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गोंडवाना साहित्य का समाज के विकास में योगदान
                           गुलजार सिंह मरकाम
 साहित्य सामाजिक चेतना का एैसा साधन है जिसमें समाज के जीवनोपयोगी धार्मिक सामाजिक राजनैतिक सांस्कृतिक स्तर के हर पहलू को साधा जा सकता है । समाज के बढते घटते सामाजिक धार्मिक आर्थिक सांस्कृतिक स्तर का वास्तविक मूल्यांकन करते हुए समाज को उचित मार्गदर्षन दे वही साहित्य है । पूर्व काल में साहित्य को ताडपत्र ताम्रपत्र या पत्थरों में उकेरा गया । आज साहित्य को कागज और कपडों में लिखा जा रहा है । इसका कतई मतलब नहीं कि इससे पहले साहित्य होता नहीं था । पुरातन काल में लेखबद्व होने की अपेक्षा जनमानस के संस्कारों में संस्थापित कर दिया जाता था । अर्थात साहित्य का सामाजिकरण कर दिया जाता था । जो कि धीरे धीरे यही सामाजिक संस्कार संस्कृति की स्थापना में सहायक होते रहे हैं । अर्थात साहित्य संस्कृति की स्थापना का आधार भी है । हमारे देश में समय समय पर अनेक विदेशी आक्रमण हुए इन आक्रमणकारियों ने अपना स्थायी प्रभुत्व कायम करने के लिये साम दाम दण्ड भेद की नीति को आधार बनाया । जनमानस का विश्वास स्ािापित करने के लिये अपने तरीके का साहित्य प्रस्तुत किया । ताकि जनमानस की मानसिकता शासक वर्ग के अनुकूल रहे । यही कारण है कि हमारे देश में साहित्य के अलग अलग रूप रंग और दृष्टि पायी जाती है । अनेक लेखको द्वारा एक ही विषय पर लिखा गया साहित्य अपने रूप रंग और दृष्टि के साथ साथ राष्ट की मूल भावना से हटकर किसी वर्ग किसी संगठन किसी की चाटुकारिता करता हुआ जान  पडता है । गोंडवाना का अलिखित साहित्य जो कि हमारे देश की मूल अवधारणा प्रकृतिवाद का प्रतिबिंब है ।  जाति धर्म या सत्ता का चाटुकारनहीं वरन समाज का प्रतिनिधित्व करता है । यही कारण है कि आज का ग्रामीण जीवन अपनी मान्यता परंपराओ को सहेजते हुए वर्ग और जाति से हटकर आपसी रिस्ते नातों से बंधा हुआ है । यह सब अलिखित साहित्य के संस्कार हैं । विदेशी आक्रमण के पूर्व हमारा साहित्य सामाजिकरण के रूप में विद्वमान रहा है । आज एैसे साहित्य का अस्तित्व खतरे में है। जिसे  वर्तमान परिथितियों में लिखित रूप में सहेजने की आवश्यकता है। गोंडवाना गोंडी साहित्य परिषद इसे सहेजने का काम कर रही है जो अति प्रशंसनीय कदम है । एैसे साहित्य सृजन में गोंडवाना के सभी चिंतकों विचारकों साहित्यकारों का योगदान आवश्यक है । गोंडवाना के आदिगुरू पहांदी पारी कुपार लिंगो आदिदेवपुरूष शंभूशेक भीमालपेन दवगुनगुरू गुरू धनित्तर आदि प्रकृतिवादी मार्गदर्शकों के सामाजिक संरचना मे कठिन शोध से प्राप्त परिणाम पर किया गया साहित्य का सामाजिकरण अद्वितीय है ।  

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