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"अर्थ केंद्रित संघर्ष से संस्कृति केंद्रित संघर्ष की ओर बढता हमारा देश ।"

"अर्थ केंद्रित संघर्ष से संस्कृति केंद्रित संघर्ष की ओर बढता हमारा देश ।" 
1947 के बाद हमारे देश की व्यवस्था में अर्थ केंद्रित संघर्ष रहा जिसके कारण चालाक लोग लगातार पूंजी को पकडने में लग गये जिसके कारण देश में एक बडा पूंजिपति वर्ग खडा हुआ जिसने कारखाने उदयोग आदि लगाने के का वस्ता देकर सरकारी खजाने से कर्ज के नाम पर करोडों रूपये बैंकों से लिये खुशी से देश की भोली भाली जनता ने उनके कर्जे पर सहमति दी । आरंभ के उदयोगपतियों ने आज तक उस कर्ज को वापस नहीं किया बल्कि लगातार और कर्ज लेते रहे और आज भी बैंकों को चूना लगा रहे हैं । देश की आम जनता आजादी के रंग मे डूबी थी सत्ताधारी अपनी गोटियां फिट करने में लगे थे । चप्पे चप्पे पर नेहरू और उसकी धनलोलुप कंपनी ने शासन प्रशासन और व्यापार उदयोग पर कब्जा जमा लिया आम जनता का विकास के नाम पर लगातार छलावा करते हुए लूटी गई पूंजी को स्विस बैंकों में पहुचाने लगे । समय आगे बढता सहा बीच में नये नये पूंजीपति बनते गये इन सबका लक्ष्य अधिक से अधिक पूंजी को समेटो । सारी व्यवस्था पूंजी पर केंद्रित हो गई जो लम्बे समय तक जारी रहा । मुटठी भर पूंजीवादी ताकतों का सत्ता के साथ गठजोड बना रहा । जब देश और देश के बाहर पूंजी का भ्ंडार हो गया तब पूंजी के दम पर सत्ताओं को बदलने का काम हुआ । जिसे हम वर्तमान भाजपा सरकार के रूप में देख रहे हैं । पूंजी और सत्ता से लवरेज चंद लोग अब अपने एजेण्डा जिसे कथित राष्ट्रवाद का नाम दिया जा रहा है अब पूरी तरह अपना रूख संस्कृतिक संघर्ष की ओर मोड लिये हैं । आज का इनका संघर्ष संस्कृति केंद्रित हो चुकी है जो इस व्यवस्था के पोषक मार्गदर्शक चाणक्य के शब्दों में "पराजित राघ्ट्र तब तक पराजित नहीं हो सकता जब तक उसकी संस्कृति को पराजित नहीं किया जाय" इसलिये संस्कृति केंद्रित संघर्रूा में देश का मूलनिवासी का क्या एक्सन होगा इसे तय करना होगा । यदि इस पर विचार नहीं किया गया तो यह राष्ट्र इस अंतिम संघर्ष के बाद कभी संघर्ष करने लायक नहीं बचेगा । यही कारण है कि देश के मूलवासी मूलनिवासीजन को अर्थ के संघर्ष में लगाकर जिस बिन्दु पर मूलवासी मूलनिवासीजन पराजित हो चुका है तथा स्वयं सांस्कृतिक परविर्तन के कार्य में जुट गये हैं और जनमानस में सांस्कृतिक अस्त्रों से हमला कर रहे हैं । याद रहे देश का मूलवासी मूलनिवासी शासन (सत्ता) प्रशासन (ब्यूरोक्रसी) और अर्थ (पूंजी) के मामले में पूरी तरह पराजित हो चुका है आंशिक रूप से संस्कृति के मामले में भी मूलवासी मूलनिवासियों के विशाल आकाश पर छेद कर चुका है । अब केवल संस्कृति संस्कारों की कुछ पूंजी कुछ कुछ भागों समुदायों में बची है इसके बल पर सांस्कृतिक युद्ध लडना संभव है क्योंकि इस पर विजय पाना दुश्मन के लिये काफी कठिन है । ये आंतरिक मामला है परंपरा और मान्यताओं का मामला है जो दिल और मन से संचालित होती है । हमें सामान्य जीविका के क्रियाकलापों रोजी रोटी के संघर्ष के साथ साथ सांस्कृतिक संघर्ष की ओर भी अपना ध्यान केंद्रित करना होगा तभी हम अपने अस्तित्व को बचाने में सफल हो पायेंगे अन्यथा सांस्कृतिक पराजय के बाद मूलनिवासी भैतिक पराजय के बाद मानसिक रूप से भी पराजित होकर सदैव के लिये गुलाम हो चुके होंगे और गुलाम कौमें क्रांति नहीं कर सकती ।-gsmarkaam

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