Skip to main content

Posts

Showing posts from March, 2017

"बैगा ,भुमका, दवार या पुजार की जनहितैषी निःस्वार्थ सेवा"

"बैगा ,भुमका, दवार या पुजार की जनहितैषी निःस्वार्थ सेवा" देश के सभी गांवों में खेरोदाई या बूढी दाई है, खीला मुठवा तथा भिमालपेन है । इन ग्राम रक्षक देवताओं को विभिन्न क्षेत्रों राज्यों में अलग अलग नामों से जाना जाता है । सभी गांवों में विभिन्न जाति समुदाय और धर्म के लोग निवास करते हैं । परन्तु ये गांव आज भी खेरोदई, खीला मुठवा तथा उस ग्राम के बैगा ,भुमका, दवार या पुजार के द्वारा धर्मिक रूप से शासित होते हैं । जाति और संप्रदायवाद से उपर उठकर सबके खेत खलिहान फसल सुरक्षा के लिये रोग राई से बचाने बिदरी, खूंट पूजा आदि करके बैगा भुमका दवार या पुजार ग्राम को निःशुल्क सेवा देते हैं । दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि देश में धर्म कर्म में लिप्त विभिन्न वर्ग,जाति और समुदायों ने इन निःशुल्क सेवादारों के बारे कभी चिंतन नहीं किया ! देश के अन्य रजिस्टर्ड मंदिरों या देवालयों में वैतनिक पुजारी नियुक्त हैं, जो केवल धर्म विशेष के समुदायों के लिये सेवा करते हैं , जिन्हें केवल साम्प्रदायिक पुजारी ही कहा जा सकता है, जो बैगा भुमका दवार या पुजार की निःस्वार्थ सेवा की उंचाई को छू भी नही

जय सेवा ! जय प्रकृतिवाद !! जय जोहार !!!

अपील सम्माननीय प्रक्रति पुत्रों,जय सेवा जय जोहार ! हिन्दी भाषा के "धर्म", फारसी उर्दू के "मज़हब” और अन्ग्रेजी भाषा का "रिलीजन" शब्द और उसके आधार पर उनकी अपनी अपनी व्याख्या है । उनकी अपनी आस्था और विश्वास के प्रतीक हैं। उनकी अपनी अलग अलग जीवनचर्या और उपासना पद्धतियाँ हैं। यही कारण है कि इन उपासना पद्धति मे आस्था और विश्वास रखने वाले व्यक्ति तथा समुदाय को एक "नाम" देकर उसे सन्वैधानिक/सामाजिक मान्यता प्राप्त है। वहीं प्रथक आस्था और विश्वास रखने वाले समुदाय (आदिवासीयो) को कोई सन्वैधानिक/सामाजिक मान्यता नहीं दिया गया । इनकी आस्था और विश्वास को सम्मान नहीं दिया गया है । चूंकि आस्था और विश्वास इन्सान की आन्तरिक घटना है इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। विश्व में आदिवासियों की भी अपनी प्रथक जीवनचर्या और उपासना पद्धति है। पर कथित विकसित कही जाने वाले समूहों ने इन आदिवासीयो के जीवनचर्या और उपासना पद्धति के कुछ आवश्यक अन्श/तत्व जो केवल इन्सानी विकास पर केंद्रित रहे हैं , को लेकर अपनी अपनी विचारधारा की श्रेष्ठता साबित करने के विस्तार में जुटे हैं । यही कारण

"देश के प्रमुख आदिवासी समूह की परंपरागत रूढीगत पंचायत व्यवस्था"

"देश के प्रमुख आदिवासी समूह की परंपरागत रूढीगत पंचायत व्यवस्था" A-(कोलारियन समूह का आदिवासी) परंपरागत ग्राम व्यवस्था रूढी पंचायत 1. महतो 2.पुजार 3.सहायक पुजार 4.कोटवार 5.पनघ्ररया B-(गोंडियन ग्राम व्यवस्था रूढी पंचायत) 1. मोकडदम 2.दिवान 3.कोटवार 4. बैगा या दवार 5.गोंडी अहीर जिसे "छिरवई" भी कहा जाता है । C-(भीलियन ग्राम व्यवस्था में रूढी पंचायत) की व्यवस्था और उसके स्थानीय नाम की जानकारी दें । 1- ----------------------- 2- ----------------------- 3- ----------------------- 4- ----------------------- 5- ----------------------- D-यदि कोई और बडा आदिवासी समूह है जिसकी ग्राम व्यवस्था में रूढी पंचायत व्यवस्था हो जिसे उस नाम से जाना जाता हो । (इन नामों को संकलित कर सम्मिलित किया गया है ) 1- -----------------------मांझी, 2- -----------------------मूखिया 3- -----------------------गायता, 4- -----------------------सिरहा , 5- -----------------------कोटवार

"दो धारी तलवार"

