"आदिवासी धर्म कोड"
(नई दिल्ली जंतर मंतर १८फरवरी २०२०) दिल्ली जंतर मंतर १८फरवरी २०२०) दिल्ली जंतर मंतर १८फरवरी २०२०)
संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था जब आदिवासी की जीवन पद्धति को सारी दुनिया में संरक्षित करने की बात करती है जिसे घोषित विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका कारण है कि इस धरती को पर्यावरण को,मानवता को बचाने का एकमात्र फॉर्मूला आदिवासी की धर्म संस्कृति और उनके आचार विचार जीवन पद्धति में है इस बात को सभी देशों ने मानकर अपने अपने संविधान में इनकी भाषा धर्म संस्कृति को नष्ट ना हो जाए इस आशय से संविधान में समाहित किया है भारत में संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची में इसका स्पष्ट उल्लेख भी है । आदिवासी की पृथक पहचान बनी रहे इस बात का पूरा प्रयास भी है, साथ ही हमारे देश में संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार भी लिखित है ऐसा होने के बावजूद आदिवासी अपनी पहचान को बनाए रखने का प्रयास कर रहा है तो क्या गलत बात है ! ऐसा लगता है कि जिस सामाजिक धार्मिकता को राष्ट्र की कथित मुख्यधारा बताए जाने का प्रयास किया जा रहा है वह गुमराह करने वाली बात है असली में राष्ट्र की मुख्यधारा आदिवासी की धर्म संस्कृति और जीवन पद्धति ही है जिससे बाहर से आने वाली हर आक्रमणकारी समुदाय और विचारधारा भयभीत है इसलिए उसके संस्कारों, मान्यता, रूढिगत परंपराओं को मिटा कर अपनी चीज को थोपना चाहती है । अंग्रेजों ने आजादी पूर्व जनगणना १८७१ से लेकर १९४१ तक आदिवासियों की प्रथक जनगणना की थी साथ ही आजादी के बाद 2001 से लेकर 2011 की जनगणना में अन्य का विकल्प दिया गया था तब आदिवासी ने अपनी धार्मिक पहचान को स्थापित करने का प्रयास किया परिणाम स्वरूप 4800000 आदिवासियों ने अपना धर्म सरना लिखा लगभग 1000000 लोगों ने गोंडी धर्म लिखा बकायदा जनगणना आयोग की ओर से प्रकाशित दस्तावेज के धर्म सारणी में आदिवासियों की गणना का उल्लेख भी है,आदिवासियों के धार्मिक संगठनों ने समय-समय पर भारत जनगणना आयोग से आदिवासियों को जनगणना में पृथक से कालम दिए जाने की मांग भी की गई परंतु इस पर विचार नहीं किया गया इसी आशय को लेकर आदिवासी समुदाय चिंतित होकर अपनी धार्मिक पहचान को कायम रखने के लिए धरना प्रदर्शन करने लगा है प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष 2021 के प्रस्तावित जनगणना पत्र में आदिवासियों को कोर्ट कलम दिया जाना तो दूर अंकल को भी विलोपित किया जा रहा है जो कि संविधान में वर्णित अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का सीधा सीधा उल्लंघन है आदिवासियों का इतिहास आदिवासियों के धार्मिक मान्यताओं का इतिहास पुरातन काल से चला आ रहा है उसके प्रकृति के पेड़ पौधे पहाड़ नदी चांद सूरज जैसे जीवन को अपनाना है बड़ा देव शक्ति का उपासक रहा है जिसे लंबे समय से धर्म धर्मांतरण के माध्यम से मूर्ति पूजक पूजक बनाए जाने की कोशिश की जा रही है यह क्रम अंग्रेजों से लेकर आज तक लगातार चला आ रहा है देश में जब अंग्रेजों और ईसाईयों का आगमन नहीं था तब कोई आदिवासी इसाई नहीं था आज है और इस्लाम का भारत में आगमन के पूर्व कोई आदिवासी मुसलमान नहीं था इसी तरह आर्यों शकों हूणों के आक्रमण किए पूर्व देश कोई आदिवासी सनातनी या हिंदू नहीं था तब प्रश्न उठता है कि इन विदेशी आक्रमणकारियों के पूर्व इस धरती पर आदिकाल से रहने वाला आदिवासी किस भाषा धर्म संस्कृति और मान्यताओं पर संचालित होता था यह विचारणीय प्रश्न है अर्थात इसकी अपनी संस्कृति रुणीजा मान्यताएं और धार्मिक क्रियाकलाप रहे हैं जो कि इतने आक्रमणों के बाद भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हो सके हैं इन्हें समाप्त करने का प्रयास लंबे समय से हो रहा है भारत के संविधान में एक और संरक्षण की बात लिखी गई है दूसरी ओर से इन आदिवासियों की धार्मिक पहचान को मिटाने का भी प्रयास के तहत आदिवासी को किसी भी धर्म में जाने के लिए दरवाजे खोल रखे हैं कि आदिवासी यदि किसी भी धर्म को मानने पर उसको मिलने वाले विशेष संवैधानिक अधिकार यथास्थित, रहते हैं। जबकि अनुसूचित जाति वर्गों को धर्मांतरण के बाद संवैधानिक विशेष सुविधा से वंचित होना पड़ता है, इस तरह आदिवासियों की पहचान को पूरी तरह मिटाने की कोशिश की जा रही है जो कि आदिवासी समुदाय को मंजूर नहीं !
