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Showing posts from August, 2017

"मनुवाद मुक्त सोच ,मनुवाद मुक्त विचार और मनुवाद मुक्त व्यवहार ही मूलनिवासियी,मूलवासियों के मुक्ति का आधार है !!!"

"एक नजर इधर भी" मनुवाद ने एैसा जाल फैलाया है कि इसकी जाल में मनुवादी विचारधारा में फंसे मूलवासी, मूलनिवासी राजनीतिक नेता, धार्मिक गुरू या अच्छे ब्यूरोक्रेट हो ,सब अंततः फंसते ही हैं । जब तक एैसे लोग मनुवाद के पोषक बने रहते हैं ,तब तक उन्हें अवसर मिलता रहता है । यदि मनुवादी विचारको को लगा कि ये अब कंट्रोल से बाहर जा रहा है, तब अपने आरंभिक प्रायोजित जाल जिसमें भृष्टाचार (पर आंख बंद कर लेना) पर प्रतिक्रिया नहीं देना, बलात्कार के लिये (विष कन्याओं का प्रयोग, अवसर की प्रतीक्षा) ज ैसे हथियार का आरंभ से ये रोपण कर चुके होते हैं । इतने गहरे पर जाकर मनुवाद मार करता है कि, आम समझ तो बाहरी हवा में ही बहकर रह जाता है । उसे क्या पता कब, कहां, किसे, कैसे जाल में फंसाया जा रहा है । राजनीति और बाबागिरी का लंबा इतिहास है, जिसमें मनुवाद का संचालक इन मसलों में पडे तो "ईश्वर की लीला" समझ आम जनता का नायक (देवता) हो जाता है । मनुवाद के खिलाफ चलकर ताकतवर होने वाला,जनता के बीच , खलनायक (भृष्टाचारी, बलात्कारी, देशद्रोही) तक घोषित हो जाता है । मनुवाद के इस मनोवैज्ञानिक घेरे से हमारा देश अभी

"आन्दोलनकारियों के लिये एक छोटी सी भेंट"

"पहले मिटटी एकत्र करो उसमें से कचरा साफ करो । फिर मिटटी को पूरी तरह भीगने दो, फिर उसे वांछित तत्व मिलाकर मिक्स करो, फिर तैयार मिटटी को चाक या हाथ में लेकर मनचाही आकृति बनाओ,फिर आक्रति बनाकर सूखने दो जब तक पूरी तरह सूख ना जाये तब तक उसकी रखवाली करो, फिर उसे सम्हालकर भटटी में पकने के लिये डाल दो, फिर पकने के बाद उसका मनचाहा उपयोग करो । अन्यथा बिना पकाये उस आकृति को छोड दोगे तो, उसका उपयोग केवल देखने मात्र के लिये होगा कार्य के लिये नहीं । बिना पकी आकृति पर अन्य कोई भी तैयार माल समझकर पानी डालकर अपनी इच्छा की आकृति बना लेगा आप कहेंगे आखिर यह कैसे हुआ । इसलिये आकृति को पकने तक पूरी सुरक्षा और पकने के बाद सुरक्षा के साथ उपयोग किया जाने वाला तरीका आकृति की उम्र और आपकी मेहनत का लम्बा परिणाम देगी ।" -किसी आन्दोलन में अक्सर यह देखने में आता है कि किसी को आन्दोलन की थोडी बहुत समझ आ गई तो वह समझता है, मुझे अब ज्ञान की आवश्यकता नहीं । जिसे थोडी बहुत जानने या आन्दोलन के साथ चलने की जिज्ञासा हो, एैसे लोगों को नकारा बताकर हतोत्साहित नहीं करना चाहिये, कारण कि अब तक बह जिन परिस्

