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एक तीर एक कमान सब आदिवासी एक समान"

गोंडवाना के नाम पर आंदोलन चलाने वाले लोग या संस्थाएं यदि आदिवासी शब्द के अस्तित्व और अस्मिता को नकारते हुए एकला चलो की नीति अपनाते हैं। तो "संयुक्त राष्ट्र संघ" द्वारा पहचान के लिए निर्धारित मापदंड के परिपेक्ष में भारतीय संविधान में वर्णित "अनुसूचित जनजाति" संख्या बल में वर्गीय मानसिकता विकसित नहीं हो सकती ! हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के सुदूर क्षेत्रों में फैली विभिन्न जातियों में बटे इस बिखरे हुए समूह को एकता के सूत्र में बांधने के लिए प्रयास किया है। ताकि यह बिखरा हुआ समूह जिसकी अपनी परंपरागत सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मान्यताएं और परंपराएं हैं। इनमें से किसी भी बिंदु पर आपसी समन्वय और तालमेल से अपने आपको एक सूत्र मैं बांधने का काम करें। अपने हक और अधिकारों को प्राप्त करने, अपने ऊपर हो रहे अन्याय अत्याचार शोषण के विरुद्ध एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए उपरोक्त वर्णित बिंदु ही कारगर उपाय हैं। पिछले कई दशकों से इस समुदाय में अनेक समाज सुधारक संघटक राजनीतिज्ञ आते रहे हैं आ रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इन महत्वपूर्ण बिंदुओं को बुद्धि बलपूर्वक व्यापक रूप नहीं दे सके । जातीय या क्षेत्रीय पहचान को स्थापित करने में लगे रहे, हालांकि यह कार्य भी आवश्यक था। परंतु वर्गीय एकता के लिए यह प्रथम पायदान था। हमें अगले चरण में प्रवेश करना ही होगा, इसके लिए हमें जातीय और क्षेत्रीयता वाद से उबरना पड़ेगा। बीसवीं शताब्दी का यह काल समुदाय को उत्कर्ष का अवसर दे रहा है। देश के विभिन्न क्षेत्रों के समाजसेवी समाज सुधारक बुद्धिजीवी वर्ग महसूस कर रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होने के लिए हमारी एक पृथक धार्मिक पहचान हो, जो धर्म कालम/कोड हासिल करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। इस चिंतन का परिणाम निकला और सारे देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग एक साथ विचार विमर्श करने लगे आपसी समन्वय की बातें होने लगी, इस एकजुटता के प्रयास ने पांचवी अनुसूची पेशा कानून और वनाधिकार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को राष्ट्रीय पहचान मिलने लगी,सत्ताओं को राज्यों को आदिवासी जनसंख्या का भय सताने लगा। आदिवासी समूहों की आपस में समन्वय की ओर अग्रसर होना ही प्रतीकात्मक आदिवासी चेहरे को राष्ट्रपति बनाया जाना भी शामिल हैं।

इसलिए इस बिखरे समूह ने अपनी क्षेत्रीयतावाद और अहं को तिलांजलि देते हुए वर्गीय भावना को सुदृढ़ कर एकजुटता का परिचय दिया तो वो दिन दूर नहीं कि आदिवासी अपनी धरती के संसाधनों का "रायल्टी होल्डर" बन जाये।

लेख - गुलजार सिंह मरकाम (GSKA)

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