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"आदिवासी राजनीति और राजनीतिक प्रतिबद्धता"

"राजनीतिक प्रतिबद्धता के मामले में सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक सन्गठनो का रुख स्पष्ट होना चाहिए" आदिवासी समुदाय हमेशा से विभिन्न राजनीतिक विचारधारा के दलों में अपनी सुरक्षा और और सहयोग का आधार खोजता रहा है। आरम्भिक समय मे कान्ग्रेस के नेताओं ने उसे पूरी तरह आश्वस्त किया कि हमारे अलावा कोई भी तुम्हारा भला नहीं कर सकता, परिणाम स्वरूप सारा आदिवासी समुदाय और समुदाय की अगुआई करने वाले लोग कान्ग्रेस का वोट बैंक बन गए। समुदाय ने अब कुछ होगा अगली बार कुछ हो सकता है , इसी ऊहापोह में अनेक पन्चवर्षीय योजनाओं का समय निकाल दिया।स्थिति बाहर से बनती दिखी पर अन्दर से सन्विधान के अनेक सन्शोधनो से लगातार खराब होती चली गई अर्थात आदिवासीयो की जड़ें हिल गई। जबकि अन्ग्रेजी राज्य के कानून ने भी आदिवासीयो को सुरक्षित और सरक्षित रखा था जिसे १९५० में सन्विधान निर्माण के समय सन्विधान में भी सन्विधान सभा के विद्वान आदिवासी नायक जयपाल मुन्डा जी, आदिवासी हितों को ज्यो का त्यों स्थान देने में सफल रहे। परन्तु १९५० के बाद सत्ताधारियो ने आदिवासी हितैषी अनुच्छेद और धाराओ में लगातार सन्शोधन करते हुए सन्विधान की मूल अवधारणा की धज्जिया उडाकर रख दिये । यहा ५वी और ६ठी अनुसूचि की सीमाओ को आदिवासी बहुलता देखकर बढाया जाना था परन्तु ऐसे क्षेत्रो मे कथित विकास के नाम पर ओद्योगिक प्रतिष्ठान,व्रहद जलाशय और वन्य जीव सरक्षण के नाम पर अभ्यारणो की स्थापना के नाम पर आदिवासी जनसन्ख्या को अल्पमतीय करने का प्रयास किया गया । इस तरह आदिवासी इन क्षेत्रो मे अल्पमत होता जा रहा है अर्थात ५वी और ६ठी अनुसूचित घोषित क्षेत्र जनसन्ख्या के हिसाब से सामान्य क्षेत्रों की स्थिति में पहुँचने की कगार में है । यही कारण है कि शहर और कस्बों में लगातार गैर आदिवासी जनसंख्या ने ेअनुसूचित घोषित क्षेत्रों के स्वशासन की धज्जियां उडाते हुए नगर परिषद , नगरपालिका आदि गैर आदिवासी शासन को सन्चालित किया जा रहा है ।
१९७० और १९८० के दशक में कुछ आदिवासी नेताओं के समझ में ये बात आई इस विषय में सुगबुगाहट होने लगी तब सान्तवना स्वरूप पेसा कानून के रूप में सन्विधान सन्शोधन हुआ जो केवल ५वी अनुसूचि की तरफ से ध्यान हटाने का एक माध्यम था । जिसने त्रिस्तरीय पन्चायती राज्य व्यवस्था को अनुसूचित क्षेत्रों में दखल देने का अवसर दिया । इस तरह आदिवासी समुदाय और उनके नेतृत्व का ध्यान सन्विधान की मूल अवधारणा से हट गया । ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिनका रहस्योद्घाटन किया जा सकता है, परन्तु समुदाय को इसकी समझ कम होने के कारण मोटी मोटी घटनाओं का उल्लेख काफी है। कान्ग्रेस से लगातार सम्बद्ध समुदाय को अपने नेतृत्व के प्रति अविश्वास पैदा होने लगा तब इस समुदाय का ध्यान साम्यवाद की तरफ गया। जल जन्गल जमीन की रक्षा ही आदिवासियत को बचा सकती है इसके कारण आदिवासी का विश्वास गैर आदिवासी नेतृत्व की ओर बढा लेकिन गैर आदिवासी नेतृत्व के बिना वहाँ भी छला गया समुदाय लगातार विभाजित होता गया! कहीं विचारधारा के नाम पर तो कहीं विकास के नाम पर । इस तरह अपने अस्तित्व खोते विभाजित होते समुदाय की मानसिकता को ५वी और ६ठी अनुसूचि के प्रति नीरसता भरकर विकास की सामान्य अवधारणा के जाल मे फन्साया जाने लगा । भाजपा जैसी कट्टर मूल आदिवासी सन्सक्रति विरोधी विजेता और विजित की भावना रखने वाली पार्टी की तरफ आकर्षित होकर सन्विधान मे उल्लिखत अपने असीम अधिकारो को भूलकर विकास की जनसाधारण अवधारणा का पक्षधर होता गया । जनसाधारण विकास की अवधारणा के मोहपास में अज्ञानतावश अपनी बची खुची सान्स्क्रतिक पून्जी को भी समाप्त करने पर तुल गया है । इसका सीधा दोषी समुदाय का नेतृत्व है चाहे वह सामाजिक क्षेत्र या राजनीतिक क्षेत्र में हो । इसलिये आदिवासी समुदाय के हितों का ध्यान रखने वाला कोई भी व्यक्ति या सन्गठन अब आदिवासी हित में अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करे , ताकि समुदाय की शक्ति का वास्तविक मूल्यान्कन हो सके । छद्मवेश से समुदाय के लिये वास्तविक सन्घर्ष करने वाला सन्गठन और नेत्रत्व धोखे मे रहता है । वह तो यही समझता रहेगा कि समुदाय का व्यक्ति या सन्गठन है समुदाय की ताकत बनेगा । इसलिये प्रजातन्त्र व्यवस्था में शक्ति प्रदर्शन के लिए आदिवासी राजनीति और राजनीतिक प्रतिबद्धता का खुला प्रदर्शन समुदाय के लिए हितकारी होगा ।-gsmarkam

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