संसद पर कोर्ट का दखल स्वाभाविक नहीं सोची समझी रणनीति को हिस्सा है ।

"किसी भी राष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण निर्णयों के संदर्भ में कोर्ट की भूमिका" (संसद पर कोर्ट का दखल स्वाभाविक नहीं सोची समझी रणनीति को हिस्सा है ।) पंगु संसद हर बात और हर प्रकरण चाहे बाबरी कांड भृष्टाचार या आरक्षण या अन्य मुददों को कोर्ट में लाकर जनता का घ्यान कोर्ट की तरफ ले जा रही है, उसे शक्तिशाली बनाना चाहती है । ताकि संसद की जिम्मेदारियों कमियों को भुलाया जा सके और कोर्ट को महत्वपूर्ण बताकर कोर्ट के माध्यम से शक्ति को केंद्रित करना चाहती है । संसद की असीम शक्ति को जो विपक्ष और जनपक्ष की समझ वाले कुछ जनप्रतिनिधि और विचारकों के चलते संविधान में बदलाव कभी नही कर सकती । एैसे मौके पर आर एस एस का एकात्मवाद और तानाशाही दर्शन को कोर्ट के माध्यम से उसे शक्तिशाली बनाकर फिर उसे अपने हाथ में लेकर हिटलरी लक्ष्य को हासिल किया जा सके । यही नाटक समय समय पर चलता रहेगा । इसे समझने की आवश्यकता है । आप हम जनता हैं सूक्ष्म समज की कमी के चलते बहुतेरे मौके पर भावनाओं में बहकर अपनी धारणा बदल कर तुरंत सोचने और व्यवहार में उतर आते हैं । 

अखिल भारतीय गोंडवाना गोंड महासभा 13वां राष्ट्रीय अधिवेशन 2018

15 अगस्त 1947 के पूर्व से ही गोडवाना के राजा महाराजाओं में अपनी प्रजा के हित में गोंडवाना के समग्र विकास की अवधारणा को लेकर 1930 में अखिल गोंडवाना गोंड महासभा का गठन किया जा चुका था जिसका प्रथम अधिवेशन 1932 में इटका नैनपुर में सम्पन्न हुआ । जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों से जैसे वर्तमान उड़ीसा , झारखंड , छत्तीसगढ़ , मध्य भारत और आंध्र प्रदेश , महाराष्ट्र , गुजरात के गोंड के अंतर्गत आने वाली सभी उपजातीय समुदाय के लोग जो वर्तमान संविधान में स्वतंत्र जाति के रूप में स्थापित हैं इस महासभा में शामिल हुए । प्रथम अधिवेशन में सारंगढ के राजा मा 0 जवाहर सिंह को सर्वसम्मति से अध्यक्ष तथा मण्डला से मा 0 मंगरू सिंह उईके जी को सचिव के रूप में मनोनीत किया गया । संरक्षक सदस्यों के रूप में राजे अहेरी , पलासगढ़ , हर्रईपगारा , सारंगढ़ , सम्बलपुर , देवगढ़ के राजाओं ने महासभा की जिम्मेदारी ली । राजे सरेखा , भैंसदेही , बैतूल तथा मकड़ई के राजाओं को कार्यकारिणी सदस्य के रूप में स्थापित किया गया । इस संगठन ने 1932 से 1934 तक लगातार जंगल कानून के विरोध में देश भर में आन्दोलन चलाते हुए 1934 में सिवनी में पुनः अधिवेश

"तलाक, तलाक, तलाक"

