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एक नज़र इधर भी


"एक नज़र इधर भी"
आपसी स्वार्थ के चलते खंड खंड होता आदिवासी बोट बैंक, बेअसर होते जा रहे है जनजातीय राजनैतिक दल, अंदरूनी तौर से यह संगठन भी अब खंड खंड हो गया है और बड़ी संख्या में इनके नेता अपनी अपनी पुरानी पार्टियों की तरफ पलायन के मूड में है। कांग्रेस और भाजपा की विचारधारा से इतर सिर्फ और सिर्फ आदिवासियों को शोषणमुक्त और उनके हितों का कल्याणमात्र से जन्मे ये राजनैतिक दल के कार्यकर्ता और छोटे नेता तो पथभृष्ट नही हुए परन्तु इनका नेतृत्व करने बाले भाजपा और कांग्रेस पार्टी के इसारो पर भांगड़ा कर रहे है , इससे व्यथित हो भोले भाले आदिवासी घरवापसी का मन बना रहे है उनका मानना है कि यही सब होना है तो आदिवासियों के नाम पर राजनैतिक रोटियां सिर्फ अपने नेता ही क्यों खाएँ या खाने दे ?……………..* राकेश प्रजापति *
 मध्यप्रदेश में छोटे राजनीतिक दलों की भूमिकाओ ने अक्सर राजनीतिक परिणामों पर हमेशा से ही असर डाला है । कई बार सरकार में भी इनकी सम्मानजनक उपस्थिति देखने को मिली। भारतीय जनता पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी,भारतीय गोंडवाना पार्टी, जयस जैसे कई दल है जो आगामी लोकसभा चुनाव में वोटों का गणित बदल सकते हैं । भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के वर्चस्व वाले इस प्रदेश में आदिवासियों के वोट बैंक को नकारा नही जा सकता ? इससे जुड़े लगभग आधा दर्जन राजनीतिक सामाजिक संगठन अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं जो चुनाव परिणामो को प्रभावित करने में महती भूमिका रखते है ?
 मध्य प्रदेश की राजनीति में हमेशा से ही भारतीय जनता पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस का वर्चस्व रहा है और यह दोनों ही दल राजनीतिक पारियां खेलते आ रहे हैं परंतु प्रदेश में विपरीत परिस्थितियों के चलते आदिवासी वोट बैंक पर दोनों ही दलों की निगाहें रही है और गाहेबगाहे ये इस समुदाय का फायदा उठाते चले आये है ? कई आदिवासी संगठन अस्तित्व में है जिनका अपना अच्छा खासा वोट बैंक है उनमें गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 1993 और 1998 के विधानसभा चुनाव में अपना अच्छा खासा असर दिखाया था और 3 सीट के साथ विधानसभा में अपना स्थान बनाया था । उसके बाद से ही इस पार्टी में छोटे छोटे स्वार्थो की प्रतिपूर्ति के लिए टूट का सिलसिला चल पड़ा , जो अब खण्ड खण्ड होता नजर आ रहा है ?
