"आदिवासी और उसका सांस्कृतिक बल"
आदिवासियत को देश के मूल सांस्कृतिक आईने से देखोगे तो उसकी जनसंख्या लगभग 25 करोड़ की बनती है जिसे संख्यानुपात में कमजोर दिखाने और संवैधानिक अधिकार और लाभ से वंचित करने के लिए संविधान में लिखित सूची में अलग अलग वर्ग सूचि में डाल दिया गया है। यही कारण है कि केंद्रीय सेवाओं में मात्र 7.50 प्रतिशत की गणना के आधार पर शासकीय सेवा में अनुपातिक आरक्षण का लाभ और अन्य सुविधाओं में भी कमी रह जाती है। सांस्कृतिक संख्या को विभाजित करने के कारण आदिवासी समुदाय का सबसे बड़ा नुक्सान उसके संख्या बल की अल्पता महसूस होने से "हमारी इतनी कम संख्या है हम क्या कर सकते हैं"
जैसी मनोबल को हतास करने वाली मानसिकता पनपती है। इसलिए मेरा मानना है ग्रामीण भारत का अधिकांश हिस्सा देश की मूल आदिवासी सांस्कृतिक व्यवस्था से संचालित है। इस सांस्कृतिक व्यवस्था का अक्षरशः पालन करने और इस पर जीने मरने वाला समुदाय आदिवासी है भले ही वह संविधान की सूची में अलग नाम से अधिसूचित है। देश की वर्तमान विषम परिस्थितियों में सांस्कृतिक संघर्ष की आहट है। जिसके सांस्कृतिक एकता के हथियार से ही निपटा जा सकता है।
(गुलजार सिंह मरकाम राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन)
मध्यप्रदेश के गोन्ड बहुल जिला और मध्य काल के गोन्डवाना राज अधिसत्ता ५२ गढ की राजधानी गढा मन्डला के गोन्ड समुदाय में अपने गोत्र के पेन(देव) सख्या और उस गोत्र को प्राप्त होने वाले टोटेम सम्बन्धी किवदन्तिया आज भी यदा कदा प्रचलित है । लगभग सभी प्रचलित प्रमुख गोत्रो की टोटेम से सम्बन्धित किवदन्ति आज भी बुजुर्गो से सुनी जा सकती है । ऐसे किवदन्तियो का सन्कलन और अध्ययन कर गोन्डवाना सन्सक्रति के गहरे रहस्य को जानने समझने मे जरूर सहायता मिल सकती है । अत् प्रस्तुत है मरकाम गोत्र से सम्बन्धित हमारे बुजुर्गो के माध्यम से सुनी कहानी । चिरान काल (पुरातन समय) की बात है हमारे प्रथम गुरू ने सभी सभी दानव,मानव समूहो को व्यवस्थित करने के लिये अपने तपोभूमि में आमंत्रित किया जिसमें सभी समूह आपस में एक दूसरे के प्रति कैसे प्रतिबद्धता रखे परस्पर सहयोग की भावना कैसे रहे , यह सोचकर पारी(पाडी) और सेरमी(सेडमी/ ्हेडमी) नात और जात या सगा और सोयरा के रूप मे समाज को व्यवस्थित करने के लिये आमन्त्रित किया ,दुनिया के अनेको जगहो से छोटे बडे देव, दानव ,मानव समूह गुरू के स्थान पर पहुचने लगे , कहानी मे यह भी सुनने को मिलत...
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