Skip to main content

"अस्तित्व खोता हमारा गोन्डियन वाद्य यंत्र और वाद्यकला"


गोन्डियन समाज व्यवस्था में गायन,वादन और नर्तक कला पुरातन काल से है। पाषाण काल के भित्ति चित्र हो या सैन्धव काल में उकेरी गई नर्तक मुद्रा के अवशेष हो या मध्य काल के मठों देवालयों में पत्थरों की प्रतिमाओं की भाव भन्गिम मुद्राएं हो गायन,वादन और नर्तक कला की पुरातन से अब तक की जीवन्त यात्रा का एहसास कराती है। जो इन्सानी जीव की महत्वपूर्ण सन्गिनी की भाँति अनवरत चल रही है। सुख और दुःख का अवसर हो या सामाजिक, धार्मिक, सान्स्क्रतिक, ऐतिहासिक प्रसन्ग में या सामान्य मनोरंजन हो हर अवसर मे इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। हो सकता है इन्हीं कारणों से इस विधा को गोन्डियन समाज व्यवस्था ने इसे अनिवार्य मानते हुए हर परम्परा और रीति रिवाज में समाहित कर इसका समाजीकरण कर दिया। कुपार लिन्गो की समाजिक व्यवस्थापन के बाद हो सकता है यह यह विधा समूह केन्द्रित होने लगी हो जो कालांतर में जातिवादी व्यवस्था के प्रभाव में वादक और वाद्य यन्त्र जाति केन्द्रित हो गई हो परन्तु समाजिक सरोकारों से आबद्ध होने के कारण निरन्तर जारी रहा, साथ ही उसे जीविका का साधन बना लेना भी इस विधा के नायकों को जातीय केन्द्रित समुदाय के रूप में रहने के लिए आकर्षित किया हो । वाद्य का जाति से सम्बन्ध होने के अन्य कोई कारण हो सकते हैं। लेकिन आज के दौर में गोन्डियन समाज व्यवस्था से इस विधा का निरन्तर होता ल्हास चिन्ता का विषय है। अत् इस महत्वपूर्ण वाद्य और वादक के समाज को दिये जा रहे योगदान को सम्मान देकर प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इसी ध्येय से अब तक जो कुछ भी बचा हुआ है और किसके पास बचा है। इसकी सन्क्षिप्त जानकारी प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ, ताकि गोन्डियन समूह में उनकी उपयोगिता और अनिवार्यता का बोध कराया जा सके।
(१) नगाड़ा वाद्य- वादक-नगारची -वादन अवसर:-जन्म,विवाह और म्रत्यु सन्सकार में।
(२)कीकडी/किगरी-वादक-पाना-वादन अवसर:-म्रत्यु सन्सकार, समाजिक , धार्मिक,सान्स्क्रतिक एवं ऐतिहासिक जागरण।
(३)डेहकी/ढाक-वादक-ओझा -वादन अवसर:-समाजिक , धार्मिक, सान्स्क्रतिक एवं ऐतिहासिक जागरण।
(४)तुर्रा /सिन्गही-वादक-बैगा/भुमका-वादन अवसर:-सन्जोरी,बिदरी, जवारा , मडई जतरा ।
(५)चिकाडा - वादक-पठारी-वादन अवसर:-समाजिक , धार्मिक, सान्स्क्रतिक एवं ऐतिहासिक जागरण
(६)किन्दरा/ भीमा पुरका -वादक-भीमा-वादन अवसर:-समाजिक , धार्मिक, सान्स्क्रतिक एवं ऐतिहासिक जागरण
(७)टिपरी/फोहरा/जोड़ा बासुरी -वादक-कोपा/गायकी/गोवारी/अहीर-वादन अवसर:-दिवारी,मडई और पशुधन चराई ।
(८)मान्दर/गुदुम-वादक-सामान्य नागरिक-वादन अवसर:-पूजा अनुष्ठान और मनोरंजन ।
(९)ढोल/ढोलकी/ढपला-वादक-ढोलिया-वादन अवसर:- जन्म, म्रत्यु, आकस्मिक सूचना । इस तरह अन्य और भी महत्वपूर्ण वाद्य और वादक जातियाँ हैं जिन्हें अन्य अवसर पर प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा , मैंने जिन वाद्य यंत्र और वादक जातियों के नाम का उल्लेख किया है ये वास्तव में गोन्डियन समूह के महत्वपूर्ण कला इकाई के अन्ग हैं जो आज हमें जाति के रूप में दिखाई देती हैं ये जातिया नहीं कला समूह रहे हैं । देश के विभिन्न हिस्सों में इस समूह का नाम गोन्डी तथा अन्य भाषा मे भाषाई अन्तर के कारण अलग अलग हो सकता है । अत् अन्य भाषाओं की जानकारी के अभाव में केवल गोन्डी में लिखा गया है । इस सन्कलन में कोई त्रुटि या दोष हो तो आप सभी मित्रो से मार्गदर्शन की अपेक्षा रहेगी।- gsmarkam