"तलाक, तलाक, तलाक" पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला समान नागरिक संहिता का रिहर्सल तो नहीं ? मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति मिल गई । मुस्लिम समुदाय का सामाजिक अनुशासन बनाये रखने वाली एक सामाजिक नियम रूपी कडी टूट गई अर्थात मुस्लिम समुदाय के परिवार की लडाई अब समाज से निकलकर कोर्ट तक चली गई । सभी नारी समुदाय एक समान । इस फैसले ने जनता को समान नागरिक, समान कानून हो इसकी सोच के आसपास खडा कर दिया । प्रथम दृष्टि में यह फैसला औसत बुद्धि के सभी नागरिको को संतुष्ट करता है । परन्तु इस फै सले ने देश के बुद्धिजीवियों को भी जाने अंजाने में भयाक्रांत किया है । वे इस फैसले के भविष्य में मिलने वाले परिणाम को जानते हैं,परन्तु स्पष्ट प्रतिक्रिया देकर विशाल जनता के कोप भाजन का शिकार होने से बचना चाहते हैं । मेरा मानना है कि यह फैसला महिला समानता के साथ साथ समान नागरिक संहिता का मार्ग प्रशस्त करने का रिहर्सल है, जिसमें आर्य अनार्य नागरिक के इतिहास की बलि देकर समान नागरिकता का परिचय, अंततः समान नागरिक तो समान अधिकार, और समान अधिकार इसलिये नागरिकों को आरक्षित ,अनारक्षित के रूप में विभाजित करने वाल

"आदिवासी को आदिवासी संस्कारों की दरकार है "

जिन आदिवासी भाईयों को लगता है कि धर्मात्रण से हमारी आदिवासी ताकत कमजोर हो रही है तो उनका मानना एक हद तक लाजिमी है । आदिवासी हिन्दु बनकर पाखण्ड में पड जाता है । ईसाई बनकर व्यक्तिवाद अर्थात ईसा मसीह का भक्त बनकर उसके उपदेशों को सर्वोपरि मानने लगता है । प्रकृतिवाद के दर्शन से दूर चला जाता है । जबकि आदिवासी प्रकृतिवादी है, ना वह हिन्दुत्व के पाखण्डी धर्म को अंगीकार करता है ना ही ईसाई के ईसा मसीह के व्यक्ति पूजा पर विश्वास करता है । वह  तो प्रकृति पूजक है ,उसे तो पेड पौधे में हवा, पानी में आस्था रखने से अपना जीवन सुरक्षित महसशूस करता है । तब उसे प्रकृति या निसर्ग के सत्य से मानवीकृत आस्था की ओर ले जाने का प्रयास क्यों किया जाता है । आदिवासी यानि निसर्ग पर विश्वास करने वाला, परन्तु अन्य विचारधारायें उन्हें व्यक्तिवाद की ओर धकेल रहीं हैं ,जो अदिवासी की आस्था और विश्वास जो सत्य पर आधारित है, उससे विलग करने का प्रयास किया जाना अदिवासी अस्मिता के लिये घातक है । हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई होकर भी शासकीय लाभ की सूचि के लिये आदिवासी होकर रहा जा सकता है । लेकिन हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई होकर आदिवासी की मूल

"प्रक्रति पुत्रों की जीवनचर्या और उपासना पद्धतियाँ"

हिन्दी भाषा के " धर्म ", फारसी उर्दू के " मज़हब और अन्ग्रेजी भाषा का " रिलीजन " शब्द और उसके आधार पर उनकी अपनी अपनी व्याख्या है । उनकी अपनी आस्था और विश्वास के प्रतीक हैं। उनकी अपनी अलग अलग जीवनचर्या और उपासना पद्धतियाँ हैं। यही कारण है कि इन उपासना पद्धति मे आस्था और विश्वास रखने वाले व्यक्ति तथा समुदाय को एक " नाम " देकर उसे सन्वैधानिक / सामाजिक मान्यता प्राप्त है। वहीं प्रथक आस्था और विश्वास रखने वाले समुदाय आदिवासीयो को कोई सन्वैधानिक / सामाजिक मान्यता नहीं दिया गया।इनकी आस्था और विश्वास को सम्मान नहीं दिया गया है । चूंकि आस्था और विश्वास इन्सान की आन्तरिक घटना है इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। विश्व में आदिवासियों की भी अपनी प्रथक जीवनचर्या और उपासना पद्धति है। पर कथित विकसित कही जाने वाले समूहों ने इन आदिवासीयो के जीवनचर्या और उपासना पद्धति के कुछ आवश्यक अन्श / तत्व जो केवल इन्सानी विकास पर केंद्रित रहे हैं , को लेकर अपनी अपनी विचारधारा की श्रेष्ठता साबित करने के विस्तार में जुटे हैं । यही कारण था और है भी कि श्रेष्ठता साबित करने के उहाफ

