Skip to main content

Posts

Showing posts from June, 2017

"भील समुदाय अपने अगूठे का उपयोग शुरू करे "

भील समुदाय में एकलव्य के अगूठे की दक्षिणा देने के अपनी धारणा बना लिया कि अब हमारा अगूठा नहीं रहा, अब हम इसका उपयोग नहीं करेंगे । पूर्व काल से ही इनकी योग्यता को कमजोर करने के लिए शडयन्त्र रचा गया जिसके तहत उनके बीच प्रचारित किया गया कि अब तुम्हारा अगूठा काम नही करेगा । एकलव्य के अगूठे के साथ ही धनुष बाण मे उपयोग आने वाला तुम्हारा अगूठा कमजोर हो गया है । इस धारणा ने धीरे धीरे धनुष बाण मे उपयोग आने वाले अगूठे का उपयोग वर्जित कर दिया ।  शडयन्त्रकारी इन भीलो की तीर कमान की निपुणता, योग्यता, क्षमता से परिचित था वह जानता था कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो इस समुदाय में एकलव्य से भी बढ़कर धनुर्धर निकल सकते हैं जो भविष्य में हमारे लिए कष्टदायी हो सकते हैं ।हो सकता है भील समुदाय ने अगूठे का जबसे उपयोग बन्द किया हो जिससे अपने आप में सामरिक कमजोरी महसूस हुई हो तो उसकी पूर्ति के लिये "गोफन/गुफान " का आविष्कार किया हो । जो भी हो पर आज यह समुदाय गोफन अस्त्र चलाने में अग्रणी है । यानी अपनी सामरिक योग्यता क्षमता को विकसित करने में आज भी सक्षम है । इस समुदाय को अगूठा कटने और उसका उपयोग नहीं करने

“गोंडवाना के विचार और विचारक”

"हम गोंड हैं , हमारा पुनेम गोंडी है ,हमारी जन्मभूमि गोंडवाना है ।" - डा0 मोती रावन कंगाली (महाराष्ट्र) "1956 में भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ, गोंडी भाषा के आधार पर गोंडवाना राज्य क्यों नहीं बनाया गया ।" -शीतल मरकाम (महाराष्ट्र) "जिस मां का दूध पिया ,जिस समाज का खून तुम्हारी नसों में दौड रहा है ,जिस समाज ने तुम्हें गोदी में खिलाया रोटी और बेटी दिया उस समाज के तुम कर्जदार हो ।" - प्रथम गोंडी धर्म प्रवाचक दादा वरकडे (छ0ग0) । "साहित्य स माज का दर्पण है तो संस्कृति उसका चश्मा है ।"- सुन्हेर सिह ताराम (म0प्र0) "जो व्यापार करेगा वही राज करेगा ।"- हीरा सिंह मरकाम (छ0ग0) "भाषा ,धर्म ,संस्कृति को पकड कर रखो ,जकड कर रखो लेकिन वर्तमान में जियो।" -गुलजार सिंह मरकाम (म0प्र0) नोट :- गोंडवाना आन्दोलन के मौलिक विचारवान लोगों के मौलिक विचारों का संकलन कर उन पर अमल करने का प्रयास किया जाय । इस तरह के बहुत से विचारको के मौलिक विचार गोंडवाना आन्दोंलन की सफलता में सहायक होंगे संकलित किया जाना चाहिये ।

"say something common wealth leader's to Indian government , we are tribe . our custodian (Indian government ) fails to handle tribal custody so please interfere central government & state government of India" - Indian tribe .

  "say something common wealth  leader's to Indian  government , we are tribe. our  custodian  ( Indian  government )  fails  to handle   tribal  custody so please  interfere  central government & state government of India "- Indian   tribe  . "अब हम (आदिवासी) को कस्टोडियन(दायी) की आवश्यकता नही । "कस्टोडियन केंद्र और राज्य सरकारें आदिवासियों के हित रक्षा में असफल हैं इसलिये वे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जायें अब भारत सरकार (आदिवासी) अब अपना विकास अपने तरीके से करेंगे ।" (भारतीय संविधान की धारा 244 (1) एवं 13 (3) क के तहत) देश के गैर आदिवासी सरकारें और पार्टिया ज ो देश के मालिको आदिवासियों के हित की बात कर रहीं हैं केवल अपनी व्यवस्था अपनी पार्टी को मजबूत करने की बात कर रहीं हैं । मेरा मानना है कि तुम्हें सांसद और विधायक केवल आदिवासियों के हित रक्षा के लिये या अपनी जीविका की सुरक्षा में लगे हैं । आदिवासियों के देश में आदिवासियों के हित रक्षा की बात नहीं हो रही है । इसलिये हम संसद और विधानसभा के चुने हुए जनप्रतिनिधियिों को अवैध घोषित क

"साहित्य में "शब्द विष" जनमानस की धारणा बदल देता है ।"

