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"वनाधिकार के मामले में,शासन प्रसाशन ने भृम फैलाने का प्रयास किया है।"


"वनाधिकार के मामले में,शासन प्रसाशन ने भृम फैलाने का प्रयास किया है।"
शासन प्रशासन ने वनाधिकार अधिनियम में व्यक्तिगत दावे को प्राथमिकता देते हुए आदिवासी को अन्य लोगों से अलग-थलग कर दिया यही कारण है की वनाधिकार के मामले में केवल आदिवासी ही आगे आकर संघर्ष करने का प्रयास कर रहे हैं जबकि शासन प्रशासन यदि व्यक्तिगत दावों की अपेक्षा सामुदायिक दावा, निस्तार दावों को प्राथमिकता देती तो शायद आदिवासियों के लिए यह स्थिति पैदा नहीं हो पाती सामुदायिक दावे,ग्राम के समस्त नागरिकों के लिए लागू है यदि पहले से सामुदायिक और निस्तार दावा के प्रति जनता को जागरूक किया जाता तो गांव में आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच वैमनस्यता नहीं होती, शासन प्रसासन के नियोजित षडयंत्र जो नागरिकों को जानबूझकर जानकारी नहीं पहुंचाना, के अभाव में वन भूमि अधिकार को केवल आदिवासी के इर्दगिर्द केंद्रित कर दिया गया ,जिसके कारण वह सबकी नजरों में चढ़ गया । यह तो ठीक ऐसा ही हुआ है जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देते वक्त हुआ था। वह अपने ही अधिकार का विरोध करने के लिये सड़क पर उतर गया था। वनाधिकार का मामला भी ठीक उसी तरह का है। जिसकी समझ में आ जाये वह वनाधिकार मामले में ग्रामवासियों को सामुदायिक आधिकार दिलाने में सहयोग करें, सामुदायिक वनाधिकार ग्राम को समृद्ध और शक्ति सम्पन्न बनायेगा जैसे महाराष्ट्र का "मेंडालेखा" गांव
(गुलजार सिंह मरकाम राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन)

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