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"१९३१ और १९४१ तक भारत की जनजनगणना सूचि में गोन्ड जाति का धर्म "ट्राईब" लिखा गया है।"

"१९३१ और १९४१ तक भारत की जनजनगणना सूचि में गोन्ड जाति का धर्म "ट्राईब" लिखा गया है।" गोन्ड आदिवासी के साथ साथ अन्य आदिवासीयो की जनगणना में भी "उस जाति के नाम के साथ "धर्म" के कालम में "ट्राईब" लिखा गया है। १९४२ की जनगणना के समय गोन्ड जाति की जनसन्ख्या विभिन्न प्रदेशो में निम्नलिखित अन्कित की गई थी। जाति- ( गोन्ड)धर्म - (ट्राईब) मद्रास- ४९५,बम्बई -१०३०,सन्युक्त प्रदेश -१२०६९१,बिहार -२६९३१,सीपी&बरार-२०८८१७९,उड़ीसा -१३४८८४,हैदराबाद -१४२०२६,मध्यभारत-९२७५५,छत्तीसगढ़ -४२०२८३,बन्ग ाल प्रान्त -१२८६६,उड़ीसा प्रान्त -१७७५००,यूपी प्रान्त -३०४०४ कुल -३२२१०४४ गोन्ड समुदाय का धर्म ट्राईब के रूप में अन्कित है। इसी तरह अन्य आदिवासी की जाति के साथ धर्म के कालम में"ट्राईब" अन्कित है जो १९५१ की जनगणना में जाति का कालम ज्यों का त्यों रखा गया लेकिन धर्म के कालम से "ट्राईब" हटा दिया गया और हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,जैन, बौद्ध,पारसी की तरह "अन्य" का कालम जोड़ दिया गया । जबकि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध,जैन, पारसी , ट्राईब,...

"अन्य समुदाय की तरह आदिवासी का समुदाय और धर्म एक है अलग अलग नहीं !"

"अन्य समुदाय की तरह आदिवासी का समुदाय और धर्म एक है अलग अलग नहीं !" हिन्दू धर्म भी है और समुदाय भी है ।  मुस्लिम एक मजहब भी है समूदाय भी है ।  ईसाई एक रिलीजन है और समुदय भी है  सिख एक पंथ है और समुदाय भी है ! बौद्ध भी एक धम्म है और समुदाय भी है । इसी तरह आदिवासी एक पुनेम भी है समुदाय भी है । सबकी अपनी अपनी रूढी और परंपरायें और समुदायिक संस्कार हैं सबके अपने अपने आस्था स्थल और इष्ट हैं तब आदिवासी अन्य धर्म पंथ,मजहब या रिलीजन में धर्मांतरित होकर आनी परंपरायें ,समुदायिक संस्कार खत्म कर दे तब वह कैसे आदिवासी हो सकता है । यदि वह आदिवासी है तो आदिवासी समुदाय की रूढी परंपरायें रीति रिवाज और समुदायिक संस्कार का पालन करे अन्यथा वह अपने आप को आदिवासी कहने का आदिवासी अधिकारी नहीं । जनजाति की सूचि में रहे कोई आपत्ति नहीं, जिस दिन शासन प्रशासन को लगेगा कि वह आदिवासी समुदाय की रूढी परंपरायें रीति रिवाज और समुदायिक संस्कार से पूरी तरह अलग हो चुका है उस दिन जनजाति की सूचि से हटाने और जोडने की प्रक्रिया आरंभ हो जायेगी । भारत की जनगणना सन 1871से 1941 तक यह आदिवासी एक समुदाय और धर्म के...

