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कोया पुनेम और धर्माचार्य

"बस्तर से नारवेन केशव टेकाम को समर्पित"
दादी आपने सही लिखा है,परंतु एक समय था जब समुदाय लगातार रेला की तरह बामनी संस्कारों की तरफ बहता था रहा था जिसमें नौकरी पेशा वालों की तादात ज्यादा थी तब उनके इस रेला को रोकने के लिये ऐसे लोगों को समझाया गया कि गोंडवाना मिशन तुम्हैं ऐसा ही विकल्प दे सकती है,तब कुछ लोग की सहमति के साथ रंगेल सिंह,मंगेल सिंह की मूल किताब पुनेम सार को लेकर डा०पी एस मरावी जबलपुर एवं उनके साथियों ने गोंडी मंत्रों का संकलन करके एक पुस्तक का प्रकाशन कराया जिसमें मंत्र सहित पूजा विधान उल्लेखित है । अर्थाभाव से इसकी ज्यादा प्रतियां नहीं छपीं परंतु डा०पीएस मरावी एवं उनके साथ के लोग नौकरी पेशा में थे चंदा करके कुछ प्रतियां लेकर जबलपुर संभाग के कुछ जिलों में जाते और उसी विधान से पूजा कराते रहे समुदाय को इनका यह कार्य पसंद आने लगा।अब नौकरी पेशा वाले भी इस विकल्प की ओर आकर्षित होने लगे,उस समय के पूर्व से हमने पहला गोंडवाना तिथि पत्रक केलेंडर भोपाल से निकालना आरंभ कर दिया था,इसके पूर्व गोंडवाना किरण संचालित हुआ जो तेकाम बंधुओं की व्यक्तिगत संपत्ति थी। सन २००० के बाद छग विभाजन हो गया । मप्र अलग हो चुका था अतः गोंडवाना तिथी पत्रक जोकि विभिन्न राज्यों में सभा सम्मेलन के माध्यम से जाने लगा इस विस्तार को देखकर हमने कि डा०पीएस मरावी की गोंडी मंत्र वाली पुस्तक को प्रति वर्ष के केलेंडर में छाप दिया जाय ,मैंने डा०मरावी से अनुमति लेकर गोंडवाना तिथि पत्रक में हर साल छापने लगा। इन मंत्रों का प्रचार प्रसार इतना हुआ तथा समुदाय पर असर भी हुआ बामनी विधि का विकल्प बनकर खड़ा हो गया जो अब तक जारी है। तेकाम जी मैं आपकी बातों से सहमत हूं कि इससे पारंपरिक रूढिप्रथा पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा ।निश्चित ही ,पर इस वैकल्पिक व्यवस्था ने एक बड़ा धार्मिक आंदोलन खड़ा कर दिया है , इसकी दिशा को हम कैसे मूल परंपरा की ओर ले जा सकते हैं, यह समुदाय के बुद्धिजीवियों पर निर्भर है। मुझे भी समझ में आ रहा है कि हमारे धर्म प्रचारक जिन्हें हम जाने अंजाने धर्माचार्य की उपाधि दे देते हैं,सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करते ही,अपने मार्गदर्शकों से ही पैर छुआने की अपेक्षा रखने लगते हैं। देश के ऐसे सभी धर्म प्रचारकों से मैंने चर्चा की है,उन्हें मैंने समझाईस भी दी है कि वर्तमान पूजा पद्धति केवल बामनी विधि से दूर हटाने का विकल्प है,हमें इसके और आगे जाना है ,ग्राम का असली बैगा भुमका,रोनपूजा का असली,नात, पुजेरी और परधान ,यही मूल रूढि परंपरा के आधार हैं। इसे ही पनर्जीवित करना है,बाकी सब अस्थायी और वैकल्पिक व्यवस्थायें हैं, समयकाल में नयी प्रणाली आज बामन पूजा से छुटकारा दिलाने में अहम भूमिका निभा रहा है,अत् जहां इसकी आवश्यकता है निर्बाध चले पर जहां परिपक्वता आती जा रही है,वहां पर परंपरा के मूल में झांकना आरंभ करना चाहिये। बातें बहुत सारी हैं, जिन्हें समय समय पर इसी तरह की चर्चा में लाया जा सकेगा। दादी जय सेवा ,जय जौहार!!
(गुलजार सिंह मरकाम रा०सं०गोंसक्रांआं)

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