(आदिवासी की विशेषताएं आदिवासी अन्य धर्मों से पृथक कैसे हैं) :-
(१) प्रकृति पूजक मूर्तिपूजक नहीं
(२)वैवाहिक या अन्य धार्मिक क्रियाकलाप ब्राह्मण पुरोहित से संपन्न नहीं कराता
(३)राजोधर्म का कट्टरता से पालन करता है । जिसमें महिलाओं को ऐसे समय में कोई धार्मिक अनुष्ठान में शामिल नहीं किया जाता है ऐसे समय में भोजन पकाना भी वर्जित है ऐसे मौके पर उसे आराम की सलाह दी जाती है )(४) आदिवासी समुदाय में मामा की पुत्री से या पुत्र से विवाह संबंध उत्तम माना जाता है।
इन सभी मान्यताओं को देखते हुए आदिवासी समुदाय हिंदू नहीं है और इसलिए हमारी मांग है:१
1.अन्य धर्मावलंबियों की तरह जन गणना प्रपत्र में आदिवासियों के लिए पृथक से धर्मकोड/कालम अंकित किया जाए 2.संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार के तहत किसी भी व्यक्ति को स्वेच्छा से अपना धर्म अंकित कराने के लिए जनगणना प्रपत्र 2021में अन्याय का कालम अंकित किया जाए ।
(गुलजार सिंह मरकाम राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन 9329004468)
मध्यप्रदेश के गोन्ड बहुल जिला और मध्य काल के गोन्डवाना राज अधिसत्ता ५२ गढ की राजधानी गढा मन्डला के गोन्ड समुदाय में अपने गोत्र के पेन(देव) सख्या और उस गोत्र को प्राप्त होने वाले टोटेम सम्बन्धी किवदन्तिया आज भी यदा कदा प्रचलित है । लगभग सभी प्रचलित प्रमुख गोत्रो की टोटेम से सम्बन्धित किवदन्ति आज भी बुजुर्गो से सुनी जा सकती है । ऐसे किवदन्तियो का सन्कलन और अध्ययन कर गोन्डवाना सन्सक्रति के गहरे रहस्य को जानने समझने मे जरूर सहायता मिल सकती है । अत् प्रस्तुत है मरकाम गोत्र से सम्बन्धित हमारे बुजुर्गो के माध्यम से सुनी कहानी । चिरान काल (पुरातन समय) की बात है हमारे प्रथम गुरू ने सभी सभी दानव,मानव समूहो को व्यवस्थित करने के लिये अपने तपोभूमि में आमंत्रित किया जिसमें सभी समूह आपस में एक दूसरे के प्रति कैसे प्रतिबद्धता रखे परस्पर सहयोग की भावना कैसे रहे , यह सोचकर पारी(पाडी) और सेरमी(सेडमी/ ्हेडमी) नात और जात या सगा और सोयरा के रूप मे समाज को व्यवस्थित करने के लिये आमन्त्रित किया ,दुनिया के अनेको जगहो से छोटे बडे देव, दानव ,मानव समूह गुरू के स्थान पर पहुचने लगे , कहानी मे यह भी सुनने को मिलत...
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