"आदिवासी के ज्यूडिसियल और नान ज्यूडिसियल की कथा"

"आदिवासी के ज्यूडिसियल और नान ज्यूडिसियल की कथा" 5 वीं अनुसूचि का छोटा बच्चा पेसा कानून भी आदिवासियों की रूढी परंपरा, रूढीजन्य विधि और सामाजिक , धार्मिक प्रथाओं के साथ परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के सम्बंध में भी ग्राम सभा को शक्ति देता है । अर्थात आदिवासियों के धर्म के अस्तित्व को स्वीकारता है तब आदिवासी अपने अधिकारों के साथ साथ अपने धर्म की मजबूती के लिये कार्य क्यों नहीं करना चाहिये । वह क्यों गुमराह हो रहा है क्या हम अपने गोंडी, सरना ,आदि धर्म इत्यादि धर्म को मानेंगे स्थापि त करते हैं तो क्या आदिवासी ज्यूडीसियल हो जायेगे ? कहां का तर्क है । जब आदिवासी हिंदू, ईसाई या अन्य धर्म में चला गया है तब भी क्या वो नान ज्यूडिसियल बना रहेगा । और यदि आदिवासी अपने मूल धर्म को मजबूत करेगा धर्म कोड लेगा तो ज्यूडिसियल हो जायेगा उसको संवैधानिक लाभ का खतरा हो जायेगा । ये बेतुकी बातों से सावधान रहना होगा । अपने हक अधिकारों की लडाई लगातार लडें लेकिन अपनी पहचान को भी बनाये रखना आवश्यक है ।-gsmarkam

"राजस्व और वन विभाग की घोषित सीमा से ऊन्चा दर्जा है ग्राम की घोषित पुरातन पारम्परिक सीमा का "

(1) "राजस्व और वन विभाग की घोषित सीमा से ऊन्चा दर्जा है ग्राम की घोषित पुरातन पारम्परिक सीमा का " हमारे देश में सामान्यतः दो विभागों, वन एवं राजस्व विभाग को भूमि का रिकार्ड सन्धारण की जिम्मेदारी दी गई है जिनके पास शासकीय अशासकीय निजी, उपयोगी अनुपयोगी भूमि का रकबा , सीमा का नक्शा होता है । वन और राजस्व विभाग हमारे ग्राम की सीमा का निर्धारण करते हैं । इस निर्धारण ने ग्राम की परम्परागत सीमा मेढक या सीवान को नजरन्दाज कर दिया जबकि अन्ग्रेजी सरकार भी इस पारम्परिक सीमा का सम्मान कर ते हुए अपना रिकार्ड सन्धारित करती थी । कथित आजादी के बाद परम्परागत सीमा की अवहेलना के कारण भूमि ग्राम की माल्कियत से निकलकर वन एव राजस्व के कब्जे मे चली गई । ग्राम ठगा सा रह गया । परन्तु देश मे पहला मौका वर्ष २००६ मे "वनाधिकार कानून" के रूप मे आया जिसमे ग्राम की परम्परागत सीमा को कानूनी मान्यता दे दी । अब परम्परागत सीमा राजस्व और वन सीमा से मुक्त होकर आपकी परम्परागत ग्राम सभा के निर्णय को सर्वोच्च प्राथमिकता दे दी गई है। अफ आदिवासी इसे कैसे हासिल करे यह उसकी जागरूकता और ज्ञान पर निर्भर है। इस ...

"५ वी अनुसूचि और पारम्परिक ग्राम सभा"

५वी अनुसूचि की पारम्परिक ग्राम सभा को समझने के लिए"नार/ग्राम" व्यवस्था को समझना होगा । कि पारम्परिक ग्राम की स्थापना कैसे हुई ? उसका प्रथम स्थापनाकर्ता कौन है ? सन्विधान मे इसी पारम्परिक ग्राम की राया या कुटुम्ब की बैठक को पारम्परिक ग्राम सभा कहा गया है । आदिवासी कबीले के किसी गोत्र का मुखिया अपना परिवार बड़ा हो जाने पर क्रषि योग्य भूमि की तलाश करता हुआ किसी सुलभ स्थान में अपने परिवार के लिए आवासीय व्यवस्था की स्थापना करता है । वही ग्राम  का स्थापनकर्ता है । । जिसे मुखिया , मुकद्दम या पटैल कहा गया जो अपने ग्राम की सम्पूर्ण व्यवस्था का सन्चालक होता है । ग्राम में दैवीय प्रकोप, जडी बूटी के जानकार और अन्य बाह्य सम्भावित प्रकोप से रक्षा के नाम पर बैगा/भुमका/पुजारी को नियुक्त किया जाता है । इसी तरह ग्राम में सूचना और चौकीदारी के लिये कोटवार तथा अन्य सहयोगी दीवान आदि की नियुक्ति की जाती है । यह व्यवस्था ग्राम प्रमुख के नेतृत्व में स्थायी समिति के रूप में परम्परागत सदैव विद्मान रहती है। ग्राम का मोकडदम/मुखिया या कालांतर में उसके परिवार का प्रमुख सदस्य जिसे ग्राम में सदैव मुखिया ...