"आदिवासी अधिकार"

"बाप को मजबूत करने से पहले शासन प्रशासन को बेटे से दो दो हाथ होने दो ।" मध्यप्रदेश राज्य सहित कुछ राज्यों में 5 वीं अनुसूचि का बच्चा "पेसा कानून" सभी जनजाति के लिये अनुसूचित जिलों, ब्लाकों और माडा क्षेत्रों में लागू है ,जिसके नियम प्रदेश सरकार ने बनाकर रखे हैं । त्वरित लाभ पाने के लिये इस नियम के तहत आप अपने ग्राम की उन्नति के लिये टोला ,पारा या मोहल्ला की ग्राम सभा, पंचायत समिति के माध्यम से अपने हित के लिये फैसले, प्रस्ताव बनाकर बिना सरपंच की सहमति से प्रस् ताव पारित कर अगली कार्यवाही एसडीएम या तहसील दार को भेज सकते हैं ,वह आपके प्रस्ताव पर कार्यवाही के लिये बाद्धय है । अन्यथा संविधान के नियमों का उल्लंघन करने के जुर्म में उस पर देशद्रोह का मुकदमा कायम किया जा सकता है । उदाहरण के लिये आपके मोहल्ला ,पारा ,टोला में यदि कोर्द रेत खदान है तो उसकी रायल्टी आप ले सकते हैं । यदि आपके मोहल्ला या ग्राम में कोई व्यापारी आपकी सीमा में व्यापार के उददेश्य से कोई सामान बेचने आता है, तो आप उस पर सर्वसम्मति से तय टेक्स ले सकते हैं । कोई आपके टोला, पारा ,मोहल्ला में आने का प्रयास

"अन्ग्रेजी राज्य के नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट) की तरह व्यवहार करता है, आज का हमारे बीच का पैदा देशी नौकरशाह"

कथित आजादी के बाद आजाद भारत होने के पक्षधरों को हमारे देश में चल रही नौकरशाही और राजनेताओं के चरित्र का मूल्यांकन करना नहीं आयाए वरन् आज की व्यवस्था को सीधा नकार दिया जाता । आज का नौकरशाह देश के आम नागरिक के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहा है जैसे उस वक्त का नौकरशाह करता था ।उसे आम नागरिक के दुख तकलीफ से कोई लेना देना नहीं है उसे तो बस शासन से प्राप्त सुविधाओं का उपभोग करना है और तरक्की के लिये सत्ताधारियो की हां में हां मिलाना है ! जबकि कथित आजादी के बाद देश और देशी नागरिक के प्रति इनकी सन्वेदना बढनी चाहिये पर यह सब इन्हें नागवार सी लगती है । आखिर देश की आजादी का क्या मतलब जब देश की व्यवस्था मुट्ठी भर अन्ग्रेजो के द्वारा बहुसंख्यक जनता को नियंत्रित करने के उद्देश्य से कायम किया गया था । जिसका प्रशिक्षण का पैमाना या सिलेबस बहुसंख्यक जनता को नियंत्रित करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने तैयार कर भारतीय ब्यूरेक्रेसी की नीव डाली थी । ठीक इसी तरह इंग्लैंड का सारी दुनिया के देश में राज करने के अपने नेताओं के तरीकों को भी भारतीय व्यवस्था ने ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया । यही कारण है कि 1947

"आदिवासी राजनीति और राजनीतिक प्रतिबद्धता"

