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जाति, समुदाय और समाज


सन्कुचित जातीय मानसिकता को सबसे पहले सामुदायिक तथा अन्त मे समाजिक स्तर पर लाना होगा अन्यथा नुकसान सम्भव है । भारतीय परिवेश मे जातीय सम्प्रदायिक सामुदायिक दन्गे आम बात है । धर्म सन्स्क्रति से मजबूत कौमे जातीय मानसिकता नही वरन् सामुदायिक मानसिकता से लैस होती है ए जो जातीय समूहों को धर्म सन्स्क्रति की माला मे पिरोकर एक शसक्त समुदाय के रूप मे अपनी उपस्थिती का अपनी ताकत का एहसास कराती है । ऐसे समुदाय आज अल्पसन्ख्यक माने जाते हैए पर अपने आप को सुरक्षित रखे हुए हैं । किसी ना किसी बहाने एैसे अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया जाता है । एैसे ही आतंकवादी का पर्याय बना मुस्लिम, पूर्वोत्तर में विद्रोही या देशद्रोही का कथित आरोपी बना आदिवासी, अपने अस्तित्व बचाने में लगा हुआ है । दक्षिण भाग के आदिवासी को भी नक्सलवादी के नाम पर घीरे धीरे देश में स्थापित किये जाने का प्रयास किया जा रहा है । एैसे मौके पर आदिवासी जातियां समूदाय के रूप में स्थापित हो जाना चाहिये, भले हम किसी रूप में एकत्र हों, वह रूप संस्कृति, भाषा धर्म या समस्या के आधार पर भी संभव है । जाति और समुदाय को अपने अधिकारों के लिये संघर्ष के साथ साथ अपने जनअस्तित्व रक्षा के दूसरे पहलू पर भी घ्यान रखकर आगे बढना होगा । यदि हम केवल जातीय मानसिकता में ही फंसे रहकर आक्रामकता दिखाने का प्रयास करेंगे, तो जातियों का समुदाय में परिवर्तित होना कठिन होगा । मानव स्वभाव है अपने इर्दगिर्द अपनी संख्या बल देख उसका हौसला सातवें आसमान पर रहता है । परन्तु उसे अपने जाति समुदाय के उस व्यक्ति का भी धयान रखना है जहां वह अल्पसंख्या में दुश्मनों के बीच घिरा हुआ अपने आप को कमजोर महसूस करता है । संघर्ष के साथ साथ सृजन हमारी तैयारी तैयारी का हिस्सा हो । - gulzar singh markam

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