"दो धारी तलवार" गोन्डवाना भूमि के आदिवासी समुदाय को अपना सन्घर्ष दो धारी तलवार से करना होगा। इसके लिये बौद्धिक और शारीरिक दोनो बलो की आवश्यकता है ! (१) समुदाय की सान्स्क्रतिक , समाजिक धार्मिक और ऐतिहासिक महत्ता को स्थापित करने के लिये । (२) समुदाय के सवैधानिक अधिकारों, तथा जीवन की ग्यारन्टी जल, जन्गल, जमीन को बचाने के लिये। देश में जितने विकसित समुदाय हैं, इन्होंने अपने समुदाय को पहली बिन्दु में सुद्रढ कर लिया है। इसलिये मजबूती से  दूसरे लक्ष्य पर अपनी पूरी ताकत लगाकर उसे हासिल कर लेता है । आदिवासी समुदाय सोचता है , ऐसे लक्ष्य को हम क्यो हासिल नही कर पा रहे है । मेरा मानना है कि "कोई व्यक्ति, समुदाय या समाज आन्तरिक रूप से ताकतवर नहीं है वह बाहरी युद्ध नहीं जीत सकता " आन्तरिक ताकत से एकता , आत्मविश्वास , द्रढ निश्चय और स्वाभिमान पैदा होता है जिसके बल पर बहुत कुछ हाशिल किया जा सकता है । " हार या जीत" का सूत्र"  मनुवाद v/sप्रकृतिवाद।, मनुस्म्रतिv/sभारतीय सन्विधान, देवv/sदानव,राक्षस।, ब्रह स्पतिv/s शुक्राचार्य, आर्य v/s द्रविड़, मूलनिवा

"याद करो अंग्रेजों और अंग्रेजी शासन को "

याद करो अंग्रेजों और अंग्रेजी शासन को जब अल्प संख्या में गोरे थे भारत में । "तब भी यही धरती यही नदियां यही समाज था । यही चांद यही सूरज और चांद का प्रकाश था ।"  तब भी यही शासन तंत्र था चपरासी से लेकर कलेक्टर तक  अर्दली सिपाही से लेकर पुलिस प्रमुख तक ।  सेना में जवान से लेकर सेना प्रमुख तक ।  पंच से लेकर संसद तक । तब देश के नागरिक इन पदों पर थे तो अन्याय अत्याचार कौन करता था । क्या देश के शासकीय पदों पर बैठे देषी अधिकारी कर्मचारियों को अपनों पर अन्याय अत्याचार करने में मजा आता था ।  1947 के पहले और अब में क्या फर्क है । यदि फर्क नहीं है तो इसे कैसे दूर किया जा सकता है । मुटठी भर अंग्रेज सत्ता के बल पर संसाधनो का मालिक बनकर चंद देशी नागरिकों को पद प्रतिष्ठा और सुविधा देकर अपना चमचा बनाकर रखता था । जिसके कारण अपना अपनों पर अत्याचार करता था । -आज भी स्थिति ज्यों की त्यों है । "अंग्रेजी शासन के विरूद्ध कुछ सेना पुलिस के लोग कुछ अधिकारी कर्मचारी कुछ समाज सेवियों कुछ मजदूर किसानो छात्रों ने अन्याय अत्याचार कि विरूद्ध शंखनाद कर दिया था जो बाद में राष्टीय स्वतंत्रत

" गोंडवाना के आदिवासियों की स्वस्थ्य परंपरा और आधुनिक स्वास्थ्य सेवा"

इंसान ने मानव विकास के आरंभिक काल से ही खान पान और स्वास्थ्य पर पहले चिंता की है । इस चिंता में उसने अनेक जानें न्यौछावर की हैं । किस वस्तु को खाना है किसे नहीं इस पर ही अनेक जानें गईं होगी । इसी तरह आरंभिक इंसानी विकास में स्वास्थ्य संबंधी उपचार में भी अनेक तरह के बलिदान के बाद उपचार के मानक तय किये गये हैं । जो आज की आधुनिक चिकित्सा का बराबरी से साथ दे रहे हैं । जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति अभी शोध  कार्य में ही लगी हुई है । गोंडवाना के आदिवासियों की स्वास्थ्य परंपरा की बराबरी आज भी नहीं कर पा रही है । आधुनिक उपचार प्रणाली को गोंडवाना के आदिवासियों की उपचार प्रणाली से मार्गदर्शन लेने का प्रयास करना चाहिये । हालांकि चुपके चुपके आदिवासियों के इस प्रणाली को अंगीकार करने का प्रयास किया जा रहा है पर कथित डिग्री के एकाधिकार के कारण आदिवासी ज्ञान को अंधविश्वास और रूढि कहकर अविश्वस्नीय करार दिया जाता है जबकि इस पर खुला शोध कोर उस ज्ञान का सम्मान होना चाहिये । गोंडवाना के आदिवायिों का देश के इंसानी स्वास्थ्य के साथ साथ पशु पक्षी चीटी मूंगी तक के उपचार की प्रणाली विकसित कर लिया गया था और इस