"परंपरागत वनाधिकार मामले पर सुप्रीकोर्ट की बेदखली आदेश के विरुद्ध जनसंवाद"
अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम 2006 में '"जंगल में निवास करने तथा वन भूमि पर वर्षों से काबिज होकर अपनी आजीविका चलाने वाले उन जनजातियों जो जंगलों में पीढ़ियों से रहते हैं" परंतु जिनके अधिकारों को दर्ज नहीं किया जा सका था, के अधिकारों और उनके कब्जे को पहचानना और उनके अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए पारित किया गया था यह अधिनियम जंगल में रह रहे अनुसूचित जनजातियां तथा अन्य पारंपरिक वन निवासी जो वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के अभिन्न अंग हैं, के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को पूर्ववत करने को किया गया था यह अधिनियम जनजाति तथा अन्य पारंपरिक व निवासी को निवास और आजीविका के लिए वन भूमि में रहने, परंपरागत काबिज भूमि पर कृषि करने का अधिकार तथा अन्य महत्वपूर्ण अधिकार जैसे लघु वन उपज के संग्रहण उपयोग और निपटान का अधिकार दिया गया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण अधिकार सामुदायिक हक का है दावेदार सरकारी रिकार्ड ,भौतिक गुण पारंपरिक संरचनाएं वंशावली अनुरेखण और यहां तक कि बुजुर्गों के बयानों को साक्ष्य जेसे पेश करके अपने अधिकारों का दावा कर सकते हैं । अधिनियम बनने के बाद वर्ष 2008 में "वाइल्डलाइफ फर्स्ट नामक संस्था ने जिसमें अधिकतर ऐसे रिटायर्ड वन अधिकारी एसडीओ,डीएफओ, कंसरवेटर आदि ने जिन्होंने वनों के संरक्षण के नाम पर वनसम्पदा का जमकर दोहन करके पूंजी बनाकर मोटे हो चुके हैं,ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें वन अधिकार अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है इस केस में "वाइल्डलाइफ फर्स्ट" संस्था द्वारा भारत के जंगलों में से लाखों आदिवासियों और वनवासियों को बेदखल करने की दलीलें दी गई थी उनका तर्क तर्कहीन था फिर भी सुप्रीकोर्ट ने आदिवासियों के दावे खारिज कर दिए गए थे,इनकी दलील थी कि ये अतिक्रमण कारी हैं और उन्हें तुरंत बेदखल किया जाना चाहिए । इनके कारण पर्यावरण और वन्य जीवों को नुक्सान है आदि ... जबकि अधिनियम लागू होने के बाद इसे उचित रूप से लागू नहीं किया गया, पूर्णतः लागू होने के बाद इसके परिणाम को देखा जाना चाहिए था । यही कारण है कि अधिकारों और सामूहिक विचारों आदि के संदर्भ में अधिनियम की क्षमता का मुश्किल से 10% इस्तेमाल किया गया, दावेदारों को नोटिस दिए बिना स्वीकृत आदेश पारित किए गए थे आदेश कानूनी रूप से मानकों की अवहेलना करते हुए पारित किए गए थे, ज्यादातर मामलों में आदेश दावेदारों को भेजे ही नहीं गए थे आदेशों में निरस्ती के कारण भी अंकित नहीं किए गए थे इसलिए यह सुप्रीकोर्ट के आदेश तथ्यों के विपरीत पक्छपत पूर्ण थे , दावेदारों की अपील की मदद के लिए कोई प्रयास नहीं किए, वास्तव में कानूनी सहायता पूरे देश में उपलब्ध नहीं थी । सामुदायिक अधिकारों को भी अनदेखा किया गया इसी को संज्ञान में लेते हुए "ह्यूमन राइट ला" नेटवर्क देश के विभिन्न संस्थाओं के सहयोग से यह दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श एवं वनाधिकार के संबंध में कुछ चर्चा हो सके और अगली रणनीति सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य सरकार ने अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी के व्यक्तिगत तथा सामुदायिक अधिकारों को लागू करें । तथा अधिनियम के उद्देश्यों को पूर्ण क्षमता से ठोस कदम उठाएं इस बाबत यह पहल की जा रही है। इस दो दिवसीय कार्यशाला में देश के विभिन्न प्रदेशों से अलग संगठनों के प्रतिनिधियों ने अपने राज्यों के संदर्भ में विचार प्रस्तुत किया तथा निराकरण के लिए आम सहमति बनाई गई। साभार-akhand gondeana news
अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम 2006 में '"जंगल में निवास करने तथा वन भूमि पर वर्षों से काबिज होकर अपनी आजीविका चलाने वाले उन जनजातियों जो जंगलों में पीढ़ियों से रहते हैं" परंतु जिनके अधिकारों को दर्ज नहीं किया जा सका था, के अधिकारों और उनके कब्जे को पहचानना और उनके अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए पारित किया गया था यह अधिनियम जंगल में रह रहे अनुसूचित जनजातियां तथा अन्य पारंपरिक वन निवासी जो वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के अभिन्न अंग हैं, के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को पूर्ववत करने को किया गया था यह अधिनियम जनजाति तथा अन्य पारंपरिक व निवासी को निवास और आजीविका के लिए वन भूमि में रहने, परंपरागत काबिज भूमि पर कृषि करने का अधिकार तथा अन्य महत्वपूर्ण अधिकार जैसे लघु वन उपज के संग्रहण उपयोग और निपटान का अधिकार दिया गया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण अधिकार सामुदायिक हक का है दावेदार सरकारी रिकार्ड ,भौतिक गुण पारंपरिक संरचनाएं वंशावली अनुरेखण और यहां तक कि बुजुर्गों के बयानों को साक्ष्य जेसे पेश करके अपने अधिकारों का दावा कर सकते हैं । अधिनियम बनने के बाद वर्ष 2008 में "वाइल्डलाइफ फर्स्ट नामक संस्था ने जिसमें अधिकतर ऐसे रिटायर्ड वन अधिकारी एसडीओ,डीएफओ, कंसरवेटर आदि ने जिन्होंने वनों के संरक्षण के नाम पर वनसम्पदा का जमकर दोहन करके पूंजी बनाकर मोटे हो चुके हैं,ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें वन अधिकार अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है इस केस में "वाइल्डलाइफ फर्स्ट" संस्था द्वारा भारत के जंगलों में से लाखों आदिवासियों और वनवासियों को बेदखल करने की दलीलें दी गई थी उनका तर्क तर्कहीन था फिर भी सुप्रीकोर्ट ने आदिवासियों के दावे खारिज कर दिए गए थे,इनकी दलील थी कि ये अतिक्रमण कारी हैं और उन्हें तुरंत बेदखल किया जाना चाहिए । इनके कारण पर्यावरण और वन्य जीवों को नुक्सान है आदि ... जबकि अधिनियम लागू होने के बाद इसे उचित रूप से लागू नहीं किया गया, पूर्णतः लागू होने के बाद इसके परिणाम को देखा जाना चाहिए था । यही कारण है कि अधिकारों और सामूहिक विचारों आदि के संदर्भ में अधिनियम की क्षमता का मुश्किल से 10% इस्तेमाल किया गया, दावेदारों को नोटिस दिए बिना स्वीकृत आदेश पारित किए गए थे आदेश कानूनी रूप से मानकों की अवहेलना करते हुए पारित किए गए थे, ज्यादातर मामलों में आदेश दावेदारों को भेजे ही नहीं गए थे आदेशों में निरस्ती के कारण भी अंकित नहीं किए गए थे इसलिए यह सुप्रीकोर्ट के आदेश तथ्यों के विपरीत पक्छपत पूर्ण थे , दावेदारों की अपील की मदद के लिए कोई प्रयास नहीं किए, वास्तव में कानूनी सहायता पूरे देश में उपलब्ध नहीं थी । सामुदायिक अधिकारों को भी अनदेखा किया गया इसी को संज्ञान में लेते हुए "ह्यूमन राइट ला" नेटवर्क देश के विभिन्न संस्थाओं के सहयोग से यह दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श एवं वनाधिकार के संबंध में कुछ चर्चा हो सके और अगली रणनीति सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य सरकार ने अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी के व्यक्तिगत तथा सामुदायिक अधिकारों को लागू करें । तथा अधिनियम के उद्देश्यों को पूर्ण क्षमता से ठोस कदम उठाएं इस बाबत यह पहल की जा रही है। इस दो दिवसीय कार्यशाला में देश के विभिन्न प्रदेशों से अलग संगठनों के प्रतिनिधियों ने अपने राज्यों के संदर्भ में विचार प्रस्तुत किया तथा निराकरण के लिए आम सहमति बनाई गई। साभार-akhand gondeana news
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