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Showing posts from July, 2017

" तो आदिवासी का धर्म/पुनेम क्या है ?"

पान्चवी, छठवीं अनुसूचि में प्रदत्त अधिकार के प्रति जागरूकता अनिवार्य है , पर धर्म पूर्वी का राग आदिवासी को धर्म/पुनेम के प्रति उदासीन कर धर्मांतरण के लिये मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास है। इस मुहिम में आरएसएस एवं ईसाई मिशनरियो के आन्तरिक समझौते की झलक दिखाई देती है । जब आदिवासी हिन्दु नही तब उसका धर्म क्या है ? क्या उसे अपना धर्म लिखने के बजाय हिन्दू या इसाई या अन्य धर्म लिखना चाहिये ? इसका मतलब यह कि आदिवासी भले ही धर्मान्तरण करले पर अपना धर्म ना लिखे । यह विषय सन्वेदनशील है इस विषय पर चिन्तन की आवश्यकता है । - Gsmarkam "आदिवासीयो के"धर्म"कोड से धर्मांतरण रुकेगा अन्यथा आदिवासियत खत्म हो जायेगी। धर्मांतरण से आदिवासीयो की समाजिक , धार्मिक, सान्स्क्रतिक मूल्यों का पतन हो जायेगा ।"- Gsmarkam

"विचारधारा ,देश और समाज"

"विचारधारा ,देश और समाज" हमारे देश में दुनिया की लगभग सभी तरह की विचारधाराओं का चलन है । प्रत्येक विचारधारा की एक जड (रूट) होती है जो बीज से निकलती है । जिसमें उसका तना, शाखा, टहनी, पत्ते, फूल तथा अन्ततः परिणाम के रूप में उसका "फल" मिलता है । ज्ञात हो कि बीज के आन्तरिक गुण यदि कडवाहट के हैं या विषैला होगा तो उसे उपयोग करने वाले पर वह बीज अपने गुणों के अनुरूप प्रभाव डालेगा । उस बीज का प्रभाव बीज से बने तना, शाखा, टहनी, पत्ते, फूल फल पर रहता ही है । विचारधारा विभिन्न आयामो  में कार्य करती है। मानव समाज में यह , उसके सन्सकार, धर्म, सन्सक्रति , साहित्य, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक विषयों में छाया की तरह दिखाई देती है जिसका मूल्यांकन आम समझ के परे की बात होती है । किसी विचारधारा को समझने के लिए उसके "बीज से लेकर पेड़ के हर अवयव की जानकारी और समझ होना चाहिए । आइये हम अपने देश में प्रवाहित कुछ विचारधाराओ का अध्ययन करने का प्रयास करें । मोटे तौर पर विचारधाराओं की जडो का पता लगा पाना आसान नहीं होता है, कि ये जडे कितनी मोटी हैं, कितनी गहराई तक है ? समान्य और औस

आदिवासी और नामित कस्टोडियन राष्ट्रपति की जिम्मेदारी ।

"राष्ट्र पति देश के मालिक आीदवासियों का मात्र संरक्षक है मालिक नहीं " मेरे भारत के मूलवासी आदिवासियों के देश का हमारे देश के नंपुशक विधायिका (जो लगातार डबल्यूटीओ के जाल में फृसकर हमें भी गुलाम करने का रास्ता बना रही है) एैसे और संसद के जनप्रतिनिधियों के द्वारा चुने गये राष्ट्रपति जी  जो विधायक और सांसद अपनी आत्मा की आवाज से अपनी अभिव्यक्ति देने के बजाय अपने पार्टी व्हिप(आंतरिक दबाव) पर वोट डाल रहे हैं एैसे जनप्रतिनिधियो ं के वोट से आप देश के सर्वोच्च पद पर अपना शपथ ग्रहण करेंगे । राष्ट्रपति महोदय जरा ध्यान देना आप केवल आदिवासियों के देश के अंग्रेजो के द्वारा नामित हस्ताक्षरी शासक हो । असली मालिक आदिवासी है आप मालिक नहीं । इसलिये पदग्रहण के साथ आपके मालिकों के हक और अधिकारों को संबोधित अपने राष्ट्र को संबोधित संदेश में यह कहना होगा कि मैं आदिवासिश्यों के देश का एक नामित प्रतिनिधि हूं इसलिये आदिवासी या देश के मूलवासियों के विरोध में जो भी कानून संसद में पेश होंगे सब होंगे अमान्य होंगे चूंकि मैं आदिवासियों और देश का मात्र कस्टोडियन हूं । यदि राट्रपति विकास के नाम पर आदिवासियो