"राजनीतिक प्रतिबद्धता के मामले में सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक सन्गठनो का रुख स्पष्ट होना चाहिए" आदिवासी समुदाय हमेशा से विभिन्न राजनीतिक विचारधारा के दलों में अपनी सुरक्षा और और सहयोग का आधार खोजता रहा है। आरम्भिक समय मे कान्ग्रेस के नेताओं ने उसे पूरी तरह आश्वस्त किया कि हमारे अलावा कोई भी तुम्हारा भला नहीं कर सकता, परिणाम स्वरूप सारा आदिवासी समुदाय और समुदाय की अगुआई करने वाले लोग कान्ग्रेस का वोट बैंक बन गए। समुदाय ने अब कुछ होगा अगली बार कुछ हो सकता है , इसी ऊहापोह में अनेक पन्चवर्षीय योजनाओं का समय निकाल दिया।स्थिति बाहर से बनती दिखी पर अन्दर से सन्विधान के अनेक सन्शोधनो से लगातार खराब होती चली गई अर्थात आदिवासीयो की जड़ें हिल गई। जबकि अन्ग्रेजी राज्य के कानून ने भी आदिवासीयो को सुरक्षित और सरक्षित रखा था जिसे १९५० में सन्विधान निर्माण के समय सन्विधान में भी सन्विधान सभा के विद्वान आदिवासी नायक जयपाल मुन्डा जी, आदिवासी हितों को ज्यो का त्यों स्थान देने में सफल रहे। परन्तु १९५० के बाद सत्ताधारियो ने आदिवासी हितैषी अनुच्छेद और धाराओ में लगातार सन्शोधन करत

"गोन्डवाना गोन्डी शब्दकोश "गोन्डवाना को समर्पित"

धन्यवाद सीजी नेट ! धन्यवाद शुभ्रान्शु ! "गोन्डी भाषा मानकीकरण" की परिकल्पना, सीजी नेट के सन्चालक सम्माननीय सुभ्रान्शु चौधरी जी एवं सीजी नेट की इकाई "आदिवासी स्वरा" के सन्चालक रमेश कासा के बौद्धिक और तकनीकी सहयोग से तथा आरम्भिक सेमीनारो में लिगोवासी डा०मोतीरावन कन्गाली जी एवं अन्तिम सेमिनार तक साहित्यिक पुरोधा तिरुमाल सुन्हेर सिह ताराम जी एव तिरुमाल डा०के०एम० मैत्री जी डा0 श्याम कुरेटी के शब्दकोष रचना सम्बन्धी ज्ञान से तथा प्रथम प्रायोजक "गान्धी स्मृति सन्स्थान नई दिल्ली, कन्नड यूनिवर्सिटी हम्पी, जनजातीय विश्वविद्यालय अमरकन्टक , आईटीडीए भद्राचलम,आईटीडीए चिन्तनूर आन्ध्रप्रदेश, सिद्धेश्वर शक्ति पीठ तिन्तिनी ब्रिज कर्नाटका सहित गोन्डवाना शिक्षा समिति जिवती चन्द्रपुर महाराष्ट्र एव सात गोन्डी भाषिक राज्यों के गोन्डी भाषा के जानकार प्रतिभागियों के परिश्रम और समय समय पर सेमीनार में उपस्थिति देकर प्रतिभागियों को प्रोत्साहित करने वाले सम्माननीय वर्तमान और पूर्व जनप्रतिनिधियो के परिश्रम का परिणाम है " गोन्डवाना गोन्डी शब्दकोश " ! शब्दकोश स

" महा गठबंधन और मूलनिवासी राजनीतिक दल"