"साहित्य में "शब्द विष" जनमानस की धारणा बदल देता है ।" वैसे तो आम बोलचाल की भाषा में कहा जाता है कि, साहित्य समाज का दर्पण है । बात भी सही है पर यह दर्पण आज के दौर में या पूर्व में भी कितना व्यवहारिक रहा है इसे समझने की आवश्यकता है । साहित्य समाज का मानसिक परिष्कार करता है और समाजाजिक पर्यावरण के लिये अनुकूल वातावरण पैदा करता है । साहित्य यदि सत्ता का चाटुकार हो जाये, उसके यशोगान में लगकर समाज की अवधारणा बदलने का प्रयास करे तो, वह साहित्य ही नहीं । आज का दौर इसी संक्रमण काल से गुजर रहा है । साहित्य के माध्यम से इतिहास को भी बदलने का प्रयास जारी है । जनमानस में एैसी कपोल कल्पित पौराणिक किस्से कहानियों तथा पात्रों का महिमामण्डन किया जा रहा है जिनका कभी कोई अस्तित्व ही नहीं रहा है । देश के एैसे मक्कार और दलाल जिन्होंने देश की आजादी में कोई योगदान नहीं दिया इनका साहित्य के माध्यम से महिमामण्डन कर इतिहास में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है । तथा स्थापित साहित्य या इतिहास में शब्द विष का प्रयोग करते हुए जनमानस की धारणा बदलने का प्रयास किया जा रहा है । और तो औ

"सामान्य शिक्षा और पारंपरिक शिक्षा"

आदिवासी समुदाय की नई पीढी को रूढी और परंपरागत ज्ञान का विधिवत हस्तांतरण हो । देश में चल रही शासकीय अशासकीय सेवा पाने और रोजगार धंधा के ज्ञान के लिये देश में प्रचलित सामान्य शिक्षा तो लिया ही जाय । लेकिन समुदाय के परंपरागत सामाजिक सांसकृतिक धार्मिक ज्ञान लेना भी अनिवार्य है । इस ज्ञान के विधिवत नई पीढी को हस्तांतण नहीं होने के कारण नई पीढी और पुरानी पीढी के बीच समझ और तालमेल की कमी हो जाती है । यह कमी आपस में टकराव का कारण बनती है । हालांकि हमारे पुरखों ने परंपरागत ज्ञान का पीढी दर पीढी हस्तांतरण होता रहे इसलिये बहुत से ज्ञान तत्व को दैनिक कार्यों नाच गान किस्से कहानियों में संलग्न कर दिया है ताकि ये क्रम लगातार जारी रहे गोटुल जैसी संस्थाओं के माध्यम से इस ज्ञान को जीवित रखने का प्रयास किया गया है परन्तु कथित विकास की अंधी दौड में नई और पुरानी पीढी के बीच इन विषयों पर संवादहीनता की कमी के चलते पारंपरिक ज्ञान कमजोर हो रहा है । इसलिये गोटुल जैसी संस्थाओं की पुर्नस्थापना तथा पारंपरिक रीतिरिवाज संस्कारों को मजबूत करना होगा । देश के विकसित अन्य समुदाय सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त समुदाय की अ

कहां गई हमारे गांव समुदाय के निस्तार की जमीन

“क्यों नहीं मिले सामुदायिक हक” (वन एवं राजस्व विभाग के झगडे में संरक्षित वनों के नाम पर बेदखली का शिकार होता आदिवासी समुदाय) मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ राज्य में आजादी के पूर्व प्रचलित व्यवस्थाओं के इतिहास के अनुशार   महल, दुमाला, मालगुजार जमींदार , जागीरदार के नियंत्रण में ग्रामीण व्यवस्था को स्वीकार किया गया   रैयतवारी एवं मसाहती ग्रामों की व्यवस्था को तत्कालीन राज्स्व विभाग के नियंत्रण में सोंपा गया                                                                                                                                      आजादी के पहले भी सभी तरह के राजस्व ग्रामों के राजसव अभिलेखों में ग्राम की कुछ भूमियों को राजस्व अभिलेखों में दो तरह से दर्ज किया जाते रहा है पहला तो इस तरह की भूमियों के बडे झाड के जंगल , छोटे झाड के जंगल,   झुडपी, जंगल   , जंगलात , जंगल खुर्द जंगल, जंला , पहाड , चटटान , पठार , घांस , चरनोई चारागाह, गोचर , बीड , सरना , करात , कदीम के नाम से दर्ज किया

"देश का आदिवासी यदि अपने धर्म को सुरक्षित नहीं किया तो उसे धर्मांतरण से कोई नहीं रोक पायेगा ।"