9 अगस्त 2017 "विश्व आदिवासी दिवस" और "आदिवासी ।"

-संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व के आदिवासी जनों के लिये इस दिवस की घोषणा क्यों की ? इनकी जीवन शैली ,भाषा ,धर्म ,संस्कृति और पर्यावर्णीय ज्ञान को सुरक्षित रखने हेतु विश्व के सभी सदस्य देशों से क्यों आग्रह किया ? कभी आदिवासियों ने इस विषय पर चिंतन किया ? साथियों संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व के अधिकांश देशों का विश्वस्तरीय एक शक्शिाली संगठन है ,जो विभिन्न देशों के आपसी विवाद को निपटाने और सुलह करने के लिये बनाई गई है, ताकि कोई देश किसी पर अकारण  आक्रमण ना करे उसका शोषण ना करे । मानवीय हित में इसके द्वारा अनेक नियम और कानून बनाये गये हैं, जिन्हे मानना सदस्य राष्ट्रों की मजबूरी है अन्यथा संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना उसे सबक सिखाने के लिये सदैव तैयार रहती है । संयुक्त राष्ट्र संघ की सैन्य ताकत उसकी स्वयं की सेना है जो सदस्य देशों के सैनिको से बनी है । ,आर्थिक सहायता के लिये विश्व बैंक ,शिक्षा ,स्वास्थ्य आदि के लिये सहायता की शाखायें है ! दुनिया में अनेक विकसित समुदाय हैं पर उनके नाम पर विश्व स्तर पर कोई महत्वपूर्ण दिवस क्यों नहीं, क्या कारण है कि विश्व के आदिवासियों की जीवन पद्धति उनकी भाषा धर

"नगर निकाय चुनाव और पांचवीं अनुसूचि" part -1,part 2

मध्यप्रदेश में 89 विकासखण्ड और 4 जिलों में पांचवी अनुसूचि क्षेत्र घोषित है । संविधान की पांचवीं अनुसूचि में इन क्षेत्रों के आदिवासियों के लिये स्वशासन की व्यवस्था की गई है । परन्तु इन क्षेत्रों में नगरीय निकाय चुनाव के माध्यम से दोहरी शासन व्यवस्था लगातार थोपी जा रही है । एक ओर संविधान आदिवासियों को स्वशासन का अधिकार देता है, दूसरी ओर राज्य में बनने वाली कोई भी सरकार हो संविधान के आशय और मंसूबों पर पानी फेरते हुए आदिवासियों पर दोहरा शासन  थोप रहा है । जानकारी के अभाव में समुदाय चुप है, परन्तु सत्ताधारी और विपक्षी दलों के आदिवासी समुदाय के आरक्षित क्षेत्रों के जनप्रतिनिधि जिन्हें समुदाय विधान सभा और लोकसभाओं में चुनकर भेजता है क्यों चुप हैं । क्या इन्हें मालूम नहीं कि इससे समुदाय का कितना नुकशान हो रहा है । एक नजर हम एैसे क्षेत्रों के नगर परिषद और नगर पालिका, निकाय की तरफ देखे तो एैसे निकाय क्षेत्र लगातार अपने पैर पसारते हुए ग्रामों के अस्तित्व को समाप्त कर रहे हैं । पेसा कानून के तहत दिये गये पंचायती राज अधिनियम के आंशिक अधिकार को भी शनैः शनैः समाप्त कर रहे हैं । स्वतंत्र ग्रामों और

