*विश्व आदिवासी दिवस,और आदिवासी सामाजिक दबाव*
"प्रदेश में 22 प्रतिशत आदिवासी समुदाय है, परंतु यह संख्या शायद सरकार के सामने कोई मायने नहीं रखता, कारण भी है की सत्ताधारी दल के आदिवासी जनप्रतिनिधि पूरी तरह गुलाम बने हुए हैं । सरकारों की नींद चुनाव वर्ष में खुली है कि अब शासकीय स्तर पर 9 अगस्त विश्व आदिवासी मनाया जाय । यही नहीं विश्व आदिवासी दिवस पर जिन जिलों में सरकार के माध्यम से विश्व आदिवासी दिवस मनाने का ढोंग किया जा रहा है, उनमें इस तरह शासकीय सेवकों की ड्यूटी लगाकर शासकीय आयोजन नहीं कराते, इसका सीधा सा मतलब है की आम नागरिकों द्वारा आयोजित कार्यक्रम में व्यवधान पैदा कराना है। इससे यह साबित होता है की आदिवासी जनता को बड़ी आसानी से विभाजित किया जा सकता है। समाज का यह विभाजन सामाजिक दबाव को कमतर करता है। ठीक यही स्थिति गैर सत्ताधारी आदिवासी जनप्रतिनिधियों की है। जो विपक्ष में बैठकर भी 9 अगस्त की छुट्टी के लिए विशेष पैरवी नहीं कर सके,इनकी भी अपनी डफली अपना राग है। सरकार अभी भी आदिवासियों को मात्र भीड़ मानती है। उसे अभी भी विश्वास है कि इस समुदाय को खरीदा जा सकता है, बहलाया फुसलाया जा सकता है, विभाजित किया जा सकता है। यही कारण है की हमारे कथित सामाजिक, राजनीति संगठनों के अगुवा चुनाव के नजदीक आकर भी समुदाय की मानसिकता को पिछले साढ़े चार साल की तकलीफ़ को भुला देने के लिए अभी भी मांग पत्र लेकर सरकार सत्ताधारियों,के सामने आश्वासन की भीख मांगते नजर आ रहे हैं । जबकि होना यह चाहिए था कि हमारी बीते वर्षों की समस्या हमारा सत्ता के विरुद्ध गुस्से का कारण बनना चाहिए। मांगने की बजाय गुस्से को लामबंद करना चाहिए । जोकि पिछली तकलीफ का हिसाब चुकता कर सके ।"-Gsmarkam
"प्रदेश में 22 प्रतिशत आदिवासी समुदाय है, परंतु यह संख्या शायद सरकार के सामने कोई मायने नहीं रखता, कारण भी है की सत्ताधारी दल के आदिवासी जनप्रतिनिधि पूरी तरह गुलाम बने हुए हैं । सरकारों की नींद चुनाव वर्ष में खुली है कि अब शासकीय स्तर पर 9 अगस्त विश्व आदिवासी मनाया जाय । यही नहीं विश्व आदिवासी दिवस पर जिन जिलों में सरकार के माध्यम से विश्व आदिवासी दिवस मनाने का ढोंग किया जा रहा है, उनमें इस तरह शासकीय सेवकों की ड्यूटी लगाकर शासकीय आयोजन नहीं कराते, इसका सीधा सा मतलब है की आम नागरिकों द्वारा आयोजित कार्यक्रम में व्यवधान पैदा कराना है। इससे यह साबित होता है की आदिवासी जनता को बड़ी आसानी से विभाजित किया जा सकता है। समाज का यह विभाजन सामाजिक दबाव को कमतर करता है। ठीक यही स्थिति गैर सत्ताधारी आदिवासी जनप्रतिनिधियों की है। जो विपक्ष में बैठकर भी 9 अगस्त की छुट्टी के लिए विशेष पैरवी नहीं कर सके,इनकी भी अपनी डफली अपना राग है। सरकार अभी भी आदिवासियों को मात्र भीड़ मानती है। उसे अभी भी विश्वास है कि इस समुदाय को खरीदा जा सकता है, बहलाया फुसलाया जा सकता है, विभाजित किया जा सकता है। यही कारण है की हमारे कथित सामाजिक, राजनीति संगठनों के अगुवा चुनाव के नजदीक आकर भी समुदाय की मानसिकता को पिछले साढ़े चार साल की तकलीफ़ को भुला देने के लिए अभी भी मांग पत्र लेकर सरकार सत्ताधारियों,के सामने आश्वासन की भीख मांगते नजर आ रहे हैं । जबकि होना यह चाहिए था कि हमारी बीते वर्षों की समस्या हमारा सत्ता के विरुद्ध गुस्से का कारण बनना चाहिए। मांगने की बजाय गुस्से को लामबंद करना चाहिए । जोकि पिछली तकलीफ का हिसाब चुकता कर सके ।"-Gsmarkam
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