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"मडई जतरा और मूलनिवासी समुदाय"

"मडई जतरा और मूलनिवासी समुदाय"
मडई :- मध्यप्रदेश के गोन्डी बेल्ट मे मडई का प्रचलन आज भी जारी है।पर यह अपने मूल उद्देश्य से लगातार भटकता जा रहा है। केवल पान खाने या गन्ना,सिन्घाडा और मिठाई खरीदने तक सीमित हो रहा है। मध्यप्रदेश के पुरातन परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो मडई केवल पेन और वेनो के आपस में मुलाकात और भेट का आयोजन है। मडई का आयोजन दिवारी में स्थापित गुरुवा और गान्गो ,ईशर गवरा या जन्गो लिन्गो जो कि विशेष परिवार में स्थापित किया जाता है उसका सामाजिकरण करने के उद्देश्य से मडई का आयोजन होता है। क्षेत्र के किसी परिवार में गुरुवा (पुरुष पक्ष) अर्थात ईशर या लिन्गो को अपने परिवार से संबंधित मानने वाला परिवार दिवारी में इसकी स्थापना करता है।वहीं अन्य परिवार गान्गो बाई,गवरा या जन्गो की स्थापना करते हैं। प्रत्येक अलग अलग मडई में एक गुरुवा को मोर पंख को बान्स की ऊचाई मे बान्धकर घर से परिवार एवं उस गांव के निवासी गाजा बाजा और उस गांव के भुमका और कोपा अहीर के साथ निर्धारित मडई तिथि में पहुँचते हैं तथा मडई स्थल के बीच में विधिवत् पूजा करके स्थापित कर दिया जाता है और उस परिवार के लोग स्थापना के साथ पूजा आरम्भ कर देते हैं इस अवधि में आसपास गाव की जनता भी आ जाती है।इस जनता में किसी गाँव में स्थापित गान्गो या गवरा परिवार वाले अपनी गान्गो जो कि गुरुवा की भान्ति मोर पंख से सजी होती है गाजे बाजे के साथ मडई पहुचते हैं। आसपास की सभी गान्गो दाई के आने के पश्चात एक साथ सभी गान्गो चन्डी,मडई में स्थित गुरुवा के आसपास फेरे लगाते हैं। उसी समय मडई में उपस्थित जनसमुदाय भी हाथ में चावल दाल लेकर अपने सिर मे घुमाकर गुरुवा के स्थान की ओर फेकते है । इस तरह प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद आसपास से आने वाले लोग अपने सगा सम्बन्धियो से मिलते है ।ऐसे मौके पर स्थानीय सिघाडा,कन्द या अन्य सामग्री क्रय करके अपने साथ आये गान्गो के साथ वापस हो जाते है । अन्त मे गुरुवा परिवार वाले भी गाजा बाजा कोपा अहीर नाच करते हुए अपने घर की ओर रवाना हो जाते है । ध्यान रहे कि असली मडई कार्तिक अमावस्या के दूसरे दिन से आरम्भ होकर कार्तिक पूर्णिमा मे उस ग्राम के कोपा के छाहुर और गुरुवा गान्गो सहित विसर्जित हो जाती है । इस तरह मडई हमारा पेन पूजा का आयोजन है । पान खाने या घूमने का मनोरंजन का साधन नहीं !
"जतरा":- मडई जहां विशेष परिवारों के पेनकार्य गुरुवा गान्गो मिलन में समाज के लोगों का सहयोग और समर्थन होता है ,वहीं जतरा में बहुत बड़े इलाके के अपने अपने पेन (देवों) तथा सगे सम्बन्धियों से मुलाकात का अवसर प्रदान करता है पुराने समय में प्रत्येक परिवार अपने पेनो के प्रतीक चिह्नों को पेन ढूली या पेन मटका में लेकर जतरा आते थे । जतरा स्थान किसी नदी के किनारे ही होता है जहां जतरी अपने पेनो की धुवाई मन्जाई अर्थात साफ़ करते थे । जो अधिकतर लोहा लकड़ी या अन्य किसी धातु मिट्टी के होते हैं । साफ़ करके उसी स्थान में अस्थायी रूप से स्थापित कर भोजन बनाया जाता है उस भोजन को पेन में तर्पण कर परिवार के लोग खाते हैं । इसी तरह जतरा में आने वाले सभी लोग करते हैं । जतरा में घूम घूम कर अपने रिश्ते नातेदारों को ढूंढकर उनसे गले मिलते हैं साथ ही अपने पेन शक्तियों के प्रतीकों को भी पेन से पेन का मिलन या भेन्ट कराये जाते हैं । इस तरह जतरा भी पेनशक्ति और वेन जीवों का आपस में मिलन का अवसर के लिये आयोजित किया जाता है लेकिन जतरा ने मेला मे रूपान्तरित होने लगे । वेन पेन मिलन की जगह व्यवसाय का केन्द्र बन गए अब पेन नहीं आते केवल जीवित वेन आते हैं जो साल भर कमाकर रखते हैं और मेला में मिटाकर आ जाते हैं । मेला शोषण का केन्द्र हो गये वहीं जतरा धार्मिक समाजिक सौहार्द का अनूठी निशानी के रूप में आज भी सन्चालित हैं । इसके मूल उद्देश्य को रेखान्कित करके इसे विक्रति से बचाया जाय। -गुलजार सिह मरकाम

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