Comments

Popular posts from this blog

"मरकाम गोत्र के टोटम सम्बन्धी किवदन्ती"

मध्यप्रदेश के गोन्ड बहुल जिला और मध्य काल के गोन्डवाना राज अधिसत्ता ५२ गढ की राजधानी गढा मन्डला के गोन्ड समुदाय में अपने गोत्र के पेन(देव) सख्या और उस गोत्र को प्राप्त होने वाले टोटेम सम्बन्धी किवदन्तिया आज भी यदा कदा प्रचलित है । लगभग सभी प्रचलित प्रमुख गोत्रो की टोटेम से सम्बन्धित किवदन्ति आज भी बुजुर्गो से सुनी जा सकती है । ऐसे किवदन्तियो का सन्कलन और अध्ययन कर गोन्डवाना सन्सक्रति के गहरे रहस्य को जानने समझने मे जरूर सहायता मिल सकती है । अत् प्रस्तुत है मरकाम गोत्र से सम्बन्धित हमारे बुजुर्गो के माध्यम से सुनी कहानी । चिरान काल (पुरातन समय) की बात है हमारे प्रथम गुरू ने सभी सभी दानव,मानव समूहो को व्यवस्थित करने के लिये अपने तपोभूमि में आमंत्रित किया जिसमें सभी समूह आपस में एक दूसरे के प्रति कैसे प्रतिबद्धता रखे परस्पर सहयोग की भावना कैसे रहे , यह सोचकर पारी(पाडी) और सेरमी(सेडमी/ ्हेडमी) नात और जात या सगा और सोयरा के रूप मे समाज को व्यवस्थित करने के लिये आमन्त्रित किया ,दुनिया के अनेको जगहो से छोटे बडे देव, दानव ,मानव समूह गुरू के स्थान पर पहुचने लगे , कहानी मे यह भी सुनने को मिलत

गोंडी धर्म क्या है

                                          गोंडी धर्म क्या है   गोंडी धर्म क्या है ( यह दूसरे धर्मों से किन मायनों में जुदा है , इसका आदर्श और दर्शन क्या है ) अक्सर इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं। कई सवाल सचमुच जिज्ञाशा का पुट लिए होते हैं और कई बार इसे शरारती अंदाज में भी पूछा जाता है, कि गोया तुम्हारा तो कोई धर्मग्रंथ ही नहीं है, इसे कैसे धर्म का नाम देते हो ? तो यह ध्यान आता है कि इसकी तुलना और कसौटी किन्हीं पोथी पर आधारित धर्मों के सदृष्य बिन्दुवार की जाए। सच कहा जाए तो गोंडी एक धर्म से अधिक आदिवासियों के जीने की पद्धति है जिसमें लोक व्यवहार के साथ पारलौकिक आध्यमिकता या आध्यात्म भी जुडा हुआ है। आत्म और परआत्मा या परम आत्म की आराधना लोक जीवन से इतर न होकर लोक और सामाजिक जीवन का ही एक भाग है। धर्म यहॉं अलग से विशेष आयोजित कर्मकांडीय गतिविधियों के उलट जीवन के हर क्षेत्र में सामान्य गतिविधियों में संलग्न रहता है। गोंडी धर्म

“जय सेवा जय जोहार”

“जय सेवा जय जोहार”  जय सेवा जय जोहार” आज देश के समस्त जनजातीय आदिवासी समुदाय का लोकप्रिय अभिवादन बन चुका है । कोलारियन समूह ( प्रमुखतया संथाल,मुंडा,उरांव ) बहुल छेत्रों में “जोहार” का प्रचलन परंपरागत परंपरा से है । वहीं कोयतूरियन समूह (प्रमुखतया गोंड, परधान बैगा भारिया आदि) बहुल छेत्रों में “जय सेवा” का प्रचलन परंपरागत परंपरा से है साथ ही इन समूहों में हल्बा कंवर तथा गोंड राजपरिवारों में “जोहार” अभिवादन का प्रचलन है । जनजातीय आदिवासी समुदाय का बहुत बडा समूह “भीलियन समूह’( प् रमुखतया भील,भिलाला , बारेला, मीणा,मीना आदि) में मूलत: क्या अभिवादन है इसकी जानकारी नहीं परन्तु “ कणीं-कन्सरी (धरती और अन्न दायी)के साथ “ देवमोगरा माता” का नाम लिया जाता है । हिन्दुत्व प्रभाव के कारण हिन्दू अभिवादन प्रचलन में रहा है । देश में वर्तमान आदिवासी आन्दोलन जिसमें भौतिक आवश्यकताओं के साथ सामाजिक ,धार्मिक, सांस्क्रतिक पहचान को बनाये रखने के लिये राष्ट्रव्यापी समझ बनी है । इस समझ ने “भीलियन समूह “ में “जय सेवा जय जोहार” को स्वत: स्थापित कर लिया इसी तरह प्रत्येंक़ बिन्दु पर राष्ट्रीय समझ की आवश्यकता हैं । आदि