"गोन्डवाना का गोन्दोला"

गोन्ड, गोन्दोला का आधार है , गोन्ड एक समूह है । जिसकी गोन्दोला दर्शन की तरह ही गोन्डी सहित अन्य भाषाओं का समूह है जिसे भाषा विज्ञानी "द्रविण भाषा परिवार" मानते हैं । इसी तरह देश में रूढी और परम्परा में समान व्यवहार तथा धार्मिक क्रियकलापो में प्रकृतिवादी दर्शन का अनुसरण करने वाली तथा आज की जाति व्यवस्था का शिकार अनेक जातियाँ जिन्हें विशेष सन्वैधानिक लाभ से वंचित होना पड़े, क्या ये गोन्दोला का हिस्सा नही है ? गोन्दोला का गोड इन वन्चित जातियों के सन्वैध ानिक अधिकारो के पक्ष में अपनी निश्पक्ष भूमिका अदा कर रहा है ? यदि नहीं कर रहा है तो वह अपने गोन्ड समूह के गोन्दोला के मूल दर्शन का अनुगामी नहीं है। उसे अपने गोन्दोला के अन्दर आने वाले हर जाति के हित मे एक दूसरे से कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ देना होगा । यदि गोन्दोला का एक छोटा सा हिस्सा भी पीडित है तो गोन्दोला समूह की पीड़ा होनी चाहिये । देश के जिन राज्यों में गोन्दोला समूह सन्वैधानिक अधिकारों से वंचित है उनका सदैव साथ देना गोन्दोला समूह का दायित्व है , तभी हम गोन्डवाना के आदर्श को स्थापित कर पायेंगे ।-gsmarkam

"आदिवासीयों का संरक्षक"

आज 17-7-2017 है,देश में एक बार फिर एक रबर स्टैंप पर स्टैंप लगेगी । जो आदिवासियों के संरक्षक के बतौर नामित है और आदिवासी हित की असीम शक्ति लिये बैठता है, पर उस शक्ति का आज तक किसी रबर स्टैंप ने आदिवासी हित में कभी उपयोग नहीं किया, आदिवासी मर रहा है, आदिवासी की जमीन छिन रही है, हमारा संरक्षक उस समय सो रहा होता है । क्या यह भी वही करेगा जो पहले से होता आया है । यदि हां तो हमारा आदिवासी कुटुम्ब परिवार अपना संरक्षक खुद तय करेगा चुना, हुआ जनप्रतिनिधि नहीं ।-gsmarkam 

"समग्र क्रांति आन्दोलन का लक्ष्य "

समग्र क्रांति आन्दोलन का लक्ष्य है समाज का समग्र उत्थान, यही कारण है कि इसकी अनेक समितियां अपने अपने स्तर पर सन्चालित हैं। समिति का भाषा के क्षेत्र में लगातार प्रयास, सान्स्क्रतिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में भी लक्ष्य तय करते हुए आगे बढ रहे हैं । जल, जन्गल , जमीन के लिये अपने हक अधिकारों की जागरूकता के लिये ५ वी एवं ६ वी अनुसूची के शिविरों के माध्यम से लगातार प्रशिक्षण जारी है। परिणाम भी आशाजनक प्राप्त हो रहे हैं । वहीं  धर्म विषय पर जागरूकता बढ़ने से देश का आदिवासी एक समुदाय एक धर्म एक धर्म कोड पर भी चिन्तन मन्थन मे लगा है । अर्थात समग्रता के साथ आन्दोलन गतिशील है । ऐसे मे कुछ असामाजिक तत्व जिन्हे गोन्डवाना समग्र क्रान्ति आन्दोलन के आशय का ज्ञान नही , ऐसे तत्व ५वी अनुसूचि के तहत अधिकारो की जागरूकता और प्रथक धर्म कोड पर चल रहे कार्यक्रम के बीच भेद पैदा करने का प्रयास कर रहे है जो गोन्डवाना समग्र क्रान्ति आन्दोलन के लक्ष्य मे बाधक बनने का प्रयास कर रहे है जबकि गोन्डवाना समग्र क्रान्ति आन्दोलन की थीम है कि जो व्यक्ति जिस तासीर या रुचि का है उसे अपनी रुचि की शाखा मे अन्य क

