"साहित्य में "शब्द विष" जनमानस की धारणा बदल देता है ।"
वैसे तो आम बोलचाल की भाषा में कहा जाता है कि, साहित्य समाज का दर्पण है । बात भी सही है पर यह दर्पण आज के दौर में या पूर्व में भी कितना व्यवहारिक रहा है इसे समझने की आवश्यकता है । साहित्य समाज का मानसिक परिष्कार करता है और समाजाजिक पर्यावरण के लिये अनुकूल वातावरण पैदा करता है । साहित्य यदि सत्ता का चाटुकार हो जाये, उसके यशोगान में लगकर समाज की अवधारणा बदलने का प्रयास करे तो, वह साहित्य ही नहीं । आज का दौर इसी संक्रमण काल से गुजर रहा है । साहित्य के माध्यम से इतिहास को भी बदलने का प्रयास जारी है । जनमानस में एैसी कपोल कल्पित पौराणिक किस्से कहानियों तथा पात्रों का महिमामण्डन किया जा रहा है जिनका कभी कोई अस्तित्व ही नहीं रहा है । देश के एैसे मक्कार और दलाल जिन्होंने देश की आजादी में कोई योगदान नहीं दिया इनका साहित्य के माध्यम से महिमामण्डन कर इतिहास में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है । तथा स्थापित साहित्य या इतिहास में शब्द विष का प्रयोग करते हुए जनमानस की धारणा बदलने का प्रयास किया जा रहा है । और तो और आदिवासी को "नक्सलवादी प्रथकतावादी" के रूप में स्थापित करना, "मुस्लिम समुदाय को गददार" और "अनुसूचित जाति को देशद्रोही" के रूप में प्रस्तुत करने का भरसक प्रयास साहित्य के माध्यम से किया जाने लगा है । देश के बुद्धिजीवियों को सतर्क रहने की आवश्यकता है ! साहित्य में लगातार शब्द विष घोला जा रहा है, जिसका असर समाज में पडना ही है । कोमल मन के छात्र छात्राओं शोधकर्ताओं को यह शब्द विष विषाक्त कर सकता है जिसका परिणाम भविष्य में देश को भुगतना पड सकता है ।-gsmarkam
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