"देश का आदिवासी यदि अपने धर्म को सुरक्षित नहीं किया तो उसे धर्मांतरण से कोई नहीं रोक पायेगा ।" अनेक धर्म की दूकानें उन्हें धर्मांतरित करने में जुटी हैं । आज लाखों लोग धर्मांतरित होकर अपने धार्मिक आकाओं के इशारे पर अपनी मूल परंपरा मूल से धर्म हट चुके हैं । जनगणना 2018 में अपने धर्म संख्या बल को प्रदर्शित करना होगा । हमारा संविधान धर्मनिर्पेक्ष है सभी धर्मों को फलने फूलने का अवसर देता है सभी धर्म के लोग अपने धर्म के विस्तार में लगे रहते हैं तब आदिवासियों को भी अपने धर्म के प्रत ि जागरूक करना आवश्यक है । यह समुदाय की बडी ताकत का सबब है , धर्म यदि महत्वपूर्ण नहीं होता तो महामानव डा0 अम्बेडकर धर्मांतरण नहीं करते ।यदि अन्य बिन्दुओं पर विकास के साथ इस विषय पर ध्यान नहीं दिये और कहते रहे कि हम धर्म पूर्वी हैं हमें धर्म की आवश्यकता नहीं आदि आदि तो सब कुछ मिट चुका होगा जिस तरह अन्य देशों के आदिवासी इसाई मुस्लिम बनकर अनास काल पूर्वी धर्म से विलग हो चुके । आदिवासी दार्शनिक नकल से परे है और प्रकृतिमूलक बना हुआ है । इसलिये सभी लोग इसे आसानी से धर्मांतरित कर लेते हैं । इसी कारण से आज वह सभ

"राष्ट्रपति भी भारत देश का नौकर है ।देश के मालिकों का केयर टेकर है । "

देश में अब तक जितने भी राष्ट्रपति हुए हैं उन्होने सरकारी खजाने से तन्ख्वाह ली है भले ही वह राशि एक रूपया ही क्यों ना हो । बाकी सब राष्ट्रपति के द्वारा देश के मालिकों की बेहतरी के लिये लिये बनाई गई व्यवस्था है जिसे कार्यपालिका व्यवस्थापिका और न्यायपालिका कहा जाता है । इन सब नौकरों को देष की धरती से उत्पन्न राजस्व जो विभिन्न स्त्रोत जैसे खनिज आयकर और अन्य स्त्रोत से सरकारी खजाने में आता है । उस आय से उनके जीवन यापन के लिये भारत सरकार के खजाने से तनख्वाह दी जाती है । ताकि वे भारत सरकार जिसे इस देश का मालिक कहा जाता है । उसके हित में अच्छी सर्विस दे सकें । 
(1) "मोर के आंसू" हम तो पैदा कर लेते हैं दोने से द्रोणाचार्य को, भले नपुंशक रहे परन्तु, बढा लिये परिवार को ।। हो नियोग से बच्चे चाहे, हाथ पैर से निकल पडें, अंधे बनो या मूर्ख कहाओ तीर, बांण से निकल पडे ।। सेक्स सेक्स "आंसू" चिल्लाओ फर्क पडे ना मोर को, हम तो पैदा कर लेते हैं दोने से द्रोणाचार्य को ।। (2) "गाय माता" गैया को मैया कहें पूंजें दिन और रात, बछिया को सिस्टर कहो, तो है हिम्मत की बात । है हिम्मत की बात, बैल को भ्रात पुकारो, है जनमत की राय सांड को बाप पुकारो ।।

"अस्तित्व खोता हमारा गोन्डियन वाद्य यंत्र और वाद्यकला"

गोन्डियन समाज व्यवस्था में गायन,वादन और नर्तक कला पुरातन काल से है। पाषाण काल के भित्ति चित्र हो या सैन्धव काल में उकेरी गई नर्तक मुद्रा के अवशेष हो या मध्य काल के मठों देवालयों में पत्थरों की प्रतिमाओं की भाव भन्गिम मुद्राएं हो गायन,वादन और नर्तक कला की पुरातन से अब तक की जीवन्त यात्रा का एहसास कराती है। जो इन्सानी जीव की महत्वपूर्ण सन्गिनी की भाँति अनवरत चल रही है। सुख और दुःख का अवसर हो या सामाजिक, धार्मिक, सान्स्क्रत िक, ऐतिहासिक प्रसन्ग में या सामान्य मनोरंजन हो हर अवसर मे इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। हो सकता है इन्हीं कारणों से इस विधा को गोन्डियन समाज व्यवस्था ने इसे अनिवार्य मानते हुए हर परम्परा और रीति रिवाज में समाहित कर इसका समाजीकरण कर दिया। कुपार लिन्गो की समाजिक व्यवस्थापन के बाद हो सकता है यह यह विधा समूह केन्द्रित होने लगी हो जो कालांतर में जातिवादी व्यवस्था के प्रभाव में वादक और वाद्य यन्त्र जाति केन्द्रित हो गई हो परन्तु समाजिक सरोकारों से आबद्ध होने के कारण निरन्तर जारी रहा, साथ ही उसे जीविका का साधन बना लेना भी इस विधा के नायकों को जातीय केन्द्रित समुदाय के र