"9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस पूर्व सन्देश"

गोन्डवाना के समस्त आदिवासी भाइयों ध्यान दें, यूएनओ आदिवासी का जो भी मतलब निकालता हो, हमारे देश के बुद्धिजीवि इसका मतलब जो भी निकालते हो , पर यूएनओ की परिभाषा में आने वाले सभी जाति और समुदाय के लिए यह दिवस है, यूएनओ का मकसद केवल यह है कि, जिन लोगों ने इन्सानी अग्रज होने का आज तक अगुआई किया है,जो आज भी इन इन्सानी मूल्यों को बचाकर रखे हैं, ये सब आदिवासी या इन्डीजीनियस हैं । ९ अगस्त इन्सानियत की नीव रखने वाले इन्सानो के सम्मान का दिव स है , इसे किसी देश के सन्विधान की सूची में जनजातियों के रूप में लिस्टेड करने से नहीं है । सूचि हमें भ्रमित करती है। सूचि में शामिल हो गया तो वह हमारा भाई हो गया , सूचि से बाहर हो गया तो वह हमारा भाई नहीं रहा, यह कैसा प्राकृतिक न्याय है जरा सोचो ! सन्कीर्ण मानसिकता हमारा नुकसान करेगी। प्रक्रतिवादियो का ह्रदय विशाल होना चाहिए , दुनिया को इन्सानी मार्गदर्शन देने वाले को उतना हीं बड़ा दिल और दिमाग लेकर चलना चाहिए ,जय सेवा जय जोहार जय गोडवाना -gsmarkam

"दोहरी शिक्षा नीति और शासकीय सेवको की भर्ती में धांधली की जडें "

भारत के संविधान ने मानव मूल्यों के हर पहलू पर अपना ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है । देश की परिस्थितियों सामाजिक में असमानता का ध्यान रखते हुए समाज के हर तबके के लिये सुनियोजित व्यवस्था देने का प्रयास किया गया है ताकि देश का कोई भी नागरिक भेदभाव का शिकार ना हो उन्नति के अवसर से वंचित ना हो जाये । समाज के समग्र उत्थान की कडी में शिक्षा और रोजगार का महत्वपूर्ण स्थान है जिसमें स्वरोजगार से लेकर शासकीय सेवा त क के लिये संविधान में बेहतर व्यवस्था की गई है । परन्तु समय समय पर सत्तारूढ राजनैतिक दलों नें संविधान की की मूल भावनाओं के साथ खिलवाड करते हुए अपने लिये अनेक तरकीबे निकालते रहे हैं जो आज तक बदस्तूर जारी है । जिसका दुष्प्रभाव से वंचित समाज पर ही पड रहा है । शिक्षा के क्षेत्र में (1)-राज्य शिक्षा बोर्ड वहीं पर (2)-केंन्द्रीय शिक्षा बोर्ड तथा (3)- अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड एक देश एक नागरिकता एक क्लास पर सभी का पाठयकृम सिलेबस अलग अलग आखिर किसलिये । शिक्षा पर दोहरा मापदण्ड क्यों । आप समझ सकते हैं आई ए एस आरईएस या अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में कौन सफल होता है । जैसे तैसे शिक्षा प्

"शासकीय सेवा रूचि या मजबूरी"