गोन्डवाना के समस्त आदिवासी समुदाय को देश के विभिन्न राज्यों में पन्जीक्रत मान्यता प्राप्त या पन्जीक्रत अमान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को ही मजबूत करना होगा। तथा यह भी ध्यान में रखना होगा कि दल का प्रमुख आदिवासी हो । ऐसे तो आदिवासी नेतृत्व वाले अनेक राजनीतिक दल हमारे देश में पन्जीक्रत हैं कुछ दल कुछ प्रदेशों में सत्तासीन भी हैं , कुछ विपक्ष की भूमिका में हैं। आदिवासी नेतृत्व वाले राज्यों के सत्तासीन राजनीतिक दलो को और अधिक शक्तिशाली बना ने में समुदाय को मदद करने की आवश्यकता है। कुछ राजनीतिक दल विपक्ष की भूमिका के साथ काफी मजबूत है, ऐसे दल को भी और अधिक सहयोग देकर सत्ता में काबिज कराने के लिये उस राज्य के बाकी सभी आदिवासी नेतृत्व वाले दलों को उस प्रमुख विपक्षी दल को सहयोग देने के लिए प्रेरित किया जाए । इसी तरह अनेक राज्यों में पन्जीक्रत मान्यता प्राप्त या पन्जीक्रत अमान्यता प्राप्त राजनीतिक हैं जिनके विधान सभा चुनाव अलग अलग समय में होते हैं। उन राज्यों की सभी आदिवासी नेतृत्व वाली पार्टियां आपस में गठबंधन बनाकर सत्ता हासिल करें तत्पश्चात सबसे बड़े दल के रूप में उभरे दल

"भोजली दायी के सम्बन्ध में कुछ चर्चा "

( फेसबुक मित्रो के कमेन्ट पर प्रस्तुत विचार जिन्हें अलग अलग देने की अपेक्षा एक साथ समर्पित कर रहा हूँ ) भोजली को समझने के लिए सबसे पहले इस तिहार की तिथि पर ध्यान दें । गोन्डियन त्यौहार स्वत: समझ में आ जायेगा। जहा तक इसके मूल प्रक्रिया जिसे पोस्ट में उल्लेखित किया गया है भी प्रकृति का इन्सान से सम्बन्ध की पुष्टि करता है । जहा तक प्रक्रति से प्राप्त ज्ञान से मानवीक्रत व्यवस्था के अन्तर्गत बने नियम कानून की बात है उनमे समय समय पर बदलाव ह ुए हैं। परन्तु उसके मूल सिद्धांत में कोई बदलाव नहीं होता है । जैसे पारी कुपार लिगो की गोत्र व्यवस्था माता पक्ष और पिता पक्ष के आधार यानी पारी के हिसाब से है गोन्डवाना भूभाग में मूल व्यवस्था तो है पर कालांतर में यह गोत्र, देव/पेन और गढ व्यवस्था में बदल गया जो कुछ क्षेत्रों में पूर्णतः वर्जित है पर अनेक क्षेत्रों में सहज स्वीकार्य है। कुछ इलाकों में तो अपना गोत्र या देव सन्ख्या भी नहीं जानते केवल गोन्ड शब्द जानते हैं वे स्वीकार्य इसलिये है कि इस विभाजन के बाद भी वे अपने मूल सिद्धांत से अलग नहीं। तिहारो के मामले में भी यही है जन्गो

"कैसी आजादी काहे की आजादी !"

"कहा जाता है कि भारत देश आजाद हो गया है । आजादी यानि स्वतंत्रता । जनता के लिये नियुक्त जन प्रतिनिधि और जनता की सुख सुविधा के लिये बनाई गई प्रशासनिक व्यवस्था का सुचारू संचालन होना यही असली आजादी है । 1947 के पूर्व जो अंग्रेजो के माध्यम से जो अधिकारों का दमन होता था आज भी हो रहा है ! बल्कि उससे भी ज्यादा हो रहा है । जनता उस वक्त अपने अधिकारारों के लिये एकत्र होती थी तब, अंग्रेजी शासक के इसारे पर अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में देशी सिपाही देश की जनता  पर गोलियां बरसाते थे बदले में एैसे सैनिक और अधिकारियों को अंग्रेजी सरकार (कल्लूरी) जैसे अफसरों को उंचे पर और पुरूष्कार देती थी । आज भी वही सब हो रहा है, तब काहे की आजादी । भू अधिग्रहण के मामले में अंग्रेज सरकार जिस भूमि का उपयोग करना चाहती थी उसे जबरन अधिग्रहीत कर लेती थी ,आजादी के बाद भी सरकार जिस जमीन को अधिग्रहीत करना चाहती है उसे जबरदस्ती ले लेती है । विरोध करने पर जनता के उपर गोलियां तक बरसाती है । तब ईस्ट इन्डिया कंपनी के लिये उसके हित में नियम कायदे कानूनों में शंसोधन कर जबरियां कानून थोप दिया जाता था अब रिलायंस, टाटा, बिडला ,अं

