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हम कहां हैं

 "हम कहां हैं "

विकास के नाम पर आधुनिक समाज ने क्या क्या मील के पत्थर गढाये है, क्या आरंभिक मानव के गढ़े गए नींव से कुछ अलग आविष्कार किये हैं या आरंभिक मानव के अविष्कार को पंख लागाकर समय और दूरी को कम कर दिया है। आखिर नये इंसान ने जीवन के बहुआयामी विकास क्रम में, संस्कार संस्कृति शिक्षा, स्वास्थ्य, संसाधन में नया कुछ नहीं कर सका है, बल्कि इंसान के जीवन को और कठिन कर खतरे में डाल दिया है।

                       उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो आरंभिक कृषि संसाधन हल बैल जो आज भी इतना ही प्रासंगिक है जितना आज है। जिसकी पहुंच जनसामान्य तक रही है जिसे आधुनिक समय में जनसामान्य की पहुंच से दूर करते हुए कुछ लोगों के इर्दगिर्द कर दिया, अर्थात विकास के नाम पर पूंजीवादी व्यवस्था की नींव रख दी , यात्रा आवागमन घोड़ा, घोड़ागाड़ी बैलगाड़ी नाव आदि के आरंभिक मानव का अविष्कार जो जनसाधारण की पहुंच में रहा है,आज भी है, परन्तु पूंजीवादी विकास क्रम ने इसमें मशीन लगाकर वायुयान , चारपहिया वाहन जलपोत आदि लाकर समय और दूरी को तो कम कर दिया लेकिन इंसान और इंसानियत के बीच दूरी बनाकर इसे सीमित लोगों तक केंद्रित कर दिया। आरंभिक मानव का स्वास्थ्य के प्रति सजगता काबिले तारीफ है, जिसने एक एक  पत्ते कंद मूल फल आदि का परीक्षण कर निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए अनेकों जानें भी गंवाई होगी, जनसाधारण को बिना मूल्य प्राप्त थी जिसे आज आयुर्वेद का नाम देकर सीमित हाथों में केंद्रित कर दिया। शिक्षा जो किसी राष्ट्र प्रत्येक नागरिक  की अनिवार्य आवश्यकता है, जिसे सर्वसुलभ होना चाहिए, जिसे आधुनिक इंसान ने पूंजीवादी व्यवस्था के घेरे में लाकर जनसामान्य की पहुंच को कठिनाई में डाल दिया है। आधुनिक इंसान ने संस्कार संस्कृति को भी पाश्चात्य नकल में पूंजीवादी व्यवस्था को ही आगे बढ़ाने का काम किया है।तब भारतीय कहें या इंसान की आरंभिक जीवन व्यवस्था से आज का इंसान कितना सुखी है यह सोचने का विषय है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमें इंसान होने के लिए आरंभिक मानव से सबक लेकर पुनः प्रकृतिवादी व्यवस्था से मार्गदर्शन प्राप्त कर इंसान और प्रकृतिवादी विचारधारा को पुनर्जीवित करें।यह मेरा व्यक्तिगत चिन्तन है जरूरी नहीं कि इससे सभी सहमत हों - गुलजार सिंह मरकाम राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन

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