"आदिवासी हिन्दू,ईसाई मुस्लिम जैन बौद्ध नहीं"

(1) "आदिवासी हिन्दू,ईसाई मुस्लिम जैन बौद्ध नहीं"  देश का सन्विधान कहता है आदिवासी हिन्दू नहीं तब अन्य धर्मी जैसे ईसाई मुस्लिम जैन बौद्ध कैसे हो सकता है। जब आदिवासी हिन्दू नहीं तो अन्य धर्मी भी नहीं। उसका अपना प्रथक धर्म,सन्सक्रति,रूढी , परम्परा और पहचान है । इसलिये यदि आदिवासी अन्य धर्मों में चला गया है वह आदिवासी नहीं होता। न्यायालय में उसे उस धर्म के पर्सनल ला के अन्तर्गत निर्णय देना पडता है। धर्मान्तरित आदिवासी लोग समुदाय के साथ साथ सन्विधान को भी धोखा देकर अल्पसंख्यक और ज नजाति मन्त्रालय से दोहरा लाभ प्राप्त कर रहे हैं । और अन्य आदिवासी समुदायों को निसर्ग पूजक/धर्म पूर्वी बताकर धर्म विहीन समुदाय के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। ताकि धर्म विहीन समुदाय का धर्मांतरण किया जा सके। सन्विधान के अनुसार आदिवासी हिन्दू नहीं है, तो ईसाई,सिख,मुस्लिम जैन बौद्ध भी नहीं है। उसका अपना धर्म है, जिसे सरना,गोन्डी पुनेम,आदि या प्रकृति धर्म कहा जाता है। ऐसे तत्वों पर आदिवासी समुदाय की नजर हो जोकि सरना ,गोन्डी ,प्रक्रति या आदिधर्म कोड जैसे प्रथक धर्म कोड की मान्ग का विरोध क...

"दशहरा का पर्व आदिवासियों के लिये शस्त्र और शक्ति पूजा का पर्व है ।"

"दशहरा का पर्व आदिवासियों के लिये शस्त्र और शक्ति पूजा का पर्व है ।" इस पर्व के लगातार नौ दिनो तक जिस तरह का हुडदंग देखने को मिलता है इससे ज्ञात होता है कि पर्व की मूल भावना को दस दिनो के हुडदंग में दबा देने का काम होता है । अंतत निष्कर्ष के रूप में रावन बनाम राम राक्षस विरूद्ध देवता अनार्य बनाम आर्य संस्कृति के जय और पराजय का संदेश उभारा जाता है । सांस्कृतिक हमले का यह खेल पिछले कई दशकों से चला आ रहा है 1947 के बाद इस खेल में लगातार बढोत्तरी हुई है । मूलनिवासी साहित्य के ले खकों, साहित्यकारों ने समय समय पर इसका मूल्यांकन करते हुए एक पक्ष को समझाने का प्रयास किया है । काफी अन्तराल के बाद मूलनिवासी समुदाय इस हुडदंग के पीछे छिपे रहस्य को समझने का प्रयास किया है । परिणामस्वरूप मूलनिवासी समुदाय आज अपनी संस्कृति और अपने नायकों के साथ खडा होता दिखाई देने लगा है । एक तरफ महिसासुर की पूजा कहीं रावेन का सम्मान तो दूसरी ओर दुर्गा और राम की जयकार । दशहरे का हुडदंग भले ही इस पर्व की मूल अवधारणा को विस्म्रित करने का प्रयास करे लेकिन मूलनिवासियों के नायको को अब विस्म्रित किया जाना संभव नह...