पोस्ट ग्रेजुएट इंजीनियर और डाक्ट्रेट युवा जब अपने शैक्षणिक स्तर से नीचे की नौकरियों के लिये आवेदन करता है , तब इसे रोजगार की मजबूरी नहीं तो क्या कहेंगे । इंजीनियरिंग का युवा बैंक का मेनेजर बाबू बन रहा है एम बी ए पास युवा शिक्षक बनने के लिये अप्लाई कर रहा है । कही कहीं तो ग्रेजुएट लोग पुलिस और चपरासी का इन्टरव्यू देते दिखाई दे रहे हैं क्यों । यही ना कि जिस विषय पर डिप्लोगा डिग्री लिया है उस पद पर वह इसलिये अपने आप को अक्षम पाता है उसकी माली हालत नहीं कि वह लगातार संघर्ष कर सके अंतत बेरोजगारी के कारण अपनी शिक्षा और योग्यता से समझौता कर एैसे कदम उठाता है । युवाओं में कमी है या शासन प्रशासन की व्यवस्था में कमी है । इसे समझना होगा । मिलिट्री सर्विस में जाने वाले छोटी पोस्ट के युवा केवल देश भक्ति के जज्बे से सैनिक नहीं बन रहे हैं, केवल बेरोजगारी के चलते लाखों युवा मिलिट्री भर्ती में लाईन से खडे दिखाई देते हैं । क्या इन

"व्यापारिक मानशिकता का शिकार हो रही हमारी व्यवस्था ।"

"व्यापार का सीधा अर्थ है लाभ कमाना चाहे लाभ का कोई रास्ता हो । लाभ के अंदर लोभ लालच छुपा रहता है जो ग्राहक को व्यापारी की मासूमियत के सामने दिखाई नहीं देता । लोभ के चलते लाभ कमाने की कोई सीमा नहीं होती । जैसा ग्राहक वैसा दाम । व्यापार के इसी दुर्गुण ने पूंजीवाद को जन्म दिया है मिलावट खोरी जमाखोरी को पैदा किया है नकली उत्पाद को बढावा दिया है । लाभ् के सामने गरीब या गरीबी का कोई मायना नहीं । व्यापार कभी संतुष्ट नहीं होने देगा  । व्यापार का सामाजिक सरोकार से कोई नाता नहीं । बल्कि प्राकृतिक आपदा या अकाल जैसी स्थिति में व्यापारी बुद्धि की आंखों में चमक आ जाती है । आज के समय में सत्ताधारी सरकारें भी व्यापारी की भूमिका में आ चुकी हैं । जनहित और विकास के मुददों पर लाभ हानि देखने लगीं है । सामाजिक सरोकारों से जुडे आवश्यक बजट में कटौती केवल इसलिये कि सरकार का खजाना खाली हो जायेगा । शासकीय सेवा में लगातार कर्मचारियों की छंटनी भी इसी का नतीजा है । देश का नागरिक और नागरिक का दिया टेक्स ,देश की धरती का खनिज, देश की संपत्ति इसमें लाभ हानि का सवाल नहीं वरन अधिक से अधिक रोजगार मुहैया कर, सम

जीएसटी से ज्यादा जरूरी है सच्चे और ईमानदार संस्कार की ।

जिस देश में भाले भाले आदिवासियों से साहूकार बहुमूल्य चिंरौजी मेवा को नमक के तौल पर खरीदकर बेवकूफ बना लेता हे । चावल में कंकड मिलाकर बेचकर मुनाफा कमाता हो । एक्सपायरी डेट की दवाईयों को केवल लाभ कमाने के लिये बेच देता हो एैसे देश में जीएसटी नहीं उसका बाप भी आ जाये तो कर चोरी नहीं रूक सकती । पेट्रोल और डीजल पर जीएसटी नहीं जब उनके भाव बढेंगे तो गंहगाई स्वत बढेगी कोई भी वस्तु देश में समान दर से मिलना संभव नहीं । व्यापारी रास्ता खोज ही लेगा कृत्रिम अभाव पैदा करके ग्राहको को उंचे दाम पर बिना रसीद दिये या नकली बिल बाउचर संधारित कर खरीददारी के लिये मजबूर करेगा ! मंहगाई और कालाबाजारी नहीं रूक सकती जिसकी मार गरीबों और अशिक्षितों पर पडेगी । देश को सच्चे और ईमानदार संस्कारों की आवश्यकता है ।-gsmarkam