"प्रकृति और इंसान के रहस्यमयी जानकारी का प्रतीक है भोजली तिहार ।"

(भोजली पर्व के कारण छ0ग0 सहित अन्य प्रदेशों में अप्रासांगिक हुआ कथित रक्षा बंधन का आदिवासियों पर रोपित त्योहार ।) भोजली तिहार मूलतः प्रकृति प्रदत्त बीज से मनुष्य के बीच उसके संबंधों को जोडते हुए प्रकृति की रहस्यमयी शक्ति के परिचय के रूप में संदेश देता प्रतीत होता है । सात प्रकार के बीजों का रजस्वला परिस्थितियों को ध्यान में रखकर कुवारी कन्याओं के माध्यम से बीजारोपण सहित, सात दिन तक लगातार उसे कम प्रकाश सीमित ज ल सामान्य से कम ताप में रख कर बीज के विषम परिस्थितियों में अंकुरण का परीक्षण, साथ ही इन परिस्थितियों में अंकुरण के बाद संभावित पौध रोग आदि के परीक्षण का संदेश देता है भोजली पर्व । जिस तरह प्रकृतिवादियों के हर पर्व अमास या पूनो में संपन्न होते हैं लेकिन इस पर्व को अप्रासांगिक करने के लिये कथित रक्षाबंधन को लाकर इसके महत्व को कमजोर करने का कार्य हुआ है । अब अधिकांश जगहों पर इस भोजली को विसर्जित करने और एक दूसरे को वितरित करने का कार्य दूसरे दिन होता है जो इस पर्व तिथि की अवधारणा के विरूद्ध है । रायपुर में पूनो के दिन आयोजित भोजली पर्व ने छ0ग0 सहित अन्य प्रदेशों के प्रकृतिवादियों क

राजनीतिक प्रतिबद्धता व्यक्ति और संगठनों की भूमिका

वर्ष 2018 के लिये धीरे धीरे विभिन्न प्रदेशों में विधान सभा चुनाव की सरगर्मियां बढ रहीं है एैसे समय में कुछ दल लगातार अपने क्रियाकलापों में तेजी ला रहे हैं । कुछ कार्यकर्ता राजनीतिक दलों के प्रति स्पष्ट प्रतिबद्ध होकर अपने काम को आगे बढा रहे हैं । एैसे मौके पर कुछ छदमवेशी लोग जो किसी दल विशोष में अंदर से प्रतिबद्ध होते हैं लेकिन बाहर अपने आप को किसी दल से प्रतिबद्ध नहीं होने या दिखने का प्रयास करते हैं । एैसे लोगों से अब सावधानी का समय है । दलों के पदाधिकारी इस बात का ध्यान रखें अन्यथा ऐन मौके पर एैसे लोग दगाबाजी कर अपने आप में बेशर्म हो जाते हैं । कोई भी दल अपने रंग रूप क्रियाकलाप विचारधारा और नेतृत्व के साथ आगे बढता है दल विशेष के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्ति स्वयं अपनी प्रतिबद्धता के साथ स्पष्ट दिखाई देने लगता है । दलों की विभिन्न अनुसंगी संगठने होती हैं जिसमें युवा और छात्र संगठनों की भूमिका विशेष् होती है जो चुनाव में खुलकर भाग लेते हैं । दलों के पदाधिकारी या समथकों को एैसे छात्र संगठनों की परख होनी चाहिये कि कौन सा छात्र संगठन किस दल की छात्र शाखा के रूप में कार्यरत है । उसने कौन सा