को अपने अपने घर वापस होने का संकेत दे रहे थे गुरूजी को वापस जाने के लिये एक व्यक्ति को नियुक्त किया कि उन्हें घर तक पहुंचाकर गुरूजी के घर से कोई निशन लाने को कहा गया ताकि सकुशल पहुंचने की जानकारी ग्राम के बुजुर्गों को मिल सके । लघुकथा की संस्कार और स्वाथ्य कहानी की अगली कडी अगले अंक में-------
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