फिलहाल यह पार्टी पिछले चुनाव से दो भागों में विभक्त हो चुकी है एक धड़ा मनमोहन शाह बट्टी के नेतृत्व में भारतीय गोंडवाना पार्टी के नाम से कार्यरत है तो वही दूसरा धड़ा हीरा सिंह मरकाम के नेतृत्व में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के नाम से मंडला उमरिया और रीवा तक फैला हुआ है मनमोहन शाह बट्टी का कार्यक्षेत्र छिंदवाड़ा और बैतूल है ।
  आगामी लोकसभा चुनाव के लिए ये दोनों धडे एक दूसरे के विपरीत खड़े हुए हैं, हालांकि विधानसभा चुनावों में इनका गठबंधन हुआ था और भारतीय गोंडवाना पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनमोहन शाह बट्टी को गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया था। विधानसभा चुनाव में भारतीय गोंडवाना पार्टी के अपना कोई भी प्रत्याशी खड़ा नहीं किया था इनका गठबंधन सिर्फ विधानसभा चुनाव तक ही था । ये दोनों ही नेता मनमोहन शाह बट्टी और दादा हीरा सिंह मरकाम कहने को तो आदिवासी वोट बैंक को प्रभावित करते हैं परंतु यह विपरीत विचारधारा के अति महत्वाकांक्षी आदिवासी नेता है, जहाँ गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरा सिंह मरकाम का कांग्रेस के प्रति लगाव या झुकाव देखा जाता है तो दूसरी तरफ भारतीय गोंडवाना पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और संस्थापक मनमोहन शाह बट्टी भारतीय जनता पार्टी की गोद में खेल कूद कर आगे बढ़ रहे हैं वह अब भी इस प्रयास में है की छिंदवाड़ा लोकसभा सीट के लिए भारतीय जनता पार्टी उन्हें समर्थन दे ताकि वे भारतीय जनता पार्टी और आदिवासियों के संयुक्त वोट बैंक से कांग्रेस की परंपरागत सीट छिंदवाड़ा से कमलनाथ को कड़ी टक्कर दे सके ? पार्टी सूत्र बताते है कि हीरा सिंह मरकाम ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर पूरे देश् से सिर्फ एकमात्र मंडला सीट पर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से स्वयं चुनाव लड़ने जा रहे है और पूरे देश् में ये कांग्रेस का समर्थन करेंगे   जिसका की पार्टी के अंदर घोर विरोध चल रहा है और संगठन के अंदर बगावत का ज्वालामुखी कभी भी फूटकर बाहर आने को बेताब है ।
  आदिवासी संगठनों में दूसरा दल जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन है जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को समर्थन दिया था कांग्रेस ने इस संगठन के अध्यक्ष हीरालाल अलावा को मनावर से टिकट दिया जिसमें उन्होंने भाजपा की रंजना बघेल को हराया । लेकिन इसबार जयस ने लोकसभा के लिए फिर अपने पत्ते फेकने शुरू कर दिए है और वह भाजपा और कांग्रेस दोनो ही दलों के संपर्क में है। पार्टी सूत्रों के मुताविक अंदरूनी तौर से यह संगठन भी अब खंड खंड हो गया है और बड़ी संख्या में इनके नेता अपनी अपनी पुरानी पार्टियों की तरफ पलायन के मूड में है। कांग्रेस और भाजपा की विचारधारा से इतर सिर्फ और सिर्फ आदिवासियों को शोषणमुक्त और उनके हितों का कल्याणमात्र से जन्मे ये राजनैतिक दल के कार्यकर्ता और छोटे नेता तो पथभृष्ट नही हुए परन्तु इनका नेतृत्व करने बाले भाजपा और कांग्रेस पार्टी के इसारो पर भंगड़ा कर रहे है , इससे व्यथित हो भोले भाले आदिवासी घरवापसी का मन बना रहे है उनका मानना है कि यही सब होना है तो आदिवासियों के नाम पर राजनैतिक रोटियां सिर्फ अपने नेता ही क्यों खाएँ या खाने दे ?
प्रदेश की 6 आदिवासी लोकसभा सीटो पर भाजपा और कांग्रेस पार्टी दोनों के पास  दमदार प्रत्यासियो का टोटा है । 2014 की मोदी में लहर में भाजपा इन सभी 6 सीटे जीत गई थी , हालांकि बाद में झाबुआ लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में यहाँ की सीट उनके हाथ से निकल गई और इस पर कांग्रेस ने कब्जा जमा लिया । दोनो ही दल आदिवासी वोट बैंक को लुभाने के कोई भी मौका नही गवां रहे है ? परंतु समाज के नाम पर संगठित हुए जनजाति समाज के नेताओ ने इन राजनैतिक पार्टियों और सामाजिक संगठनों के नेताओ ने पार्टी की अंदर विस्वास खो दिया है और जनजाति समाज अपने पुराने परंपरागत राजनैतिक दलों के समर्थन में लौटने लगा है । इसलिए इस चुनाव में जनजाति समुदाय के थोक में वोट लेकर सत्ता में काबिज होना किसी भी राजनैतिक पार्टी के लिए फिलहाल तो नजर नही आता है । -संकलित

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