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"आदिवासी शब्द सामुदायिक एकता का माध्यम बन गया है"

"आदिवासी शब्द सामुदायिक एकता का माध्यम बन गया है"
भारत देश का मूलवासी समुदाय जो देश के विभिन्न राज्यों में थोडा बहुत अपनी स्थानीय संस्कृति संस्कार और पहचान को कायम रखते हुए संविधान की जनजातीय अनुसूचि में कायम है। इसलिये वह सूचि में शामिल सभी जाति उपजाति को अपना भाई मानता है, एक समुदाय का हिस्सा मानता है। कारण कि एक सूचि में होने से उसमें सामुदायिक समझ विकसित हो चुकी है,इस वजह से वह अन्य गैर जनजातीय समुदायों की एकता और एकजुटता को देखता है,तब उसके मन में विचार आना स्वाभाविक है कि ,मेरा समुदाय भी संगठित रहे, यही कारण है कि वह आदिवासी शब्द को अपना मान कर चल रहा है कुछ अपवाद स्वरूप अन्य शब्द भी मूलवासी वातावरण में आ रहे हैं परंतु इनकी संख्या नगण्य है ऐसे में यदि हमें एक होकर देश में एक ताकत के रूप में अपनी साख को स्थापित करना है तो कुछ सैक्रिफाइस करना पड़ेगा किसी एक नाम पर सहमत होना पड़ेगा जो देश का 90 से 99 प्रतिशत मूलवासी चाहता है , हम यह नहीं कहते कि आप अपने और अपनी जाति 4 समूह की पहचान को खत्म करें अपने रोटी बेटी को सुरक्षित ना रखें पर यदि                                                               आदिवासी नाम पर एकजुट होकर एक ताकत बनाना चाहते हैं तो उस पर हम सबको सहमत हो जाना चाहिए अन्यथा विघटनकारी ताकत,ऐसा नहीं होने देना चाहेगी इसलिए समय है शब्दों की तरफ नहीं बल्कि व्यवहार की तरफ जाकर राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी शब्द को अंगीकार करें आपको याद होना चाहिए की संविधान में हमारे देश का नाम भारत उल्लिखित है फिर भी लोग हिंदुस्तान कहकर देश में हिंदूइज़्म का परोक्ष रूप से समर्थन कर रहे हैं इसी तरह मूलवासी का भारत के संविधान में आदिवासी नाम पर कोई उल्लेख नहीं है उसे अनुसूचित जनजाति कहा जाता है पर यदि देश का 99% मूलवासी अपने आप को एकता में बांधने के लिए आदिवासी शब्द को महत्व दे रहा है या उसे स्थापित करना चाह रहा है तो उसमें हमें कोई परेशानी नहीं होना चाहिए भले ही हम उसे अपनी अपनी समाज और भाषा के अनुरूप देशराज इंडिजिनियस आदि नाम से माने लेकिन एकता का सूत्र यदि आदिवासी शब्द है तो उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हम सब की है क्योंकि एकता ही ताकत है एकता ही बल है एकता से ही हमारी साख धाक जम सकती है !
(गुलजार सिंह मरकाम राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन)

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