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Showing posts from August, 2022

अन्य राजनीति दलों से अलग क्यूं है । "क्रांति जनशक्ति पार्टी"

  अन्य राजनीति दलों से अलग क्यूं है ।  "क्रांति जनशक्ति पार्टी" भारत देश में सैकड़ों की संख्या में राजनीतिक दल हैं । अंगुली में गिनने लायक "पंजीकृत राष्ट्रीय मानता प्राप्त" एवं राज्य स्तरीय पंजीकृत मान्यता प्राप्त दल हैं वहीं सैकड़ों की संख्या में पंजीकृत अमान्यता प्राप्त दल भी हैं । हर पंजीकृत अमान्यता प्राप्त दल, राज्यों में मान्यता प्राप्त दल के रूप में स्थापित होना चाहती है पर हर चुनाव में कहीं ना कहीं वह अपने चुनाव मेनेजमेंट की कमज़ोरी का शिकार हो जाती है,या मान्यता प्राप्त कथित बड़े दलों की रणनीति का शिकार होकर मान्यता करने में असफल हो जाते हैं। मान्यता प्राप्त कथित बड़े दलों की नकल करते हुए वैसी ही पार्टी संचालित करते हैं और असफल हो जाते हैं। उदाहरण के लिए यह है कि सभी कथित बड़े दल अपनी पार्टी के संविधान में समाज को सदैव वर्गवादी,जातिवादी मानसिकता बनी रहे,इस ध्येय से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/अल्पसंख्यक/सवर्ण आदि के अलावा समुदायों के नाम पर भी प्रकोष्ठ या मोर्चा बनाते हैं । कार्यकर्ताओं पदाधिकारियों को भी इसमें जातीय और वर्गीय आकर्षण दिखा

विचारधारा और शब्द विष

विचारधारा जिसे वृहत समुदाय में स्थापित करना है ,तो हमारी वैचारिक समझ में समानता हो ,  हमारी नासमझी कहीं-न-कहीं अन्य विचारधारा को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मजबूत करती है। मेरी ओर से हमेशा , समुदाय की बोलचाल भाषा या व्यवहार में जो परसंस्कृति के "शब्द विष" और दूषित क्रियाकलाप प्रयोग में लाये जाते हैं। कहीं ना कहीं हमें विचारधारा से भटकाती है।हम इन छोटे छोटे शब्दों को महत्व नहीं देते और अनजाने ही परसंस्कृति के वाहक बन जाते हैं। मुझे लगता है कि कुछ लोग केवल व्यक्तिगत आपसी विरोध के चलते सही और गलत शब्दों का जानबूझकर प्रयोग करते हैं ताकि सामने खडे विरोधी व्यक्ति को नीचा दिखाया जा सके।       उदाहरण के लिए मनुवादी अवतार वाद के सिद्धांत को मजबूत करने वाले "अवतरण" (जन्म) शब्द का आंख बंद करके धड़ल्ले से उपयोग होता है। किसी ने भी इस "शब्द विष" के प्रभाव के बारे में समझाने का प्रयास नहीं किया।  भारत देश को भारत कहने में क्या परेशानी है ,हमारे अपने लोग मौका देखकर या सरेआम मंचों में "हिंदुस्तान" के नाम का संबोधन करके परोक्ष रूप से उनकी विचारधारा को ही मजबूत कर

आदिवासी समुदाय को अपनी राजनीतिक स्थिती की समीक्षा करनी होगी

कल तक और आज भी सत्ताधारी पार्टियां, चाहे वह  कांग्रेस, भाजपा या कोई हो, आदिवासी समुदाय को केंद्र सरकार में मंत्री, राज्यसभा सदस्य,आयोग का अध्यक्ष (केवल जनजाति आयोग) बना दिया जाता है, कभी कभी किसी राज्य जैसे झारखंड में आदिवासी को लुभाने के लिए अर्जुन मुंडा जैसे रबर स्टैंप मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल भी बना दिया जाता है।अब तो राष्ट्रपति भी, पर इससे आदिवासी का क्या भला हो गया। आदिवासी जहां था वहीं पर आज भी खड़ा हुआ है ऐसे रबर स्टैंप्स के रहते आदिवासियों की सारी जल जंगल जमीन सब लुटती जा रही है इस लूट पर मुहर लगाने वाले यही रबर स्टैंप हैं । एकाध अपवाद छोड दिया दिया जाय, तो क्या जनसंख्या के अनुपात में किसी प्रदेश में कांग्रेस या भाजपा ने प्रदेश का अध्यक्ष और प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का कोई प्रयत्न या प्रयास किया ? नहीं, क्यूंकि यही मुख्य पद जिसे "कीपोस्ट" या मास्टर चाबी कहा जाता है जिस पर सत्ताधारी दल अन्य किसी दलित पिछड़े आदिवासी को आने नहीं देता, आदिवासी को तो आने ही नहीं देना चाहता । ऐसी परिस्थितियों में समुदाय के बुद्धिजीवीयों को  गहन चिंतन करना आवश्यक हो गया है । मप्र के आगामी

एक तीर एक कमान सब आदिवासी एक समान"

गोंडवाना के नाम पर आंदोलन चलाने वाले लोग या संस्थाएं यदि आदिवासी शब्द के अस्तित्व और अस्मिता को नकारते हुए एकला चलो की नीति अपनाते हैं। तो "संयुक्त राष्ट्र संघ" द्वारा पहचान के लिए निर्धारित मापदंड के परिपेक्ष में भारतीय संविधान में वर्णित "अनुसूचित जनजाति" संख्या बल में वर्गीय मानसिकता विकसित नहीं हो सकती ! हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के सुदूर क्षेत्रों में फैली विभिन्न जातियों में बटे इस बिखरे हुए समूह को एकता के सूत्र में बांधने के लिए प्रयास किया है। ताकि यह बिखरा हुआ समूह जिसकी अपनी परंपरागत सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मान्यताएं और परंपराएं हैं। इनमें से किसी भी बिंदु पर आपसी समन्वय और तालमेल से अपने आपको एक सूत्र मैं बांधने का काम करें। अपने हक और अधिकारों को प्राप्त करने, अपने ऊपर हो रहे अन्याय अत्याचार शोषण के विरुद्ध एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए उपरोक्त वर्णित बिंदु ही कारगर उपाय हैं। पिछले कई दशकों से इस समुदाय में अनेक समाज सुधारक संघटक राजनीतिज्ञ आते रहे हैं आ रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इन महत्वपूर्ण बिंदुओं को बुद्धि बलपूर्वक व्यापक रूप नहीं